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विज्ञान की अद्भुत शाखा : कैओस सिद्धांत

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वैज्ञानिक सिद्धांतों विशेषकर आइजैक न्यूटन और अल्बर्ट आइंस्टाइन के सिद्धांतों की सफलता ने एक कठोर नियतत्ववाद (Rigid determinism) की शुरुआत की, जिसके अनुसार यदि हम प्रकृति के नियमों से वर्तमान में भलीभांति परिचित होंगे तो सैद्धांतिक रूप से ब्रह्मांड में भविष्य में घटित होनेवाली किसी भी घटना की सफल भविष्यवाणी करने में सक्षम होंगे। उदाहरण के लिए यदि हम किसी समय विशेष पर सौरमंडल के ग्रहों की गति और स्थिति (Speed and position) को जानतें हों तो हम बड़ी सटीकता से यह भी भविष्यवाणी कर सकते हैं कि एक वर्ष उपरांत ग्रहों की स्थिति और गति क्या होगी। इस नियतत्ववाद को तब बड़ा झटका लगा जब वर्नर हाइजेनबर्ग ने क्वांटम यांत्रिकी (Quantum mechanics) के एक महत्वपूर्ण पहलू, अनिश्चितता-सिद्धांत (Uncertainty principle) की खोज की। परमाण्विक स्तर (Atomic level) पर यह सिद्धांत कहता है कि हम किसी कण की स्थिति और उसके संवेग (Momentum) को एक साथ नहीं जान सकते। उदाहरण के लिए यदि हम यह जानना चाहते हैं कि परमाणु के भीतर किसी कण की क्या स्थिति है, तो कण की स्थिति जानने के लिए हमें उसपर प्रकाश (फ़ोटॉन) फेंकना पड़ेगा। जब फ़ोटॉन उस कण से टकरायेंगे तब उस टक्कर के परिणामस्वरूप कण की स्थिति और अवस्था परिवर्तित हो जाएगी। इस तरह हम उसकी स्थिति को नहीं जान पाएंगे क्योंकि स्थिति को जानने के क्रम में हमने स्थिति में परिवर्तन कर दिया। क्वांटम भौतिकी में हम किसी कण के कहीं पर होने का पूर्वानुमान लगाने का प्रयास तो कर सकते हैं मगर सटीकता से यह नहीं बता सकते कि वह कहाँ पर हैं। वह कहीं पर भी हो सकता है।

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क्या है कैओस सिद्धांत?
परंतु, यदि हमे किसी कण या पत्थर की स्थिति, उसका संवेग, वायु का घनत्व, उसका वेग, पृथ्वी द्वारा लगाया गुरुत्वाकर्षण बल आदि सबकुछ पता हो और हम उस पत्थर को अंतरिक्ष से पृथ्वी पर फेंक दें तो क्या हम पत्थर के कहीं पर भी गिरने से पहले ही सटीकतापूर्वक यह बता सकते हैं कि वह पत्थर कहाँ पर गिरेगा? सैद्धांतिक रूप से हाँ, मगर हम व्यवहारिक रूप से बिलकुल सटीकतापूर्वक नहीं बता सकते की पत्थर यहीं पर गिरेगा क्योंकि छोटी प्रारंभिक अनियमिता और अनिश्चितता भी पत्थर की गति, स्थिति आदि को प्रभावित करके हमारी भविष्यवाणी को निरर्थक और अव्यवहारिक सिद्ध कर सकती है। ठीक इसी प्रकार से आज हम ग्रहों की गति और स्थिति की भविष्यवाणी करने में सक्षम हैं, मगर लंबे अर्से के लिए नहीं, हम यह नहीं बता सकते कि आज से पांच हजार वर्ष बाद सूर्य, पृथ्वी और अन्य ग्रहों की क्या स्थिति होगी। हम जानते हैं कि क्वांटम यांत्रिकी यादृच्छिकता (Randomness) का प्रतीक है, इसलिए आइंस्टाइन ने इसे ‘पासा लुढ़काने वाला सिद्धांत’ कहा था। परंतु पत्थर का फेंकना या ग्रहों की भविष्यवाणी एक स्थूल (विशाल) पैमाने से संबंधित है, जिसे न्यूटन और आइंस्टाइन की भौतिकी को संभालने में सक्षम होना चाहिए। वास्तव में, यह काफी अच्छी तरह से संभालता भी है। मगर, आधुनिक गणित और विज्ञान की एक शाखा ‘कैओस सिद्धांत’ (Chaos Theory) चिरसम्मत भौतिकी (Classical physics) की भविष्यवाणी संबंधी सीमाओं को इंगित करती है। इस सिद्धांत के अनुसार अतिसूक्ष्म परिवर्तन भी बड़े पैमाने पर किसी क्रिया के परिणाम को प्रभावित कर सकता है। आज हम देखतें हैं कि किस प्रकार से अधिकांश मौसम की भविष्यवाणियाँ या पूर्वानुमान गलत साबित हो जाते हैं, फिर भी हम मौसम विज्ञान क्षेत्र की निंदा नहीं करते और न ही बेकार अनुमान लगाने के सिद्धांत के रूप में इसे खारिज कर देते हैं। बल्कि हम यह मानते हैं कि यह एक अपूर्ण विज्ञान है, यह तो केवल हमे किसी विशेष परिणाम (जैसे बारिश होगी या नहीं होगी) की संभावना को ही बताता है। दशकों पहले की तुलना में, आज पूर्वानुमान बहुत बेहतर हैं। मगर, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चाहें कितनी भी प्रगति हो जाए ‘कैओस सिद्धांत’ के अनुसार मौसम की भविष्यवाणी कभी भी पूरी सटीकता के साथ नहीं की जा सकेगी।

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एडवर्ड लोरेंज़

1960 के दशक के आरंभिक वर्षों में मौसम विज्ञान के एक प्रोफेसर एडवर्ड लोरेंज अपने कंप्यूटर द्वारा मौसम का पूर्वानुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे। उस समय मौसम को तापमान, दबाव, और वायु वेग जैसे मापने योग्य कारकों के समुच्चय (Set) द्वारा निर्धारित किया जाता था, तत्कालीन पारंपरिक ज्ञान यह था कि एक ठोस मॉडल, डेटा का पूरा समुच्चय और एक शक्तिशाली संख्या-संकुचन उपकरण (Number-crunching device) द्वारा मौसम की सफल भविष्यवाणी की जा सकती है। लोरेंज अपने शोधकार्य के दौरान यह देखकर चकित रह गए कि प्रारंभिक स्थितियों में नगण्य बदलाव भी व्यापक रूप से भिन्न परिणाम देता है। दूसरे शब्दों में, छोटी प्रारंभिक अनिश्चितता और संख्यात्मक गणनाओं में निकटतम त्रुटि भी व्यापक रूप से मौसम के मिजाज़ को प्रभावित करती है।
कैओस सिद्धांत के आरंभिक समर्थकों में से एक थे महान गणितज्ञ हेनरी पॉइंकारे, जिन्होंने बीसवी सदी के आरंभ में ही एडवर्ड लोरेंज का मार्गदर्शन करते हुए कहा था कि प्रारंभिक स्थिति में हो रही छोटी सी असमानताएं भी अंतिम घटना में बहुत बड़ी असमानता उत्पन्न कर सकती है। प्रारंभिक स्थितियों के प्रति संवेदनशीलता का अभिप्राय यह है कि एक कैओटिक प्रणाली (Chaotic System) में प्रत्येक बिंदु, अलग-अलग भविष्य के पथों की बिंदुओं द्वारा अनुमान लगाया जाता है। इस प्रकार, वर्तमान प्रक्षेपवक्र (Trajectory) में एक छोटे (नगण्य) परिवर्तन से भविष्य के व्यवहार में भिन्नता हो सकती है। प्रारंभिक स्थितियों के प्रति संवेदनशीलता का एक परिणाम यह है कि अगर हम किसी प्रणाली (सिस्टम) के बारे में कुछ कम जानकारी के साथ कार्य करना शुरू करते हैं तो एक निश्चित समय के बाद सिस्टम का पूर्वानुमान लगाना असंभव हो सकता है।

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तितली प्रभाव

यह सिद्धातं मौसम विज्ञान के मामले में सर्वाधिक परिचित है, जो आमतौर पर केवल एक हफ्ते तक का पूर्वानुमान लगा सकता है। दरअसल, किसी भी कैओटिक प्रणाली में, पूर्वानुमान लगाने की अनिश्चितता बीते समय के साथ तेजी से बढ़ जाती है।प्रारंभिक स्थितियों की इस अत्यधिक निर्भरता या संवेदनशीलता (Initial conditions) को लोरेंज द्वारा ‘तितली प्रभाव’ (The butterfly effect) नाम दिया गया। इसका अभिप्राय यह है कि एक जटिल प्रणाली में एक स्थान पर एक छोटा-सा भी बदलाव दूसरे स्थान पर बड़ा प्रभाव उत्पन्न कर सकता है, उदाहरण के लिए, यदि एक तितली अमेज़न के जंगलों में अपने पंख फड़फड़ाती है तो इसकी वजह से टेक्सास में तूफ़ान आ सकता है। वास्तव में, हम यह जानते हैं कि एक तितली के पंख फड़फड़ाने से कहीं भी तूफ़ान नही आ सकता, मगर इस कथन का मूल अर्थ यह है कि किसी भी सिस्टम (प्रणाली) में एक बेहद मामूली बदलाव भी क्रियाओ की उन श्रंखलाओं को जन्म दे सकता है, जो उस सिस्टम के भविष्य को पूरी तरह बदल देगी। लोरेंज और अन्य वैज्ञानिकों ने इस परिघटना का नेतृत्व किया, जिसको बाद में ‘कैओस सिद्धांत’ (Chaos Theory) के रूप में व्यापक समर्थन मिला। इस सिद्धांत के बारे में एडवर्ड लोरेंज ने संक्षेप कहा था : ‘जब वर्तमान स्थिति भविष्य को निर्धारित करता है, लेकिन अनुमानित वर्तमान भविष्य का निर्धारण नहीं करता है’। इस वजह से किसी भी व्यवहार और गतिविधि की दीर्घकालिक स्थिति की भविष्यवाणी करना असंभव है। यह हमें अजीब लग सकता है, मगर वास्तव में कैओस सिद्धांत के अंतर्गत ऐसे ही व्यवहारों, गतिविधियों और प्रणालियों का अध्ययन किया जाता है जिनका पूर्वानुमान लगाना या जिन पर नियंत्रण करना असंभव है, जैसे कि मौसम और जलवायु, शेयर बाजार, विभिन्न प्रकार की खगोलीय गतिविधियाँ और हमारे मस्तिष्क की स्थितियां आदि।

अनुप्रयोग

‘कैओस’ शब्द का अर्थ है भ्रम, अनिश्चितता, अराजकता और अनियमितता। चूँकि अराजक या अनिश्चित व्यवहार कई प्राकृतिक प्रणालियों (जैसे, मौसम और जलवायु) और कृत्रिम घटकों या सामाजिक व्यवहारों (जैसे, सड़क यातायात या अनियंत्रित भीड़) में मौजूद है, इसलिए कैओस सिद्धांत विश्लेषणात्मक तकनीकों के माध्यम से इनका अध्ययन करता है। अत: कैओस सिद्धांत वर्तमान में वैज्ञानिक अनुसंधान का एक सक्रिय क्षेत्र बना हुआ है।

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कैओस सिद्धांत का समीकरण

‘कैओटिक लाइट हार्वेस्टिंग’ जैसे नवीनतम अनुसंधानों से यह भी पता चला है कि कैओस सिद्धांत संबंधी हमारी यह आम धारणा कि यह उपकरणों की कार्य-क्षमता को कम कर देती है, सदैव सच नहीं होती। जैसे-जैसे तकनीक और विकसित होगी उपकरणों की कार्य-क्षमता में भी बढ़ोत्तरी होगी। हालाँकि कैओस सिद्धांत के अनुसार भविष्य में भी, किसी भी प्रणाली में अत्यंत सूक्ष्म कारक की अज्ञानता या थोड़ी-सी अनिश्चितता भी हमारे पूर्वानुमान को गलत सिद्ध कर देगी। कैओस सिद्धांत निश्चितता और अनिश्चितता के बीच परिवर्तन को खोजता है। हम यह कह सकते हैं कि कैओस सिद्धांत मानव जाति के लिए अत्यंत लाभप्रद है। इसका एक सामान्य उदाहरण यही दिया जा सकता कि वर्तमान में मनोवैज्ञानिक व मनोचिकित्सक मन-मस्तिष्क की बीमारियों के चिकित्सीय अध्ययन के लिए इस सिद्धांत का उपयोग कर रहे हैं क्योंकि इससे मरीज की प्रारंभिक स्थिति का पता लगाकर उसका यथोचित ईलाज किया जा सकता है।कैओस सिद्धांत का जन्म मौसम के पैटर्न देखने से हुआ था, लेकिन वर्तमान में यह कई अन्य स्थितियों पर लागू हो गया है। कैओस सिद्धांत का इन क्षेत्रों में व्यापक अनुप्रयोग हो रहा है : भूविज्ञान, गणित, सूक्ष्म जीव विज्ञान, जीव विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान, अर्थशास्त्र, इंजीनियरिंग, एल्गोरिथम ट्रेडिंग, पारिस्थितिकी, मौसम विज्ञान, दर्शन, नृविज्ञान, भौतिकी, राजनीति, जनसंख्या गतिशीलता, डीएनए कंप्यूटिंग, मनोविज्ञान, रोबोटिक्स आदि।

इस प्रकार हम यह देखते हैं कि क्वांटम यांत्रिकी के साथ-साथ प्रकृति, कृत्रिम घटकों और सामाजिक व्यवहारों में भी सूक्ष्म मगर प्रभावी रूप से यादृच्छिकता मौजूद है। अगर आइंस्टाइन जीवित होते तो कैओस सिद्धांत के बारे में कुछ इस प्रकार से टिप्पणी करते : ‘ईश्वर एक से अधिक तरीकों से पासा फेंकता है’।

लेखक परिचय

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प्रदीप

प्रदीप कुमार एक साइंस ब्लॉगर एवं विज्ञान संचारक हैं। ब्रह्मांड विज्ञान, विज्ञान के इतिहास और विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर लिखने में आपकी  रूचि है। विज्ञान से संबंधित आपके लेख-आलेख राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, जिनमे – टेक्निकल टुडे, स्रोत, विज्ञान आपके लिए, समयांतर, इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए, अक्षय्यम, साइंटिफिक वर्ल्ड, विज्ञान विश्व, शैक्षणिक संदर्भ आदि पत्रिकाएँ सम्मिलित हैं। संप्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर के विद्यार्थी हैं। आपसे इस ई-मेल पते पर संपर्क किया जा सकता है : pk110043@gmail.com


अंतरिक्ष –क्या है अंतरिक्ष ? : भाग 1

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अंतरिक्ष(Space)

हम सब लोग इस पृथ्वी पर रहते है और अपनी दुनियाँ के बारे में हमेशा सोचते भी रहते है जैसे- सामानों, कारों, बसों, ट्रेनों और लोगो के बारे में भी। लगभग सारे संसार मे हमारी रोजमर्रा की जिंदगी के सभी चीज हमारे आसपास ही मौजूद है किसी बड़े महानगर जैसे- न्यूयॉर्क, मुम्बई, दिल्ली इन भीड़-भाड़ वाले शहरों में तो ये सभी सामान से भरे पड़े है। फिर भी, हमारे रोजमर्रा के जिंदगी के सभी चीजों के आसपास ही कुछ और भी है जो काफी महत्वपूर्ण है और बहुत अधिक रहस्यमय भी है। वो है स्थान(Space)। वही स्थान जहाँ सब सामान मौजूद है हम आप से लेकर सबकुछ तक। हम जिस स्थान के बारे में बात कर रहे है इसे महसूस करने के लिए एक पल के लिए रुककर आप कल्पना करें। क्या होगा यदि यह सब सामान को हटा दिया जाय मेरा मतलब यह है कि सभी लोगो, कारो, बसों, ट्रेनों, इमारतों यहाँ तक कि पृथ्वी, सभी बड़े छोटे ग्रहों, तारो और आकाशगंगाओ तक को हटा दिया जाय और तो और न सिर्फ बड़े सामानों को बल्कि छोटी से छोटी चीजो जैसे गैसों और धूल के अंतिम परमाणुओं तक को हटा दिया जाय तो वास्तव में क्या बचेगा ?

हममे से अधिकांश लोगों का जवाब होगा “कुछ भी नही”।

यह जवाब सही भी है लेकिन दूसरे तरीके से इसे देखे तो यह जवाब गलत भी है। क्या खाली है खाली स्थान ? खाली स्थान भी कहीं खाली हो सकता है ? जैसा कि हमलोग सोचते है और हमे पता भी चलता है कि रिक्त स्थान का मतलब कुछ भी नही है लेकिन वास्तव में यह रिक्त स्थान ही अपनी छिपी हुई विशेषताओं के साथ बहुत कुछ है जो कि हमारे रोजमर्रा के जीवन के लिए सभी चीजों के साथ हमारे आसपास ही मौजूद है। जब बात अंतरिक्ष(स्पेस, रिक्त स्थान) की होती है तो हम ज्यादातर लोग आसमान को ओर निहारने लगते है जबकि वास्तव में अंतरिक्ष तो आपके आसपास सभी जगह मौजूद ही है यहाँ तक कि आपके पैरों के नीचे भी। अंतरिक्ष वास्तव में एक सत्य है जो सभी जगह मौजूद है आप अंतरिक्ष को मोड़ सकते है इसे लहरेदार बना सकते है इसे सिकोड़ सकते है फैला भी सकते है। अंतरिक्ष इतना वास्तविक है कि यह खाली स्थान ही हमारे आसपास की दुनियां में सबकुछ को आकार देने में मदद करता है और हमारे ब्रह्माण्ड को फैब्रिकेटेड(Fabricated) बनाता है।

शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और भौतिकविद् क्रैग होगन(Craig Hogan) का कहना है कि

आप इस दुनियां के बारे में कुछ नही समझ सकते जबतक की आप अंतरिक्ष को नही समझते हो क्योंकि इस दुनियां में उसके सामानों के साथ -साथ दुनियां का स्थान भी विद्यमान है।

मेरीलैंड विश्वविद्यालय के भौतिकविद् प्रोफ़ेसर एस जेम्स गेट्स जेआर(S.James Gates, Jr) कहते है:

हम आमतौर पर अंतरिक्ष के बारे में बहुत सचेत नही होते लेकिन मैं फिर भी लोगो को बताता हूँ शायद मछली भी पानी के प्रति सचेत नही होती जबकि उसे हर समय उसमे ही रहना है।

फर्मी राष्ट्रीय त्वरक प्रयोगशाला के भौतिकवैज्ञानिक जोसफ लयकेन(Joseph Lykken) का कहना है:

हमारी नजर से अंतरिक्ष कुछ भी नही है लेकिन वास्तव में इसके अंदर बहुत कुछ हमेशा चल रहा होता है।

हममे से ज्यादातर लोगों के दिमाग मे जो अंतरिक्ष की छवि होती है वो बाहरी अंतरिक्ष के बारे में होती है एक ऐसी जगह जो हमसे दूर है बहुत दूर लेकिन अंतरिक्ष तो सब जगह मौजूद है। आप कह सकते है अंतरिक्ष ब्रह्माण्ड में सबसे प्रचुर मात्रा में मौजूद है यहाँ तक की सबसे छोटी चीजो जैसे- परमाणुओं, आपके और मेरे मूल तत्व और हमारे चारों ओर की दुनियां में जो कुछ भी हम देखते वो लगभग पूरी तरह से खाली स्थान ही है। यदि आप किसी बड़ी इमारत जैसे एम्पायर स्टेट बिल्डिंग को तोड़कर किसी परमाणु के अंदर डाल दे और उस परमाणु में रिक्त स्थान न बचने दे तो यह पूरी बिल्डिंग एक चावल के दाने से भी छोटी आकर में समा जाएगी लेकिन इस चावल के दाने का वजन पूरी बिल्डिंग के वजन के बराबर होगा। इससे आप अनुमान लगा सकते है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कितनी खाली जगह मौजूद है।

अब सवाल उत्पन्न होता है कि वास्तव में स्पेस क्या है ?

हम आपको अंतरिक्ष की तस्वीर तो दिखा सकते है लेकिन आपको अंतरिक्ष दिखेगा क्या ? सिर्फ रिक्त स्थान। जब अंतरिक्ष मे खाली स्थान के अलावा कुछ दिखता ही नही तो आप अंतरिक्ष को कैसे समझ सकते है ?

लिओनार्ड सस्किंदलियोनार्ड सुसकिंड(Leonard Susskind) स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक है उनके अनुसार अंतरिक्ष क्या है इसे समझने के वजाय

  • अंतरिक्ष ऐसा क्यों है ?
  • अंतरिक्ष तीन आयामी क्यो है ?
  • अंतरिक्ष बड़ा क्यों है ?
  • हमारे चारों ओर घूमने के लिए बहुत सारी खाली जगह क्यों मौजूद है ?
  • अंतरिक्ष छोटा क्यों नही है ?

इन सारे प्रश्नों पर विचार करना ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन इन चीजों के बारे में हममे कोई आम सहमति नही है।

एलेक्स फिलिपेन्को(Alex Filippenko) कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय(वर्कले) इनके अनुसार अंतरिक्ष क्या है ? हम वास्तव में अभी तक पुर्णतः जान नही पाये है। एस जेम्स गेट्स जेआर के अनुसार अंतरिक्ष भौतिकी के सबसे गहन रहस्यों में से एक है।

लेकिन सौभाग्य से, हम पूरी तरह अंधेरे मे भी नही है हम सदियों से अंतरिक्ष के बारे में जानकारी इकट्ठा करने में लगे है। हम जल्द ही यह जानने लगे है कि कोई भी वस्तु अंतरिक्ष के माध्यम से कैसे आगे बढ़ पाता है। इसे समझने के लिए आप रिंग पर स्केटिंग(Sketting) करती हुई एक युवती पर नजर डाले। यह युवती पूरी रिंग भर में कलाबाजियां दिखा रही है। वह अपने चारों ओर निर्विरोध गति कर रही है जब वह युवती गोल-गोल घूमने लगती है तो वह देखती है कि उसके आसपास की सारी चीजें घूम रही है वह इसे महसूस भी कर रही है। जब वह अपनी बाँह को फैला देती है तो उसे लगता है कि यह स्पेस उसे बाहर की तरफ खिंच रहा है यहाँ वास्तव में सिर्फ वो युवती ही स्पिन नही कर रही है यहाँ अंतरिक्ष भी उसके साथ स्पिन कर रहा होता है। एक पल के लिए आप यह कल्पना करे यह युवती किसी रिंग में नही बल्कि अंतरिक्ष मे स्केटिंग कर रही है उसका दायरा अब बढ़कर सम्पूर्ण आकाशगंगा हो गया है। उसके आसपास कुछ भी नही सिर्फ अंतरिक्ष को छोड़कर वह सिर्फ खाली स्थान में स्केटिंग कर रही है। यहाँ भी यह युवती बाँहे फैलाने पर वह बाहर की ओर खिंचाव महसूस करेंगी लेकिन वो युवती जानती है कि वो सिर्फ स्केटिंग कर रही है। लेकिन अगर खाली स्थान कुछ नही है तो वह स्केटिंग किस माध्यम से कर रही है ? अगर आप भी स्केटिंग कर रहे है तो आपको बाहर की ओर देखने पर सिर्फ सामानों के अलावा कुछ नही दिखेगा लेकिन आप जानते है आपके आसपास खाली स्थान मौजूद है यही खाली स्थान आपको स्केटिंग करने की अनुमति दे रहा है। आप कह सकते है कि किसके साथ स्केटिंग कर रहा हूँ कुछ तो ऐसा है जो मैं देख नही पा रहा हूँ लेकिन मेरी स्केटिंग उसके माध्यम से ही हो रही है। अंतरिक्ष को समझने और इन जटिल सवालो के जवाब देने की कोशिश वैज्ञानिक काफी समय से कर रहे है। नई जानकारियां और विशेषताओं को आपसे साझा भी कर रहे है यह वैज्ञानिक आपको अंतरिक्ष की बिल्कुल नई तस्वीर दिखा रहे है।

जब आप किसी थियेटर या सिनेमाघरों में जाते है तो अभिनेता, अभिनेत्री, दृश्यावली या कहानी देखते है और शायद प्रोडक्शन कंपनी, थियेटर, फ़ाइल फुटेज भी। लेकिन यहाँ कुछ और भी महत्वपूर्ण है जिसका उल्लेख न तो फ़िल्म की कहानी में मिलेगा न ही अपने कभी ध्यानपूर्वक नोटिस किया होगा। वो है…मंच…शो का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा।

फिर भी हममे से अधिकांश लोग इसपे ज्यादा विचार नही करते परंतु एक व्यक्ति था जिसने इसपर सर्वप्रथम अपने विचार रखा था नाम..सर आइजैक न्यूटन(Sir Issac Newton)। उन्होंने जो अंतरिक्ष का चित्रण किया था उसके अनुसार अंतरिक्ष सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक खाली स्थान के रूप में है जो सबकुछ के लिए एक रूपरेखा तैयार करता है अंतरिक्ष वो खाली स्थान है जहाँ ब्रह्माण्ड अपना नाटक खेलता है। न्यूटन के अनुसार स्पेस पूर्ण शाश्वत और अपरिवर्तनीय(Unchangeable) है। आपके द्वारा किया गया कोई भी कार्य अंतरिक्ष को प्रभावित नही कर सकता और अंतरिक्ष भी आपके कार्य को प्रभावित नही कर सकता। इस प्रकार न्यूटन ने जो अंतरिक्ष का चित्रण किया वह हमारी दुनियां का वर्णन करने में तो सक्षम था क्योंकि इससे पहले कभी ऐसा सोचा नही गया था। उनके इस अपरिवर्तनीय सिद्धान्त ने हमे लगभग सभी अंतरिक्षीय प्रस्तावों को समझने की अनुमति तो दे दी जो हमलोग अपने चारों ओर देखते है जैसे कि सेब का पेड़ से गिरने से लेकर पृथ्वी की सूर्य का चक्कर लगाने तक। न्यूटन के इन नियमो ने इतनी अच्छी तरह से काम किया कि आज भी हम उपग्रहों के प्रक्षेपण से लेकर एयरप्लेन के लैंडिंग तक इन नियमो का प्रयोग करते है। अंतरिक्ष वास्तविक है हालांकि आप उसे देख नही सकते, छू नही सकते लेकिन प्रत्येक भौतिक चीज के लिए यह जरूरी है।

हम सब वाक़ई रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं। हमारे सामने लोग सड़कों पर चल रहे हैं, गाड़ियाँ दौड़ रही हैं। बच्चे स्कूल जा रहे हैं, लोग दफ़्तर। रेलगाड़ियाँ पटरियों पर सरक रही हैं, हवाई जवाज़ आसमान में। सूर्य गगन में उगता दिख रहा है, चन्द्रमा भी। अब तनिक पृथ्वी छोड़िए और अन्तरिक्ष में जाकर ठहर जाइए।अगर किसी आम व्यक्ति से आप अन्तराल की अवधारणा पूछें, तो खाली जगह बताएगा। वह खाली जगह, ‘जिसमें’ सभी छोटी-बड़ी घटनाएँ हो रही हैं। लोग ‘खाली जगह’ पाते हैं, तो चलते हैं। गाड़ियाँ ‘खाली जगह’ में दौड़ती हैं। ट्रेनें और हवाई जहाज़ ‘खाली स्थान’ पाकर ही आगे बढ़ते हैं। और थोड़ा कुरेदने पर कि क्या यह ‘खाली स्थान’ सचमुच खाली है, तो कह देते हैं कि है तो, लेकिन इसमें हवा मौजूद है।

और फिर अन्तरिक्ष में जो ‘खाली स्थान’ है, वह क्या है ? वहाँ तो बहुत जगहों पर धूल-गैस है, लेकिन ज़्यादातर जगह वह भी नहीं। तो उसका खालीपन कैसे समझा जाए ? और फिर समय क्या है ? क्या सबके लिए समय एक-सा ही है ? क्या ब्रह्माण्ड में हर स्थान पर समय एक-सा ही बर्ताव करेगा ? ब्रह्माण्ड में कहीं रुके हुए या अलग-अलग गतियों से चलते व्यक्तियों के लिए समय का ‘गुज़रना’ कैसा होगा ?

आइजैक न्युटन

आइजैक न्युटन

अगर सर आइज़ेक न्यूटन से इन प्रश्नों के उत्तर पूछे जाते, तो वे कुछ-कुछ ऐसा ही जवाब देते। उनके अनुसार ब्रह्माण्ड का हर पिण्ड(मनुष्य-जीवजन्तु-पेड़पौधे-खगोल पिण्ड) रंगमंच की कठपुतलियाँ ही हैं। और रंगमंच ? वह एकदम स्थिर और तटस्थ रहता है। सभी पात्रों के लिए समय एक-सा बीतता है और नाटक ख़त्म हो जाता है। न्यूटन से अगर आइंस्टाइन मिले होते तो न्यूटन से जरूर पूछते कि रंगमंच की कठपुतलियों के कारण मंच पर कोई प्रभाव पड़ता है ? क्या मंच इन कठपुतलियों के कारण फैल या सिकुड़ सकता है ? हालांकि इन प्रश्नों का उत्तर वे ‘ना’ में देते। न्यूटन के अनुसार रंगमंच, जो कि नाटक के पात्रों के लिए एक रेफ़रेंस फ़्रेम है, किसी के होने या न होने से ‘बदलता’ या ‘प्रभावित’ नहीं होता। वह यथावत् बना रहता है।

हममें से ज़्यादातर लोग गुरुत्व को और ब्रह्माण्ड को न्यूटनीय दृष्टि से ही समझते हैं। हम सोचते हैं कि सेब पृथ्वी पर गिरता है क्योंकि इनके बीच में कोई अदृश्य बल की डोरी है जिस कारण पृथ्वी सेब को अपनी ओर खींच लेती है। लेकिन क्या सेब पृथ्वी को अपनी ओर नहीं खींच रहा, सत्य यह है कि सेब भी पृथ्वी को अपनी ओर खींच रहा है। बल्कि सत्य यह है कि सेब और पृथ्वी दोनों एक-दूसरे को अपनी ओर खींच रहे हैं। सेब पृथ्वी पर गिर रहा है, लेकिन पृथ्वी भी सेब पर गिर रही है। गुरुत्व का यह बल परस्पर है, दोनों पिण्डों को एक-दूसरे के समीप ला रहा है। लेकिन फिर सेब और पृथ्वी के ‘होने’ से, जहाँ वे स्थिर हैं, वहाँ कोई प्रभाव पड़ रहा है ? ‘वहाँ’ यानी अन्तराल या खाली जगह में ? अब यह अधिकांश को चकराने वाली बात लगेगी। लेकिन वास्तविकता वह नहीं है, जो न्यूटन हमें बताते हैं। बल्कि न्यूटन का बताया गुरुत्व-ज्ञान हमारे लौकिक जगत् के लिए व्यावहारिक तो है, पर अधूरा है। इसीलिए न्यूटनीय भौतिकी से हम रोज़मर्रा के जीवन में गेंद-सेब-बस-आदमी-जैसी चीज़ों की गति और स्थिति समझ सकते हैं, किन्तु दो तरह के पिण्डों के मामले में न्यूटन हमें गच्चा दे जाते हैं और भौतिकी के उनके नियम असत्य सिद्ध हो जाते हैं। वे दो तरह के पिण्ड, बहुत छोटे(एलेक्ट्रॉन-प्रोटॉन-न्यूट्रॉन) व बहुत बड़े पिण्ड ग्रह-तारे-गैलेक्सी हैं। यहाँ न्यूटन की समझ से बातें नहीं घटतीं, कुछ और ही ढंग-ढर्रा काम करता है। न्यूटन का यह सिद्धान्त बड़ा हिट हुआ 200 साल से अधिक समय तक इस सिद्धान्त का वर्चस्व बना रहा लेकिन 20वी सदी के शुरुआती दशकों में एक युवा क्लर्क ने अपनी बिल्कुल नई विचारो से अंतरिक्ष के इस चित्रण को ही बदल कर रख दिया। वो था स्विस पेटेंट कार्यालय में क्लर्क की नौकरी करनेवाला एक युवा, नाम – अलबर्ट आइंस्टाइन(Albert Einstein)

अलबर्ट आइंस्टाइन जिन्होंने हमें बताया कि रंगमंच कोई तटस्थ और स्थिर स्थान नहीं, वह भी फैलता और सिकुड़ता है। समय भी हर पात्र के लिए एक-सा नहीं बीतता, वह अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग दर से बीत सकता है। न्यूटन से अगर आइंस्टाइन मिलते तो यही कहते कि आपने सेब का गिरना देखा और समझा, लेकिन सेब के चारों और धँस रहे काल और अन्तराल के समन्वय को न देख पाये।

फिलॉसफर भी अंतरिक्ष की प्रकृति पर बहुत लंबे समय से बहस करते आ रहे है लेकिन न्यूटन के इस अपरिवर्तनीय सिद्धान्त ने उनके बहस के शर्तों को ही बदल कर रख दिया शायद इसलिए न्यूटन को आधुनिक विज्ञान का जनक कहा जाता है। 1800 के दशक के उत्तरार्द्ध में पूरा विज्ञान जगत विधुत धारा(Electric power) से बड़े शहरों को प्रकाश देने में लगा रहा था इस घटनाओं में कुछ ने आइंस्टीन को बड़ा प्रभावित किया था अब आइंस्टीन सिर्फ कुछ शहरों को प्रकाश बल्ब या स्ट्रीट लाइट ही नही बल्कि संपूर्ण विश्व को प्रकाश की प्रकृति से अवगत करनेवाले थे। प्रकाश की यह अजीब विशेषता न्यूटन के अंतरिक्ष की तस्वीर को अब गिराने वाली थी।

इसे अच्छी तरह समझने के लिए हम एक कैब(Cab) की यात्रा पर आपको ले चलते है। मैं अब एक कैब में हूँ मेरी कैब लगभग 20 मील/घण्टे की रफ्तार से चल रही है। मैं अपनी कैब की रफ्तार को और बढ़ा रहा हूँ आप इस गति के बदलाव को महसूस कर सकते है और अपनी कैब की स्पीडोमीटर(Speedometer) पर देख भी सकते है। आपके कैब का स्पीडोमीटर आपके लिए एक गति संकेत है आप अपनी कैब की रफ्तार को बढ़ा भी सकते है या घटा भी सकते है। अब आप कल्पना करे कि आपके पास एक और स्पीडोमीटर है जो प्रकाश की गति को भी माप सकता है। आपने अपनी कैब की हेडलाइट जलाई आपका स्पीडोमीटर संकेत 671,000,000 मील/घण्टे की माप कर रहा है। एक सिद्धान्त हमे बताता है कि जब कैब चलनी शुरू करती है तो प्रकाश की गति को भी आखिरकार बढ़नी ही चाहिये क्योंकि कैब की गति प्रकाश को अतिरिक्त पुश दे रहा है। लेकिन आश्चर्य की बात है ऐसा नही हो रहा वास्तव में प्रकाश की गति सभी के लिए समान ही है। मेरी कैब चलती रहे या रुकी रहे मेरा हेडलाइट प्रकाश स्पीडोमीटर हमेशा 671,000,000 मील/घण्टे की गति को ही दर्शाता रहेगा। यहाँ सवाल उत्पन्न होता है कि

  • क्यों प्रकाश की गति सभी के लिए एक समान ही है ?
  • प्रकाश की गति में परिवर्तन क्यों नही हो रहा है ?

आइंस्टीन ने इस असाधारण पहेली का जवाब खोज निकाला था। जैसा कि हमसब जानते है गति समय के साथ स्थान परिवर्तन है। आइंस्टीन ने कहा अंतरिक्ष और समय अलग-अलग नही है दोनों एक है और एक साथ काम करते है। आप प्रकाश की गति को मापेगे तो हमेशा आपको प्रकाश की गति एक समान ही मिलेगी चाहे आप किसी भी गति से यात्रा क्यों न कर रहे हो। प्रकाश की गति की गुणवत्ता एवं उसकी गति सीमा की रक्षा के लिए समय अपनी रफ्तार को धीमा करने लगता है और अंतरिक्ष गति की दिशा में सिकुड़ने लगता है। मतलब स्पष्ट था, वास्तव में अंतरिक्ष और समय बहुत लचीला है लेकिन हमें कभी इसका आभास नही होता केवल इसलिए कि हम रोजमर्रा के जीवन मे इतनी तेज गति से कभी भी यात्रा नही करते। यदि मैं अपनी कैब को प्रकाश के गति के समीप ले जाऊ तो यह प्रभाव अब बिल्कुल भी छिप नही सकता।

मान लीजिये मेरी कैब अब प्रकाश गति के समीप की गति से यात्रा कर रही है यदि आप सड़क के किनारे खड़े होकर मेरी कैब को देख रहे है तो आप क्या देखेगे ?? आपको मेरी कैब सिर्फ एक इंच लंबी दिखाई देगी क्योंकि आपके नजर में मेरा स्पेस सिकुड़ गया है। यदि आप किसी तकनीक से मेरी घड़ी को देख पा रहे है तो आपको मेरी घड़ी बहुत धीमी या लगभग रुकी हुई मालूम पड़ेगी। लेकिन मेरे परिपेक्ष्य से कैब के अंदर, न केवल मेरी घड़ी सामान्य दर से चल रही है बल्कि अंतरिक्ष भी बिल्कुल सामान्य है अर्थात उसमे कोई बदलाव नही आया है। जब मैं कैब के बाहर देखता हूँ तो सभी जगहों को बेतहाशा समायोजन होते हुए देख रहा हूँ यहाँ भी प्रकाश गति सीमा की रक्षा हो रही होती है क्योंकि प्रकाश गति सबके लिए समान ही होनी चाहिये। आइंस्टीन के अनुसार, समय और अंतरिक्ष न तो कठोर है न ही निरपेक्ष इसके वजाय वे एकत्रित होकर एक एकल इकाई बनाते है जिसे उन्होंने “स्पेसटाइम”(Spacetime) कहा है।

जैसा कि हमसब अपनी जिंदगी जीते है। हम न्यूटन के द्वारा प्रस्तावित समय और स्पेस के साथ बहुत सहज महसूस करते है और शायद आइंस्टीन भी सहज महसूस करते होंगे इसके बावजूद आइंस्टीन ने जो स्पेसटाइम का चित्रण किया वह वास्तव में उनके अद्भुत प्रतिभा को दर्शाता है।

अंतरिक्ष और समय सबके लिए एक समान है यह हमारी कितनी गलत धारणा रही है आइंस्टीन से पहले कभी किसी ने इसका प्रतिवाद नही किया था शायद मनुष्यों द्वारा किया गया अनुभव इस प्रतिवाद को रोकता आ रहा होगा। आइंस्टीन द्वारा सुझाया स्पेसटाइम की नई तस्वीर ब्रह्माण्ड के नायक कहे जानेवाले सबसे परिचित ताकत से जुड़ी एक गहरी रहस्य को भी हल करने वाली थी वह नायक था…

गुरुत्वाकर्षण(Gravitation)।

न्यूटन के अनुसार गुरुत्वाकर्षण एक बल है जिसके कारण एक वस्तु दूसरे वस्तु को अपनी ओर आकर्षित करता है। अपने गुरुत्वाकर्षण नियम से उन्होंने दो वस्तुओं के बीच लगनेवाले बल की परिशुद्धता से अनुमान लगाया और मापन भी किया।

  • लेकिन गुरुत्वाकर्षण वास्तव में कैसे काम करता है ?
  • लाखो मील की दूरी पर स्थित पृथ्वी, चन्द्रमा को अपनी ओर कैसे खिंच सकती है जबकि दोनों के बीच मे केवल रिक्त स्थान है ?

चन्द्रमा ऐसा व्यवहार करती है जैसे वह पृथ्वी से एक अदृश्य रस्सी से जुड़ी हो लेकिन हमसबको पता है यह सत्य नही है। न्यूटन का नियम इसकी कोई व्याख्या नही कर पाता कि चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा क्यों करती है ?

आइंस्टीन को भी यह समस्या हल करने में दस साल लग गये अब आइंस्टीन फिर से एक चौकाने वाले निष्कर्ष के साथ उपस्थित होनेवाले थे। आइंस्टीन ने कहा- गुरुत्वाकर्षण का रहस्य वास्तव में अंतरिक्ष और समय की प्रकृति में छुपा हुआ है इसे समझने के लिए आपको पहले स्पेसटाइम को समझना होगा।

असल मे अंतरिक्ष और समय बहुत लचीला है बहुत ही ज्यादा लचीला। यह एक वास्तविक फैब्रिकेटेड कपड़े की तरह ही फैल सकता है सिकुड़ भी सकता है। इसे समझने के लिए हम कल्पना करे कि हमारी टेबल एक स्पेसटाइम है और कुछ गेंदे इस स्पेसटाइम के वास्तु है। अब यदि यह स्पेसटाइम कठोर और सपाट हो तो सभी वस्तुओं को सीधी रेखा में ही गति करनी चाहिये थी। लेकिन वास्तव में यह अंतरिक्ष ऐसा नही है स्पेसटाइम फैब्रिकेटेड है जिसमे खिंचाव, सिकुड़न, मुड़ाव जैसी विकृतियाँ बनती है। यह सुनने में थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन अगर हम इस खिंचाव वाली स्पेसटाइम के कपड़े पर कोई भारी वस्तु रख दे तो यह वस्तु स्पेसटाइम में वक्रता उत्पन्न कर देता है। अगर मेरी यह टेबल कठोर और चिकनी न होकर फैब्रिकेटेड हो और मैं एक भारी गेंद इसके बीच मे रख दूँ तो यह गेंद मेरी टेबल में वक्रता ला देगा। अब मैं कोई छोटी गेंद उस बड़ी गेंद की ओर फेक दूँ तो मेरी छोटी गेंद उस बड़ी गेंद द्वारा बनी स्पेसटाइम वक्रता के कारण उसके चारों ओर चक्कर लगाने लगेगा।

आइंस्टीन को यह अहसास हुआ फिर उन्होंने विश्व को बताया देखो गुरुत्वाकर्षण ऐसे काम करता है। चन्द्रमा इसलिए पृथ्वी की परिक्रमा नही करती की पृथ्वी उसे अपनी ओर एक अदृश्य ताकत से खींचता है बल्कि इसलिए करती है कि पृथ्वी द्वारा बनी स्पेसटाइम वक्रता उसे परिक्रमा करने के लिए बाध्य कर देता है। आइंस्टीन ने अनुसार अंतरिक्ष सिर्फ वास्तविक ही नही बल्कि लचीली भी है बिल्कुल एक पतली रबर शीट की तरह। जहाँ न्यूटन ने अंतरिक्ष को निष्क्रिय बताया था आइंस्टीन ने उसे डायनामिक(Dynamic) बताया जो समय के साथ पूरी तरह से जुड़ा है। आइंस्टीन के सिद्धान्त को सत्यापित करने की सबसे उपयुक्त जगह तो ब्लैक होल ही थी। ब्लैक होल बड़ा सघन(Dense) होता है तारो और ग्रहों को अपने मे समा लेता है इसके चारों ओर गुरुत्वाकर्षण बड़ा प्रवल होता है। बड़ा ब्लैक होल अंतरिक्ष और समय मे बहुत बड़ी विकृति ला देता है। पृथ्वी से निकटतम ब्लैक होल भी खरबों मील की दूरी पर स्थित है जिसके कारण आइंस्टीन की भविष्यवाणी का परीक्षण करना बड़ी चुनौती बन रही थी।

लेकिन 1950 के दशक में, एक भौतिकविज्ञानी लियोनार्ड शिफ़(Leonard Schiff) ने अंतरिक्ष के बारे में आइंस्टीन के सिद्धांतों के परीक्षण के लिए एक क्रांतिकारी रास्ता खोज निकाला। उनका प्रस्तावित उपकरण आमतौर पर एक बच्चे के खिलौने जैसा ही था नाम था घूर्णदर्शी(जाइरोस्कोप/Gyroscope).

घूर्णदर्शी : तीनों अक्षों में घूमने के लिये स्वतंत्र, बाहरी वलय का झुकाव चाहे कुछ भी क्यों न हो, रोटर की स्पिन-अक्ष की दिशा नहीं बदलती है।

जाइरोस्कोप(Gyroscope) एक घूमता हुआ पहिया या डिस्क है जिसमे रोटेशन का अक्ष(Axis) स्वतः किसी भी अभिविन्यास(Orientation) को ग्रहण करने के लिए स्वतंत्र रहता है।

 

लिओनार्ड स्किफ़

उन्होंने सोचा अगर अंतरिक्ष वास्तव में एक कपड़े की तरह ट्वीस्टी(Twisty) है तो जाइरोस्कोप यह पता लगाने में मददगार साबित हो सकता है। यह एक अजीब विचार था शिफ़ ने अपने दो कॉलेज मित्रों विलियम फैरबैंक और बॉब केनन(William Fairbank and Bob Cannon) से अपने इस विचार को साझा किया। जाइरोस्कोप को और उच्च तकनीक से बनाने की कोशिशों पर भी विचार विमर्श किया साथ ही साथ पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने का भी फैसला किया। समान्यतः जाइरोस्कोप का जो अक्षीय केंद्र होता है वो एक निश्चित दिशा में स्थित रहता है लेकिन अगर पृथ्वी वास्तव में अंतरिक्ष को खींच रही है तो जाइरोस्कोप के अक्ष को भी इसके साथ खिंचेगी। लियोनार्ड शिफ़ इसी खिंचाव को देखना और मापना चाह रहे थे।

यह शानदार और बेहद सरल लगनेवाली योजना लग रही थी सिर्फ एक समस्या अब भी बनी हुई थी। आइंस्टीन का यह सैद्धान्तिक अनुमान की पृथ्वी का घूमना केवल एक छोटी सी राशि है जो अंतरिक्ष मे एक बहुत मामूली खिंचाव ला रही है तो क्या हम इस जाइरोस्कोप से इस नगण्य सी खिंचाव को माप सकेंगे वो भी सिर्फ 62 मील की दूरी से। वैज्ञानिको की टीम ने सटीक मापन करने के लिए दो साल से अधिक का समय इसपर खर्च किया। आखिरकार इस टीम ने एक दूरबीन के साथ चार स्वतंत्र रूप से फ्लोटिंग जाइरोस्कोप(Freely-Floating Gyroscopes) संलग्न करने की योजना बनायी। 1962 में इनलोगों ने नासा को एक अनुदान के लिए आवेदन किया जिसमें इस योजना(ग्रैविटी प्रोब-बी : Gravity Prob-B) के लिए 1 लाख डॉलर का अनुरोध किया गया था। टीम के सदस्य काफी आशावादी थे उन्होंने सोचा कि इस परियोजना में तीन साल लगेंगे लेकिन बढ़ती हुई टीम के साथ, ग्रैविटी प्रोब-बी विज्ञान के इतिहास में सबसे लंबे समय तक चलने वाले प्रयोगों में से एक बन गया।

चार दशकों से अधिक और लगभग 750,000,000 डॉलर खर्च को देखते हुए नासा ने यह परियोजना लगभग नौ बार रद्द कर दी। पर अंत मे नासा ने अप्रैल 2004 में इसे प्रक्षेपित किया लेकिन इस समय 1959 के तीन मुख्य सूत्रधार लोगों में से केवल एक ही इसे देखने के लिए जीवित था। एक वर्ष से अधिक समय तक ग्रैविटी प्रोब-बी ने पृथ्वी की कक्षा में परिक्रमा की जबकि टीम ने घबराहट के साथ हर कदम पर पूरी नजर गड़ाये रखी यह देखने की लगातार कोशिश करती रही कि पृथ्वी सच मे अंतरिक्ष को मोड़ती है या नही। अंत मे आंकड़े आने शुरू हो गए और समस्यायें भी। जाइरोस्कोप बहुत ही अप्रत्याशित आंकड़े दे रहे थे जो वैज्ञानिको के लिए किसी झटके से कम नही था।

वैज्ञानिको ने इस आंकड़े के विश्लेषण करने के लिए लाखों डॉलर और खर्च होने का अनुमान लगाया। इस अतिरिक्त धनराशि लगने के चलते इस मिशन को पूरा करना बड़ा मुश्किल होने लगा फिर लगभग आखिरी संभावित क्षणों में अतिरिक्त धन के दो स्रोत सामने आये एक विलियम फैरबैंक के बेटे और दूसरा सऊदी शाही परिवार के एक सदस्य टर्की अल-सऊद(Turki al-Saud) जिन्होंने इस बड़े अनुदान की व्यवस्था की। अगले दो वर्षों में आंकड़ो के साथ आनेवाली सारी समस्याएं हल हो गयी और यह खुलासा हुआ कि जाइरोस्कोप का अक्ष बिल्कुल आइंस्टीन के समीकरणों की भविष्यवाणी को पूरा कर रहा था। पहली बार विज्ञानियों ने आइंस्टीन के प्रभावों को नग्न आंखों से देखा था। यह प्रयोग सबसे प्रत्यक्ष सबूत था जिसने बताया कि अंतरिक्ष वास्तविक भौतिक इकाई है। वैज्ञानिको ने माना अगर अंतरिक्ष कुछ भी नही है तो उसमें कोई मोड़ या विकृति कभी नही आ सकती।अल्बर्ट आइंस्टीन ने जो हमे अंतरिक्ष की तस्वीर दिखाई यह तो अंतरिक्ष के बड़े पैमाने पर हमें दिखता देता है लेकिन अंतरिक्ष सिर्फ बड़े पैमाने पर ही नही बल्कि छोटे पैमाने(Tiny Scale) में भी स्थित है वो है क्वांटम पैमाना(Quantum Scale).।

जारी….

अगले भाग मे क्वांटम स्केल पर अंतरिक्ष..

स्रोत :

ब्रायन ग्रीन द्वारा प्रस्तुत वृत्तचित्र द फ़ेब्रिक आफ द कासमास (The Fabric of the Cosmos by Brian Greene)

ब्रायन ग्रीन कोलंबीया विश्वविद्यालय मे भौतिक वैज्ञानिक(Physicist, Columbia University) है।

इस लेख मे निम्नलिखित वैज्ञानिको के कथनों और विचारों का समावेश भी किया गया है।

• Raphael Bousso (UC Berkeley)
• Robert Cannon(Stanford University)
• Alex Filippenko(University of California) Berkeley astro.berkeley.edu/people/faculty/filippenko.html
• S. James Gates, Jr.(University of Maryland)
• Brian Greene(Columbia University)
• Peter Higgs(University of Edinburgh)
• Craig Hogan(University of Chicago)
• Clifford Johnson(University of Southern California)
• Rocky Kolb(University of Chicago)
• Janna Levin(Columbia University)
• Joseph Lykken(Fermilab)
• Brad Parkinson(Stanford University)
• Saul Perlmutter(University of California, Berkeley)
• Adam Riess(Johns Hopkins University)
• Leonard Susskind(Stanford University)

 

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

पल्लवी कुमारी, बी एस सी द्वितीय वर्ष(B.Sc 2nd Year) की छात्रा है। वर्तमान मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

जेम्स क्लार्क मैक्सवेल : जिन्होने सापेक्षतावाद की नींव रखी

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जेम्स क्लार्क मैक्सवेल (James Clerk Maxwell) स्कॉटलैण्ड (यूके) के एक विख्यात गणितज्ञ एवं भौतिक वैज्ञानिक थे। इन्होंने 1865 ई. में विद्युत चुम्बकीय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिससे रेडियो और टेलीविजन का आविष्कार सम्भव हो सका। क्लासिकल विद्युत चुंबकीय सिद्धांत, चुंबकत्व और प्रकाशिकी के क्षेत्र में दिए गए सिद्धांतों के लिए उन्हें प्रमुखता से याद किया जाता है। मैक्सवेल ने क्रांतिकारी विचार रखा कि प्रकाश विद्युत चुंबकीय तरंग है और यह माध्यम से स्वतंत्र है। स्कॉटिश भौतिकविद जेम्स क्लार्क मैक्सवेल ने इस सिद्धांत से क्रांति ला दी। न्यूटन के बाद विद्युतचुंबकत्व के क्षेत्र में मैक्सवेल द्वारा किए गए कार्य को भौतिकी के क्षेत्र में दूसरा सबसे बड़ा एकीकरण कार्य माना जाता है। यह कई क्षेत्रों से जुड़ा है।

मैक्सवेल का जन्म एडिनर्बग (स्कॉटलैण्ड) में 13 जून सन् 1831 के हुआ था। आपने एडिनबर्ग विश्वविद्यालय तथा केंब्रिज में शिक्षा पाई। 1856 से 1860 तक आप ऐबर्डीनके मार्शल कालेज में प्राकृतिक दर्शन (Naturalphilosophy) के प्रोफेसर रहे। सन् 1860 से 68 तक आप लंदन के किंग कालेज में भौतिकी और खगोलमिति के प्रोफेसर रहे। 1868 ई0 आपने अवकाश ग्रहण किया, किंतु 1871 में आपको पुन: केंब्रिज में प्रायोगिक भौतिकी विभाग के अध्यक्ष का भार सौंपा गया। आपके निर्देशन में इन्हीं दिनों सुविख्यात कैंबेंडिश प्रयोगशाला की रूपपरेखा निर्धारित की गई। आपकी मृत्यु 5 नवम्बर 1879 में हुई।

18 वर्ष की अवस्था में ही आपने गिडनबर्ग की रॉयल सोसायटी के समक्ष प्रत्यास्थता (elasticity) वाले ठोस पिंडों के संतुलन पर अपना निबंध प्रस्तुत किया था। इसी के आधार पर आपने श्यानतावाले (viscous) द्रव पर स्पर्शरेखीय प्रतिबल (tangential stress) के प्रभाव से क्षण मात्र के लिये उत्पन्न होनेवाले दुहरे अपवर्तन की खोज की। सन् 1859 में आपने शनि के वलय के स्थायित्व पर एक गवेषणपूर्ण निबंध प्रस्तुत किया। गैस के गतिज सिद्धान्त (Kinetic Ttheory) पर महत्वपूर्ण शोधकार्य करके, गैस के अणुओं के वेग के विस्तरण के लिये आपने सूत्र प्राप्त किया, जो “मैक्सवेल के नियम” के नाम से जाना जाता है। मैक्सवेल ने विशेष महत्व के अनुसंधान विद्युत् के क्षेत्र में किए। गणित के समीकरणों द्वारा आपने दिखाया कि सभी विद्युत् और चुंबकीय क्रियाएँ भौतिक माध्यम के प्रतिबल तथा उसकी गति द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। इन्होंने यह भी बतलाया कि विद्युच्चुंबकीय तरंगें तथा प्रकाशतरंगें एक से ही माध्यम में बनती हैं, अत: इनका वेग ही उस निष्पत्ति के बराबर होना चाहिए जो विद्युत् परिमाण की विद्युतचुंबकीय इकाई तथा उसकी स्थित विद्युत् इकाई के बीच वर्तमान है। निस्संदेह प्रयोग की कसौटी पर मैक्सवेल क यह निष्कर्ष पूर्णतया खरा उतरा।

मैक्सवेल ने सबसे पहले प्रयोग के माध्यम से बताया कि विद्युत और चुंबकीय क्षेत्र अंतरिक्ष में तरंगों के रूप में प्रकाश की गति से चलते हैं। वर्ष 1864 में मैक्सवेल ने विद्युत चुंबकत्व की गति का सिद्धांत दिया और पहली बार बताया कि प्रकाश वास्तव में उसी माध्यम में तरंग है जिससे विद्युत और चुंबकीय तरंग पैदा होती है।

उन्होंने विद्युत चुंबकत्व के क्षेत्र में एकीकृत मॉडल दिया, जिसे भौतिकी में एक बड़ा योगदान माना जाता है। मैक्सवेल ने मैक्सवेल वितरण का विकास किया जिसे गैसों की गतिज उर्जा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू माना जाता है।

बचपन

जेम्स का जन्म 1831 में स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग में हुआ था। जब वह आठ वर्ष के थे, उनकी मां की मृत्यु हो गई, और उनके पिता जॉन ने अपनी बहन जेन के साथ उनकी संगति के लिए जिम्मेदारी संभाली। 1841 में, वह एडिनबर्ग अकादमी मे गये, वे एक संतोषजनक छात्र थे, लेकिन स्कूल के पाठ्यक्रम, विशेषकर ज्यामिति, चित्रकारी और गणित के बाहर के विषयों में बहुत रुचि ली थी। 14 वर्ष की आयु में, उन्होंने अपना पहला वैज्ञानिक पत्र (ओवल कर्व्स) लिखा

1847 में, वह एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में चले गए जहां उन्होंने तर्कशास्त्र, गणित और प्राकृतिक दर्शन  का अध्ययन किया। हालांकि, स्कूल की तरह, वह पाठ्यक्रम के बाहर अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाने में अधिक रुचि रखते थे। उन्होंने ध्रुवीकृत प्रकाश और प्रिज्म्स के गुणों की जांच की, और महत्वपूर्ण रूप से बिजली और चुंबकीय उपकरणों में अपनी प्रारंभिक जांच की। 18 वर्ष की आयु में, उन्होंने दो और शोध पत्रों को प्रस्तुत किया।

1850 में, वह कैंब्रिज ट्रिनिटी कॉलेज चले गए, और महान ट्यूटर विलियम हॉपकिंस।के तहत गणित का अध्ययन किया।

प्रारंभिक वर्ष और शिक्षा

1831 में एडिनबर्ग में पैदा हुए, मैक्सवेल ने अपने शुरुआती वर्षों में परिवार के घर डम्फ़्राइस Dumfries और गैलोवे( Galloway) में ग्लेन्लेयर(Glenlair) में बिताया। वे दस वर्ष की आयु मे एडिनबर्ग अकादमी मे गये। यहां उन्होंने गणित में एक असाधारण क्षमता का प्रदर्शन किया। उनके एक स्कूल मित्र पीटर गुथरी टाइट थे, जो एक प्रख्यात भौतिक विज्ञानी भी बन गए थे। मैक्सवेल का पहला वैज्ञानिक पेपर, जब वह 14 साल का था, तब लिखा गया जोकि पिन और स्ट्रिंग का उपयोग करके अंडाकार आकृतियों को चित्रित करने में उनकी रूचि से आया।

विश्वविद्यालय जीवन

मैक्सवेल ने एडिनबर्ग, लंदन और कैम्ब्रिज में अध्ययन किया, जहां उन्होंने एक साथ रंग के अलग-अलग रंगों को मिलाकर रंग दृष्टि में प्रयोग किया।इस समय अपने सबसे महत्ववपू्र्ण कार्य विद्युत चुम्बकीय विकिरण में अनुसंधान को आरंभ किया।अगले कुछ वर्षो मे वर्षों में उन्होंने पहली बार बिजली चुंबकत्व और प्रकाश से संबंधित चार समीकरण तैयार किए। इस सिद्धांत ने रेडियो तरंगों के अस्तित्व की भविष्यवाणी की।

अनुसंधान कार्य

18 वर्ष की अवस्था में ही आपने गिडनबर्ग की रॉयल सोसायटी के समक्ष प्रत्यास्थता (elasticity) वाले ठोस पिंडों के संतुलन पर अपना निबंध प्रस्तुत किया था। इसी के आधार पर आपने श्यानतावाले (viscous) द्रव पर स्पर्शरेखीय प्रतिबल (tangential stress) के प्रभाव से क्षण मात्र के लिये उत्पन्न होनेवाले दुहरे अपवर्तन की खोज की। सन् 1859 में आपने शनि के वलय के स्थायित्व पर एक गवेषणपूर्ण निबंध प्रस्तुत किया। गैस के गतिज सिद्धान्त (Kinetic Ttheory) पर महत्वपूर्ण शोधकार्य करके, गैस के अणुओं के वेग के विस्तरण के लिये आपने सूत्र प्राप्त किया, जो “मैक्सवेल के नियम” के नाम से जाना जाता है। मैक्सवेल ने विशेष महत्व के अनुसंधान विद्युत् के क्षेत्र में किए। गणित के समीकरणों द्वारा आपने दिखाया कि सभी विद्युत् और चुंबकीय क्रियाएँ भौतिक माध्यम के प्रतिबल तथा उसकी गति द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। इन्होंने यह भी बतलाया कि विद्युच्चुंबकीय तरंगें तथा प्रकाशतरंगें एक से ही माध्यम में बनती हैं, अत: इनका वेग ही उस निष्पत्ति के बराबर होना चाहिए जो विद्युत् परिमाण की विद्युतचुंबकीय इकाई तथा उसकी स्थित विद्युत् इकाई के बीच वर्तमान है। निस्संदेह प्रयोग की कसौटी पर मैक्सवेल क यह निष्कर्ष पूर्णतया खरा उतरा।

मैक्सवेल ने सबसे पहले प्रयोग के माध्यम से बताया कि विद्युत और चुंबकीय क्षेत्र अंतरिक्ष में तरंगों के रूप में प्रकाश की गति से चलते हैं। वर्ष 1864 में मैक्सवेल ने विद्युत चुंबकत्व की गति का सिद्धांत दिया और पहली बार बताया कि प्रकाश वास्तव में उसी माध्यम में तरंग है जिससे विद्युत और चुंबकीय तरंग पैदा होती है।

मैक्सवेल के समीकरण

 

विद्युत्चुम्बकत्व के क्षेत्र में मैक्सवेल के समीकरण चार समीकरणों का एक समूह है जो वैद्युत क्षेत्रचुम्बकीय क्षेत्र, वैद्युत आवेश, एवं विद्युत धारा के अन्तर्सम्बधों की गणितीय व्याख्या करते हैं। ये समीकरण सन १८६१ में जेम्स क्लार्क मैक्सवेल के शोधपत्र में छपे थे, जिसका शीर्षक था – ऑन फिजिकल लाइन्स ऑफ फोर्स

मैक्सवेल के समीकरणों का आधुनिक स्वरूप निम्नवत है :

गाउस का नियम {\displaystyle \nabla \cdot \mathbf {E} ={\frac {\rho }{\epsilon _{0}}}}
चुम्बकत्व के लिये गाउस का नियम {\displaystyle \nabla \cdot \mathbf {B} =0}bf {B} =0}
फैराडे का प्रेरण का नियम {\displaystyle \nabla \times \mathbf {E} =-{\frac {\partial \mathbf {B} }{\partial t}}}
एम्पीयर का नियम
मैक्सवेल द्वारा इसमें विस्थापन धारा (displacement current) के समावेश के साथ
{\displaystyle \nabla \times \mathbf {B} =\mu _{0}\mathbf {J} +\mu _{0}\epsilon _{0}{\frac {\partial \mathbf {E} }{\partial t}}}

उपरोक्त समीकरणों में लारेंज बल का नियम भी सम्मिलित कर लेने पर शास्त्रीय विद्युतचुम्बकत्व की सम्पूर्ण व्याख्या हो पाती है।

मृत्यु

जेम्स सी मैक्सवेल की कैंब्रिज, 5 नवम्बर, 1897 को, पेट के कैंसर से इंग्लैंड में मृत्यु हो गई थी।

यह एक सुखद संयोग कहा जाएगा कि जिस वर्ष मैक्सवेल की मृत्यु हुई उसी वर्ष (1879) महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन का जन्म हुआ । शायद प्रकृति को इस महान वैज्ञानिक का पद रिक्त रखना गवारा न हुआ.उनकी खोजों ने आधुनिक दुनिया के तकनीकी नवाचारों के लिए मार्ग प्रशस्त किया और अगली शताब्दी में भौतिकी को अच्छी तरह से प्रभावित करना जारी रखा, साथ ही अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे विचारकों ने उनके अपरिहार्य योगदान के लिए प्रशंसा की।

मैक्सवेल का मूल घर, अब एक संग्रहालय है, जो जेम्स क्लर्क मैक्सवेल फाउंडेशन की साइट है।

जेम्स क्लार्क मैक्सवेल(James Clerk Maxwell)

जेम्स क्लार्क मैक्सवेल(James Clerk Maxwell)

2018 भौतिकी नोबेल पुरस्कार : आर्थर एश्किन(Arthur Ashkin) के साथ गेराड मौरौ (Gérard Mourou)तथा डोना स्ट्रिकलैंड(Donna Strickland)

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2018 का भौतिकी नोबेल आर्थर एश्किन(Arthur Ashkin) के साथ गेराड मौरौ (Gérard Mourou)तथा डोना स्ट्रिकलैंड(Donna Strickland) दिया गया है।

आर्थर एश्किन(Arthur Ashkin), गेराड मौरौ (Gérard Mourou)तथा डोना स्ट्रिकलैंड(Donna Strickland)

रायल स्विडीश अकादमी के अनुसार 2018 के भौतिकी नोबेल पुरस्कार लेजर भौतिकी के क्षेत्र मे क्रांतिकारी कार्य के लिये दिया गया है। इस पुरस्कार की आधी राशी आर्थर एश्किन को आप्टीकल ट्वीजर और उनके जैविक प्रणालीयों पर प्रभाव के लिये चुना गया है।

शेष राशी संयुक्त रूप से गेराड मौरौ तथा डोना स्ट्रिकलैंड को अत्याधिक ऊर्जा वाली अत्यंत सूक्ष्म लेजर पल्स उत्पन्न करने की विधि के लिये दिया गया है।

आर्थर एश्किन(Arthur Ashkin) की खोज

आर्थर एश्किन(Arthur Ashkin) की खोज ने विज्ञान फतांशी को जमीन पर उतारा है। आप्टीकल ट्वीजरस(Optical Tweezers) के प्रयोग से पदार्थ का निरीक्षण, मोड़ना, काटना, धकेलना और खींचना संभव है। बहुत सी प्रयोगशालाओं मे आप्टीकल ट्वीजरस(Optical Tweezers) के प्रयोग से जैविक प्रक्रियाओं का अध्य्यन किया जाता है जिसमे प्रोटीन, आण्विक मोटर, डी एन ए तथा कोशिकाओं की आंतरिक कार्यप्रणाली का समावेश है।

एश्किन के प्रकाश फ़ंदे (Optical Tweezers) का निर्माण

  1. लेजर बीम के प्रकाश से आलोकित होने पर नन्हे पारदर्शी गोले गति करना आरंभ करते है। इनकी गति एश्किन द्वारा सैद्धांतिक गणना से प्राप्त से मेल खाती है जो यह दर्शाता है कि यह गति विकिरण के दबाव से ही उत्पन्न है।
  2. इसमे एक अनपेक्षित प्रभाव अनुपातिक बल(gradient force) था जोकि गोले को लेजर बीम के मध्य मे धकेलता है जिस स्थान पर प्रकाश की तीव्रता सर्वाधिक है। यह इसलिये है कि बीम की तीव्रता बाहर की ओर कम होते जाती है और सभी बलो का योग गोले को केंद्र की ओर धकेलता है।
  3. एश्किन लेकर बीम को उपर की ओर निर्देशित कर गोले को उपर तैराते है। विकिरण का दबाव गुरुत्वाकर्षण के विपरीत कार्य करता है।
  4. लेजर बीम को एक लेंस से फ़ोकस किया जाता है। इन आप्टीकल ट्वीजर के रूप मे इस प्रकार प्रकाश के द्वारा कणो को , जीवित बैक्टेरीया और कोशीकाओं को पकड़ लिया जाता है।
एश्किन का प्रकाश फ़ंदा(Optical Tweezers) 1.लेजर बीम के प्रकाश से आलोकित होने पर नन्हे पारदर्शी गोले गति करना आरंभ करते है। इनकी गति एश्किन द्वारा सैद्धांतिक गणना से प्राप्त से मेल खाती है जो यह दर्शाता है कि यह गति विकिरण के दबाव से ही उत्पन्न है। 2.इसमे एक अनपेक्षित प्रभाव अनुपातिक बल(gradient force) था जोकि गोले को लेजर बीम के मध्य मे धकेलता है जिस स्थान पर प्रकाश की तीव्रता सर्वाधिक है। यह इसलिये है कि बीम की तीव्रता बाहर की ओर कम होते जाती है और सभी बलो का योग गोले को केंद्र की ओर धकेलता है। 3.एश्किन लेकर बीम को उपर की ओर निर्देशित कर गोले को उपर तैराते है। विकिरण का दबाव गुरुत्वाकर्षण के विपरीत कार्य करता है। 4.लेजर बीम को एक लेंस से फ़ोकस किया जाता है। इन आप्टीकल ट्वीजर के रूप मे इस प्रकार प्रकाश के द्वारा कणो को , जीवित बैक्टेरीया और कोशीकाओं को  पकड़ लिया जाता है।

एश्किन का प्रकाश फ़ंदा(Optical Tweezers) 1.लेजर बीम के प्रकाश से आलोकित होने पर नन्हे पारदर्शी गोले गति करना आरंभ करते है। इनकी गति एश्किन द्वारा सैद्धांतिक गणना से प्राप्त से मेल खाती है जो यह दर्शाता है कि यह गति विकिरण के दबाव से ही उत्पन्न है। 2.इसमे एक अनपेक्षित प्रभाव अनुपातिक बल(gradient force) था जोकि गोले को लेजर बीम के मध्य मे धकेलता है जिस स्थान पर प्रकाश की तीव्रता सर्वाधिक है। यह इसलिये है कि बीम की तीव्रता बाहर की ओर कम होते जाती है और सभी बलो का योग गोले को केंद्र की ओर धकेलता है। 3.एश्किन लेकर बीम को उपर की ओर निर्देशित कर गोले को उपर तैराते है। विकिरण का दबाव गुरुत्वाकर्षण के विपरीत कार्य करता है। 4.लेजर बीम को एक लेंस से फ़ोकस किया जाता है। इन आप्टीकल ट्वीजर के रूप मे इस प्रकार प्रकाश के द्वारा कणो को , जीवित बैक्टेरीया और कोशीकाओं को पकड़ लिया जाता है।

एश्किन के आप्टीकल ट्वीजर से कणो/बैक्टेरीया/कोशीकाओं का अध्ययन

एश्किन के आप्टीकल ट्वीजर कणो, परमाणुओ अणुओं को लेजर बीम के द्वारा पकड़ते है। वे वायरस , बैक्टेरीया और अन्य जीवित कोशीकाओं का अध्ययन और उनमे परिवर्तन करते है, इस प्रक्रिया मे जीवित कोशीकाओं को कोई हानि नही होती है। इसके द्वारा जैविक मशीन के निरीक्षण और नियंत्रण के नये अवसर उत्पन्न हुये है।

एक मोटर अणु प्रकाश के फ़ंदे मे प्रवेश करता है।(A motor molecule walks inside the light trap)

  1. काइनसाइन अणु आप्टीकल ट्वीजर द्वारा पकड़े गये एक छोटे से जुड़ जाता है।
  2. काइनसाइन कोशिका ढांचे के साथ आगे बढ़ता है। वह अपने साथ गोले को भी खिंचता है जिससे काइनसाइन की चरणबध्द गति का मापन संभव हो जाता है।
  3. अंत मे मोटर अणु प्रकाश के फ़ंदे के बल को सहन नही कर पाता है और गोला लेजर बीम के मध्य वापस पहुंच जाता है।
एश्किन के आप्टीकल ट्वीजर कणो, परमाणुओ अणुओं को लेजर बीम के द्वारा पकड़ते है। वे वायरस , बैक्टेरीया और अन्य जीवित कोशीकाओं का अध्ययन और उनमे परिवर्तन करते है, इस प्रक्रिया मे जीवित कोशीकाओं को कोई हानि नही होती है। इसके द्वारा जैविक मशीन के निरिक्षण और नियंत्रण के नये अवसर उत्पन्न हुये है। एक मोटर अणु प्रकाश के फ़ंदे मे प्रवेश करता है।(A motor molecule walks inside the light trap) 1. काइनसाइन अणु आप्टीकल ट्वीजर द्वारा पकड़े गये एक छोटे से जुड़ जाता है। 2.काइनसाइन कोशिका ढांचे के साथ आगे बढ़ता है। वह अपने साथ गोले को भी खिंचता है जिससे काइनसाइन की चरणबध्द गति का मापन संभव हो जाता है। 3.अंत मे मोटर अणु प्रकाश के फ़ंदे के बल को सहन नही कर पाता है और गोला लेजर बीम के मध्य वापस पहुंच जाता है।

एश्किन के आप्टीकल ट्वीजर कणो, परमाणुओ अणुओं को लेजर बीम के द्वारा पकड़ते है। वे वायरस , बैक्टेरीया और अन्य जीवित कोशीकाओं का अध्ययन और उनमे परिवर्तन करते है, इस प्रक्रिया मे जीवित कोशीकाओं को कोई हानि नही होती है। इसके द्वारा जैविक मशीन के निरीक्षण और नियंत्रण के नये अवसर उत्पन्न हुये है। एक मोटर अणु प्रकाश के फ़ंदे मे प्रवेश करता है।(A motor molecule walks inside the light trap) 1. काइनसाइन अणु आप्टीकल ट्वीजर द्वारा पकड़े गये एक छोटे से जुड़ जाता है। 2.काइनसाइन कोशिका ढांचे के साथ आगे बढ़ता है। वह अपने साथ गोले को भी खिंचता है जिससे काइनसाइन की चरणबध्द गति का मापन संभव हो जाता है। 3.अंत मे मोटर अणु प्रकाश के फ़ंदे के बल को सहन नही कर पाता है और गोला लेजर बीम के मध्य वापस पहुंच जाता है।

 

गेराड मौरौ और डोना स्ट्रिक्लैंड की लेजर तकनीक : चिर्पड पल्स अम्प्लीफ़िकेशन

डोना स्ट्रिकलैंड भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जीतने वाली तीसरी महिला है। इसके पहले यह पुरस्कार 1903 मे मेरी क्युरी को तथा 1963 मे मारीया गोएप्पेर्ट मेयर को मिला था।

गेराड मौरौ और डोना स्ट्रिक्लैंड की लेजर तकनीक को चिर्पड पल्स अम्प्लीफ़िकेशन कहा जाता है। इसमे एक छोटी लेजर पल्स को समय के साथ विस्तार देते हुये , एम्प्लीफ़ाय कर वापस संकुचित किया जाता है। चिर्पड पल्स प्रवर्धन(एम्पलिफ़िकेशन) 1.लेजर से एक छोटा प्रकाश स्पंदन 2.प्रकाश स्पंदन को खींचा जाता है जो उसकी अधिकतम शक्ति को कम करता है। 3.अब इस विस्तारीत स्पंदन का प्रवर्धन किया जाता है। 4.पल्स को संपिडीत करते है जिससे उसकी तीव्रता बढ़ जाती है।

गेराड मौरौ और डोना स्ट्रिक्लैंड की लेजर तकनीक को चिर्पड पल्स अम्प्लीफ़िकेशन कहा जाता है। इसमे एक छोटी लेजर पल्स को समय के साथ विस्तार देते हुये , एम्प्लीफ़ाय कर वापस संकुचित किया जाता है। चिर्पड पल्स प्रवर्धन(एम्पलिफ़िकेशन) 1.लेजर से एक छोटा प्रकाश स्पंदन 2.प्रकाश स्पंदन को खींचा जाता है जो उसकी अधिकतम शक्ति को कम करता है। 3.अब इस विस्तारीत स्पंदन का प्रवर्धन किया जाता है। 4.पल्स को संपिडीत करते है जिससे उसकी तीव्रता बढ़ जाती है।

गेराड मौरौ और डोना स्ट्रिक्लैंड की लेजर तकनीक को चिर्पड पल्स अम्प्लीफ़िकेशन कहा जाता है। इसमे एक छोटी लेजर पल्स को समय के साथ विस्तार देते हुये , एम्प्लीफ़ाय कर वापस संकुचित किया जाता है।

अत्यंत सूक्ष्म लेजर पल्स से विभिन्न पदार्थो मे अत्यंत सटिकता से छेद कर सकते है, ये छेद जीवित प्राणीयों मे भी किये जा सकते है। हर वर्ष लाखो नेत्र शल्य चिकित्सा इसी अत्यंत सूक्ष्म लेजर बीम से किये जाते है।

अत्यंत सूक्ष्म लेजर पल्स से विभिन्न पदार्थो मे अत्यंत सटिकता से छेद कर सकते है, ये छेद जीवित प्राणीयों मे भी किये जा सकते है। हर वर्ष लाखो नेत्र शल्य चिकित्सा इसी अत्यंत सूक्ष्म लेजर बीम से किये जाते है।

कनाडा की वॉटरलू यूनिवर्सिटी की डॉक्टर स्ट्रिकलैंड ने पुरस्कार मिलने के बाद कहा,

“पहले तो मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ। जहां तक जेरार्ड से इसे साझा करने की बात है, वह मेरे सुपरवाइज़र थे और उन्होंने सीपीए को नई ऊंचाई दी है। वह इस अवॉर्ड के हक़दार हैं। मैं ख़ुश हूं कि अश्किन को भी यह अवॉर्ड मिला।”

डॉक्टर स्ट्रिकलैंड ने कहा कि यह जानना उनके लिए हैरानी भरा था कि इतने समय से किसी महिला को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला था। हालांकि उन्होंने कहा कि

‘हमेशा उनके साथ बराबरी का व्यवहार किया गया है’ और ‘उनके साथ यह अवॉर्ड जीतने वाले पुरुष भी इसके बराबर के हक़दार हैं।’

वह महान वैज्ञानिक जिसने भारत को बैलगाड़ी युग से निकालकर नाभिकीय युग मे पहुंचा दिया

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भारत की स्वतंत्रता और उसके नए संविधान के लागू होने के साथ ही देश की प्रगति की नींव रखी गई। स्वतंत्रता के तुरंत बाद हमारे देश का नेतृत्व आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया। नेहरू जी का यह यह मानना था कि भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का एक ही रास्ता है- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को विकास से जोड़ा जाए। नेहरू जी  ने मुख्यत: दो क्षेत्रों मे अपना ध्यान केन्द्रित किया – परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का विकास और इसके माध्यम से अंतरिक्ष विज्ञान का विकास और वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अंतर्गत देश में एक के बाद एक कई वैज्ञानिक संस्थाओं और प्रयोगशालाओं की स्थापना। भारत मे नाभिकीय ऊर्जा के व्यवहार्य और दूरदर्शी कार्यक्रम की स्थापना होमी जहाँगीर भाभा और नेहरू जी के संयुक्त दृष्टिकोणों के परिणामस्वरूप हुई। आइए, भारत को नाभिकीय युग मे प्रवेश दिलाने मे भाभा की भूमिका के बारे मे चर्चा करते हैं।

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भाभा के साथ पं. नेहरू

होमी भाभा का जन्म 30 अक्तूबर, 1909 को मुंबई मे एक सम्पन्न पारसी परिवार मे हुआ था। स्कूली शिक्षा मे शानदार अकादमिक प्रदर्शन के बाद भाभा ने मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय मे प्रवेश लिया। भौतिकी मे उनकी व्यापक दिलचस्पी थी, इसलिए उन्होने नाभिकीय भौतिकी को अपना अनुसंधान क्षेत्र चुना। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद वहीं उन्हें प्राध्यापक के रूप मे नियुक्ति मिली। भाभा ने भौतिकी के चोटी के वैज्ञानिकों, रदरफोर्ड, डिराक, चैडविक, बोर, आइंस्टाइन, पौली आदि के साथ कार्य किया। भाभा का शोधकार्य मुख्यत:  कॉस्मिक किरणों पर केंद्रित था। कॉस्मिक किरणें अत्यधिक ऊर्जा वाले वे कण होते हैं जो बाहरी अंतरिक्ष मे पैदा होते हैं और छिटक कर पृथ्वी पर आ जाते हैं। भाभा ने वर्ष 1937 मे वाल्टर हाइटलर के साथ मिलकर कॉस्मिक किरणों पर एक सैद्धांतिक शोधपत्र प्रकाशित करवाया। उनके कॉस्मिक किरणों पर किये गए शोध कार्य को वैश्विक स्तर पर व्यापक मान्यता प्राप्त हुई। तब तक भाभा एक प्रतिष्ठित भौतिक विज्ञानी बन चुके थे।

द्वितीय विश्व युद्ध की भारत को देन

यह एक संयोग ही कहा जा सकता है कि वर्ष 1939 मे भाभा कैंब्रिज से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर भारत आए। और इसी बीच यूरोप मे अचानक द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। इसलिए उन्होने विश्व युद्ध के ख़त्म होने तक भारत मे ही रहने का निर्णय किया। और उन्होने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स, बैंगलोर मे चंद्रशेखर वेंकट रामन के आमंत्रण पर रीडर के पद पर नियुक्ति प्राप्त की। इससे भाभा के जीवन में एक बड़ा मोड़ा तो आया ही साथ मे भारत के वैज्ञानिक विकास को भी एक नई दिशा मिली।

प्रारम्भ मे भाभा का अनुसंधान कार्य कॉस्मिक किरणों पर ही केंद्रित था, मगर नाभिकीय भौतिकी के क्षेत्र मे विकास को देखते हुए भाभा को यह विश्वास हो गया कि इस क्षेत्र के अनुसन्धानों से भारत निकट भविष्य में लाभ उठा सकेगा। वर्ष 1944 में भाभा ने टाटा ट्रस्ट के अध्यक्ष दोराब जी टाटा को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होने नाभिकीय भौतिकी के क्षेत्र में मौलिक अनुसंधान हेतु एक संस्थान के निर्माण का प्रस्ताव रखा तथा नाभिकीय विद्युत की उपयोगिता पर प्रकाश डाला। टाटा ट्रस्ट के अनुदान से वर्ष 1945 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामैंटल रिसर्च (टीआईएफ़आर) की डॉ. होमी भाभा के नेतृत्व में स्थापना हुई। टीआईएफ़आर ने भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को संगठित करने के लिए आधारभूत ढांचा उपलब्ध करवाया।

दो महान विभूतियों के बीच अद्भुत बौद्धिक संबंध

भारत मे परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम संबंधी वैज्ञानिक गतिविधियों को बढ़ावा देने का श्रेय भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और होमी भाभा की दूरदर्शिता को जाता है। भाभा की प्रतिभा के नेहरू जी कायल थे तथा दोनों के बीच काफी मधुर संबंध थे। वर्ष 1948 में भाभा की अध्यक्षता में परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की गई। यह भाभा की दूरदृष्टि ही थी कि नाभिकीय विखंडन की खोज के बाद जब सारी दुनिया नाभिकीय ऊर्जा के विध्वंसनात्मक रूप परमाणु बम के निर्माण मे लगी हुई थी तब भाभा ने भारत की ऊर्जा जरूरतों को ध्यान मे रखते हुए विद्युत उत्पादन के लिए परमाणु शक्ति के उपयोग की पहल की। भाभा के नेतृत्व में भारत में प्राथमिक रूप से विद्युत शक्ति पैदा करने तथा कृषि, उद्योग, चिकित्सा, खाद्य उत्पादन और अन्य क्षेत्रों में अनुसंधान के लिए नाभिकीय अनुप्रयोगों के विकास की रूपरेखा तैयार की गई। इस दौरान भाभा को नेहरू जी की निरंतर सहायता और प्रोत्साहन मिलती रही, जिससे भारत दुनिया भर के उन मुट्ठी भर देशों में शामिल हो सका जिनको सम्पूर्ण नाभिकीय चक्र पर स्वदेशी क्षमता हासिल था।homi-bhabha-1

त्रिस्तरीय नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम

डॉ. भाभा ने देश में उपलब्ध यूरेनियम और थोरियम के विपुल भंडारों को देखते हुए परमाणु विद्युत उत्पादन की तीन स्तरीय योजना बनाई थी, जिसमें क्रमश: यूरेनियम आधारित नाभिकीय रिएक्टर स्थापित करना, प्लूटोनियम को ईंधन के रूप मे उपयोग करना तथा थोरियम चक्र पर आधारित रिएक्टरों की स्थापना करना शामिल था। इस त्रिस्तरीय योजना का दो हिस्सा भारत पूरा कर चुका है। इस प्रकार भाभा ने परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में भारत को स्वावलंबी बनाकर उन लोगों के दाँतो तले ऊंगली दबा दिया जो परमाणु ऊर्जा के विध्वंसनात्मक उपयोग के पक्षधर थे।

परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के पक्षधर

परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग से संबंधित भाभा का विजन सम्पूर्ण मानवता के लिए युगांतरकारी सिद्ध हुआ। उन्होने यह बता दिया कि परमाणु का उपयोग सार्वभौमिक हित और कल्याण के लिए करते हैं, तो इसमें असीम संभावनाएं छिपी हुई है। वर्ष 1955 में भारत के प्रथम नाभिकीय रिएक्टर ‘अप्सरा’ की स्थापना परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग की दिशा में पहला सफल कदम था। इसके बाद भाभा के नेतृत्व में साइरस, जरलीना आदि रिएक्टर अस्तित्व में आए। हालांकि डॉ. भाभा शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के उपयोग के पक्षधर रहे, लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध मे भारत की हार ने उन्हें अपनी सोच बदलने को विवश कर दिया। इसके बाद वे कहने लगे कि ‘शक्ति का न होना हमारे लिए सबसे महंगी बात है’। अक्तूबर 1965 में डॉ. भाभा ने ऑल इंडिया रेडियों से घोषणा कि अगर उन्हें मौका मिले तो भारत 18 महीनों में परमाणु बम बनाकर दिखा सकता है। उनके इस वक्तव्य ने सारी दुनिया में सनसनी पैदा कर दी। हालांकि इसके बाद भी वे विकास कार्यों में परमाणु ऊर्जा के उपयोग की वकालत करते रहे तथा ‘शक्ति संतुलन’ हेतु भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न बनना आवश्यक बताया।

विमान दुर्घटना और असामयिक मृत्यु

24 जनवरी, 1966 को अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग की बैठक मे भाग लेने के लिए विएना जाते हुए एक विमान दुर्घटना में मात्र 57 वर्ष की आयु में डॉ. भाभा का निधन हो गया। इस प्रकार भारत ने एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक, प्रशासक और कला एवं संगीत प्रेमी को खो दिया। डॉ. भाभा द्वारा प्रायोजित भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम आज भी देश के बहुआयामी विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा रहा है।

-प्रदीप   (pk110043@gmail.com) 

 

 

 

 

 

1875 के पश्चात SI ईकाईयों मे सबसे बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन

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पेरीस मे रखा किलोग्राम का बांट

पेरीस मे रखा किलोग्राम का बांट

लेखक : अनमोल

मापन ईकाईयो मे 1875 के पश्चात सबसे बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन के लिये अंतराष्ट्रीय स्तर पर मतदान हुआ और इस बदलाव के फ़लस्वरूप चार मूलभूत ईकाईयों की परिभाषाये पुननिर्धारित की गई, ये ईकाईयाँ है – एम्पीयर, किलोग्राम, केल्विन और मोल।

अंतराष्ट्रीय ईकाईयो की प्रणाली जिसे संक्षेप मे SI भी कहा जाता है, मे अब सभी ईकाईयाँ प्रकृति के विभिन्न मूलभूत स्थिरांको पर आधारित होंगी। यह नये मानक पुरानी वस्तुओं पर आधारित ईकाईयों के वर्तमान मूल्यों को मूलभूत स्थिरांको के रूप मे विभिन्न प्रयोगो द्वारा परिवर्तन कर निर्धारित किये गये है। वर्तमान मे प्रचलित मापन ईकाई किसी भौतिक वस्तु या अनियमित संदर्भ पर आधारित है।

अंतर्राष्ट्रीय भार तथा मापन ब्युरो(International Bureau of Weights and Measures (BIPM)) के पूर्व प्रमुख टेरी क्यिन(Terry Quinn) के अनुसार

“मेसोपोटामीया सभ्यता के बाद, शायद 5000 वर्ष पहले से किसी वस्तु के द्रव्यमान के मापन के लिये एक वस्तु और दूसरी ओर स्थानिय द्रव्यमान मापन का वजन बाट ही रहा है लेकिन अगले वर्ष की 20 मई से ऐसा नही रहेगा। यह अभूतपूर्व और असाधारण घटना है।

NIST के भौतिक वैज्ञानिक डेविड नेविल यह कहते है कि मापन ईकाईयों मे इस परिवर्तन से SI मापन प्रणाली परिपूर्ण नही हो जायेगी। वैज्ञानिको का अगला कार्य सेकंड की परिभाषा को बेहतर करना और अन्य ईकाईयों का इसमे समावेश करना है। यह हैरी पोर्टर की श्रृंखला के समापन के जैसा है कि अच्छाई की जीत हुई है लेकिन सब बर्बाद हो चुका है। SI प्रणाली मे अब भी बहुत कुछ साफ़ करना बचा है।

यह परिवर्तन क्यों आवश्यक था ?

किसी भी चीज़ को अनन्त शुद्धता से मापन संभव नही है। आपका एक मीटर वाला स्केल 1.00 मीटर का जरूर होगा मग़र अगर उस स्केल को और अच्छे यन्त्र से मापें तो 1.0025 मीटर हो सकता है। और उसे और भी अच्छे यंत्र से मापेंगे तो हो सकता है वह 1.002523 मीटर निकले। इसमें यह मापन बेहतर उपकरण से करते जाएँगे और स्केल की लंबाई का पता उतनी ही शुद्धता से लगता जाएगा मग़र लंबाई की जानकारी में कुछ न कुछ अशुद्धता हमेशा ही बनी रहेगी। इसी तरह मापने वाली आप किसी भी चीज़ को ले लें जैसे समय या द्रव्यमान; यह बात सबके लिये सत्य है।

किलोग्राम बाट के द्रव्यमान मे समय के साथ आया विचलन

किलोग्राम बाट के द्रव्यमान मे समय के साथ आया विचलन

वर्तमान मे इसमें एक अपवाद है। वो अपवाद है फ़्रान्स में 90% प्लेटिनम और 10% इरेडिम के सम्मिश्रण से बनी और निहायत ही कड़ी सुरक्षा में रखी एक चीज़ जिसे IPK या ‘इंटर्नैशनल प्रोटोटाइप ऑफ़ दि किलोग्राम’ कहते हैं। इसका द्रव्यमान एक किलोग्राम है। और वो इसलिए नहीं क्योंकि इसे बड़ी ही सावधानीपूर्वक तौलकर बनाया गया है बल्कि वो इसलिए क्योंकि उसी के द्रव्यमान से एक किलोग्राम को परिभाषित किया गया है। यानी उसका जो द्रव्यमान है उसको ही “एक किलोग्राम” कहते हैं। 1889 में GCPM या ‘जनरल कॉन्फ्रेंस ऑन वेट्स एंड मेज़र्स’ का पहला सम्मेलन हुआ था और उसी में किलोग्राम के इस प्रोटोटाइप को स्वीकार किया गया था और तब से आजतक पूरे विश्व में किलोग्राम का जो मानक है वो वही है।

1889 में जब इस प्रोटोटाइप को स्वीकार किया गया तब इसकी कई प्रतिकृतियाँ भी बनवायी गयीं। मुख्य IPK और उसकी 6 मुख्य प्रतिकृति फ्रांस में ही BPIM या ‘इंटरनेशनल ब्यूरो ऑफ़ वेट्स एंड मेज़र्स’ में शान्ति से कड़ी सुरक्षा में रखी हैं। फ़्रांस में ही इसकी दस प्रतिकृति और हैं और वो ही काम में लायी जाती हैं। इसके साथ ही BPIM ने हर सदस्य देश को भी एक एक प्रतिकृति मुहैया करवाई है। हर देश के अंदर किलोग्राम का जो मानक होता है वो उसके देश को मिली प्रतिकृति पर ही निर्भर करता है। भारत तो उस समय था नहीं इसलिए भारत को अपनी प्रतिकृति 1958 में मिली और ये प्रतिकृति दिल्ली स्थित नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी में रखी है। भारत वाली प्रतिकृति का नंबर K57 है। (रोचक तथ्य, एक प्रतिकृति पाकिस्तान के पास भी है K93)
इतना सब तो ठीक है मगर IPK की ये जो इतनी प्रतिकृति हैं तो इनका वजन भी एक किलोग्राम है?

नहीं!

केल्विन के मूल्य की निर्धारण विधि

केल्विन के मूल्य की निर्धारण विधि

यह संभव ही नहीं है। लेकिन ये सभी प्रतिकृति उस मूल से जितना ज्यादा संभव हो सकता है उतनी समान हैं। इन सभी प्रतिकृति में समय के साथ-साथ एक किलोग्राम के लाखवें हिस्से जितना कम-ज़्यादा होता रहता है। इसलिए हर देश की प्रतिकृति समय-समय पर फ़्रांस में BPIM फ़िर से कैलिबरेट करवाने के लिए भेजी जाती है। भारत में जो प्रतिकृति है वो 1985, 1992, 2002 और 2012 में कैलिबरेट करवायी गयी। IPK में समस्या तो दिखने ही लगी होगी। सबसे पहली बात तो इस तक पहुंचना बहुत ही मुश्किल है तो उसका प्रयोग नामुमकिन जैसा है। देशों को उसकी प्रतिकृति से काम चलाना होता है जो कि भले ही एक किलो हैं पर परिपूर्ण एक किलो नहीं हैं। दूसरी बात सबको एक प्रतिकृति देने से भी काम कहाँ चल जायेगा। हर देश में इतनी सारी प्रयोगशालाएं हैं, सबको कैसे मिलेगा अपने देश की ही प्रतिकृति तक पहुच देना कठीन है? ऊपर से ये स्वयं भी अपना द्रव्यमान बनाये नहीं रख पाता जो सबसे ज़रूरी है। माइक्रोग्राम में ही सही पर कमी बढोत्तरी तो होता ही है।

इसलिये मापन ईकाईयों के मूल्य निर्धारण के लिये कुछ ऐसा चाहिए जो विश्वव्यापी हो और जो समय के साथ भी कभी भी न बदले। कुछ ऐसा जो खुद में ही परिभाषित हो और प्रायोगिक तौर पर भी सर्वसुलभ हो। ऐसा क्या हो सकता है?

इसका उत्तर है मूलभूत भौतिक नियतांक। ये वो स्थिरांक हैं जिन्हें आप भले ही पूर्ण शुद्धता से माप न पाओ लेकिन इनका मूल्य स्थिर होता हैं जो कभी नहीं बदलता। हर देश-काल में एक जैसी ही रहती हैं। फिर क्यों न किलो आदि की परिभाषा इनपे ही आधारित कर दी जाये?

ईकाईयों के प्रयोग मे स्थिरांको/नियतांको का प्रयोग

विद्युत धारा का मापन

विद्युत धारा का मापन

यही सब सोंचते हुए 2011 में हुए GCPM के 24 वें सम्मलेन में वैज्ञानिकों ने इस आवश्यकता के कारण प्राकृतिक नियतांकों के आधार पर मापन की मूलभूत ईकाइयों को परिभाषित करने का प्रस्ताव सामने रखा। 2014 में 25वां सम्मलेन हुआ और इसमें भी इस बात पर चर्चा हुई मगर अंतिम फैसला नहीं हुआ क्यूंकि इन नियतांकों की जो भी मूल्य है वो हमेशा हमेशा के लिए एक परिभाषा के द्वारा स्थित की जानी थी और उसके लिए प्रयोगों द्वारा इन नियतांकों की सबसे शुद्धतम मूल्य का ज्ञात होना बहुत ज़रूरी था, जिससे कि नयी परिभाषा आने के बाद भी आम रोजमर्रा के कार्य में कोई प्रभाव नहीं पड़े और नया किलोग्राम पुराने किलोग्राम से जितना निकट हो सके उतना निकट हो।

मापन की ईकाईयों के आधार मे प्राकृतिक स्थिरांको के प्रयोग का आईडीया अपरिवर्तनीय है और वह किसी एक देश से संबधित नही है। यह आईडीया 19वी सदी के अंत मे प्रस्तावित किया गया था लेकिन इसके प्रयोग मे लाने के लिये 150 वर्ष लग गये।

यह तय हुआ कि इन नियतांकों के आधार पर परिभाषा तो बनेगी मगर उससे पहले इन नियतांकों को पुनः पूरी शक्ति के साथ और भी अधिकतम शुद्धता से मापा जाये। तो इतने सालों से दुनियाभर के अनेकों वैज्ञानिक इन नियतांकों को नयी नयी तकनीकें अपनाकर जितना हो सके उतनी शुद्धता से मापने की कोशिश करते रहे।

विद्युत पर कार्य करते वैज्ञानिक अपने प्रयोगो को उन्नत करते रहे और वे इलेक्ट्रानो की संख्या की गिनती करने मे जुटे रहे जिससे कि वे एक अकेले कण के आवेश के प्रयोग से एक एम्पीयर को परिभाषित कर सके। वर्तमान एम्पीयर की परिभाषा एक वैचारिक प्रयोग पर आधारित है जिसमे दो अनंत लंबाई के तारों का प्रयोग होता है। एम्पीयर की ईकाई मे यह परिवर्तन विद्युत इंजीनियरो द्वारा 1990 से प्रयुक्त प्रणाली के जैसे ही है जिसे वे अचूकता के लिये प्रयोग करते रहे है।

केल्विन को अब बोल्ट्जमैन स्थिरांक के प्रयोग से परिभाषित किया जायेगा जो कि ऊर्जा और तापमान को जोड़ता है। जबकि वर्तमान मानक जल के विशिष्ट तापमान के संदर्भ मे है जिसे तिहरा बिंदु(Triple Point) कहते है।

जबकी मात्रा की मानक ईकाई मोल जोकि वर्तमान के कार्बन 12 के 0.012 किलोग्राम मे परमाणुओं की संख्या के तुल्य है, अब अवोगाड्रो संख्या(Avogadro’s number) के तुल्य होगी।

परिवर्तन

मोल की परिभाषा विधि

मोल की परिभाषा विधि

मापन ईकाईयो मे 1875 के पश्चात सबसे बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन के लिये अंतराष्ट्रीय स्तर पर मतदान हुआ और इस बदलाव के फ़लस्वरूप चार मूलभूत ईकाईयों की परिभाषाये पुननिर्धारित की गई, ये ईकाईयाँ है – एम्पीयर, किलोग्राम, केल्विन और मोल।

16 नवंबर 2018 को , वर्सेल्स फ़्रांस(Versailles, France) मे विश्व के 60 देशों की सरकारो के प्रतिनिधीयों ने सर्वसम्मति से इन बदलावो को स्विकार किया। यह परिवर्तन 20 मई 2019 से प्रभावी होंगे।

अंतराष्ट्रीय ईकाईयो की प्रणाली जिसे संक्षेप मे SI भी कहा जाता है, मे अब सभी ईकाईयाँ प्रकृति के विभिन्न मूलभूत स्थिरांको पर आधारित होंगी। यह नये मानक पुरानी वस्तुओं पर आधारित ईकाईयों के वर्तमान मूल्यों को मूलभूत स्थिरांको के रूप मे विभिन्न प्रयोगो द्वारा परिवर्तन कर निर्धारित किये गये है। वर्तमान मे प्रचलित मापन ईकाई किसी भौतिक वस्तु या अनियमित संदर्भ पर आधारित है।

GCPM यानी ‘जनरल कॉन्फ्रेंस ऑन वेट्स एंड मेज़र्स’ का 26 वाँ सम्मेलन , इस सम्मेलन में प्लांक नियतांक, बोल्ट्समैन नियतांक, आवोगाद्रो नियतांक और मूलभूत आवेश या एक इलेक्ट्रॉन के आवेश को स्थिर कर दिया गया और इनके आधार पर किलोग्राम, एम्पियर, केल्विन और मोल को फ़िर से परिभाषित किया गया और यह तय किया गया कि आने वाले 20 मई 2019 से अंतर्राष्ट्रीय इकाई प्रणाली या SI सिस्टम में इन चार नियतांकों का मूल्य इस प्रकार रहेगा:

  • प्लैंक स्थिरांक(Planck constant) h = 6.626 070 15 × 10−34 J s, (किलोग्राम के लिए)
  • मूलभूत आवेश(Elementary Charge) e = 1.602 176 634 × 10−19 C, (एम्पियर के लिए)
  • बोल्टजमैन स्थिरांक( Boltzmann constant) k = 1.380 649 × 10−23 J/K, (केल्विन के लिए)
  • अवागाड्रो स्थिरांक (the Avogadro constant) NA = 6.022 140 76 × 1023 mol-1, (मोल के लिए)

 

ध्यान रहे कि इस परिभाषा के लागू हो जाने के बाद से इन नियतांकों का यह मूल्य हमेशा-हमेशा के लिए स्थाई हो जाएगा और इनमें कोई भी अशुद्धता नहीं रह जाएगी। इसका अर्थ यह है कि इसके बाद से इन नियतांकों के मूल्य का मापन करना या ज़्यादा शुद्धता से मापन करना जैसी बातें अर्थहीन हो जाएँगी क्योंकि अब यह नियतांक किसी प्रयोग से आया मूल्य के रूप मे नहीं हैं जिनमें कुछ न कुछ अशुद्धता हो सकती है। बल्कि अब इन नियतांकों को यह मूल्य एक परिभाषा के माध्यम से मि्ला है जिससे इनमें अनंत शुद्धता है। नयी परिभाषा लागू होने से पहले इन नियतांकों के मूल्य में जो प्रयोगात्मक अशुद्धता थी वो अशुद्धता अब अपने किलोग्राम के प्रोटोटाइप में ट्रांसफर हो जाएगी, जिससे फ़्रांस में रखे अपने उस प्रोटोटाइप का मूल्य परिपूर्ण एक किलोग्राम नहीं रह जाएगी और उसमें कुछ अशुद्धता आ जाएगी जो कि फ़िलहाल दस करोड़ में एक हिस्से के बराबर है। भविष्य में भी उस प्रोटोटाइप का द्रव्यमान कितना बदलता है अब यह प्रयोगों के माध्यम से तय किया जायेगा। यानी पहले लोग जिससे खुद की तुलना करते थे, जो ख़ुद को बस ख़ुद से तुलना करता था, वो जो ख़ुदा था, उसकी गद्दी छिन गयी है। अब उसकी भी तुलना होगी हालाँकि वो अभी भी वहीँ रहेगा जैसे पिछले 129 सालों से रह रहा है। वैज्ञानिक उसके द्रव्यमान की जाँच नए मानक के हिसाब से समय समय पर करते रहेंगे।

मूलभूत इकाइयाँ सात होती हैं. इनमें से तीन को नियतांकों के आधार पर पहले ही परिभाषित किया जा चुका था। GCPM के 1967 में हुए 13वें सम्मलेन में सेकण्ड को, 1979 में हुए 16वें सम्मलेन में कैंडेला को और 1983 में हुए 17वें सम्मेलन में मीटर को पुनः परिभाषित किया गया था। और जो तीन नियतांक स्थाई किये गए थे वे हैं:

  1. सीजीयम 133 परमाणु मे दो हायपरफ़ाईन स्तरो के मध्य संक्रमण की आवृत्ती :9 192 631 770 Hz, (सेकण्ड के लिए)
  2. 540 × 1012 Hz आवृत्ति वाले मोनोक्रोमोटिक विकिरण की प्रकाशदीप्ती 683 lm/W, (कैंडेला के लिए)
  3. निर्वात मे प्रकाशगति c = 299 792 458 m/s, (मीटर के लिए)
SI ईकाईयों मे परिवर्तन

SI ईकाईयों मे परिवर्तन

किलोग्राम की परिभाषा मे प्रयुक्त विधि

किब्बल तुला से किलोग्राम का मापन

किब्बल तुला से किलोग्राम का मापन

किलोग्राम ईकाई के संबंध म नई परिभाषा गढ़ने के लिये प्लैन्क स्थिरांक का मापन आवश्यक था। यह स्थिरांक क्वांटम स्तर पर ऊर्जा के पैकेट का आकार सटिकता से परिभाषित करता है। एक विशिष्ट विधि किब्ब्ल संतुलन(Kibble balance) के द्वारा प्लैंक स्थिरांक की गणना ज्ञात द्रव्यमान को विद्युत चुंबकीय बल की तुलना मे मापा जाता है।

दूसरी विधि मे सिलिकान-28 के दो गोलो मे परमाणुओं की गणना कर अवागाड्रो संख्या ज्ञात की जाती है, इस संख्या से प्लैंक स्थिरांक की गणना की जाती है।

दोनो विधियों के प्रयोग से प्लैंक स्थिरांक की अचूक गणना 2015 मे ही संभव हो पाई थी।

क्युइन कहते है कि दोनो विधियो से गणना से प्राप्त स्थिराक मे अंतर 100 लाख मे कुछ भाग ही है, जोकि एक असाधारण सफलता है क्योंकि दोनो विधि भौतिकी की दो अलग शाखाओं से संबधित है।

इन स्थिरांको को सर्वसम्मत स्थाई संख्या पर निश्चित किया जायेगा। 1983 मे यह प्रक्रिया मीटर की परिभाषा के लिये प्रकाश गति को आधार बनाते हुये प्रयुक्त की गई थी जब प्रकाशगति की सबसे सटीक माप की गई गति को मीटर की परिभाषा के लिये स्थाई कर दिया गया था। अब ईकाई को परिभाषित करने के लिये वैज्ञानिक विधि को उलट देंगे अर्थात स्थिरांक ज्ञात करने की विधि को पलट देंगे। उदाहरण के लिये वे प्लैन्क स्थिरांक के स्थाई मूल्य को किब्बल संतुलन मे विद्युत चुंबकीय बल के साथ अज्ञात द्रव्यमान के मापन मे प्रयोग मे लायेंगे।

प्लैंक स्थिरांक का यह मूल्य SI प्रणाली मे स्थाई हो जायेगा साथ ही इस मूल्य को NIST मे भी स्थाई कर दिया जायेगा।

भौतिक वस्तुओ के साथ खो जाने या क्षतिग्रस्त हो जाने की समस्या होती है, स्थिरांक के प्रयोग से यह समस्या नही रहती है और द्रव्यमान की परिभाषा अधिक प्रभावी हो जाती है। ले ग्रांड के(Le Grand K) का माप परिभाषा के अनुसार हमेशा 1 किलोग्राम रहा है, लेकिन उसकी प्रतिकृतियों की तुलना मे उसके द्रव्यमान मे आंशिक परिवर्तन आया है। यह कहना मुश्किल है कि ले ग्रांड के(Le Grand K) ने परमाणु खोये है या प्राप्त किये है। लेकिन भविष्य के अध्यन इसे ज्ञात कर पायेंगे।

नया किलोग्राम

द्रव्यमान मापन की नई परिभाषा तय कर रहे वैज्ञानिक सीधे सीधे इसे लागु नही कर सकते है। विभिन्न प्रयोगो के परिणाम बताते है कि नई परिभाषा उत्तम है लेकिन यह भी तथ्य है कि यह परिपूर्ण नही है। जब तक विश्व मे द्रव्यमान मापन मे आने वाली सूक्ष्म अंतर दूर नही होजाते है BIPM एक मध्यस्थ की भूमिका निभायेगा। यह संस्थान हर समूह को एक ही वस्तु का मापन करने के लिये कहेगा और उनके औसत द्रव्यमान को प्रकाशित करेगा जिसका प्रयोग समस्त विश्व तुलना के लिये करेगा। इस प्रक्रिया मे सभी अशुद्धियों और समस्याओं को दूर करने मे कम से कम दस साल तो लग जायेंगे।

इस समय सभी देशो की राष्ट्रीय मापन प्रयोगशाला मे रखे गये मानक वजन बाट फ़ेंके नही जायेंगे। विश्व मे बहुत कम प्रयोगशालाओं के पास नई परिभाषा से एक मानक किलोग्राम बाट निर्माण की क्षमता है, जिससे इन पर निर्भरता अगले कुछ वर्षो तक बनी रहेगी।

NIST तथा युनाईटेड किंगडम और जर्मनी की राष्ट्रीय मानक प्रयोगशालायें सस्ती और टेबल पर रखे जा सकने वाले किब्बल संतुलन पर कार्य कर रही है जिससे कि विभिन्न उद्योग और छोटी कंपनी स्वयं मानक किलोग्राम बाट स्वयं बना सकेंगी।

एक सेकंड बस

सेकंड की नई परिभाषा पर वैज्ञानिक 2005 से काम कर रहे है। वर्तमान मे एक सेकंड सीजीयम-133 द्वारा अवशोषित और उत्सर्जित माइक्रोवेव प्रकाश की आवृत्ति के संदर्भ मे पारिभाषित है। इन परमाणुओ का स्थान आप्टिकल घड़ीयो (optical clock) ने ले लिया है और वे दूसरे परमाणुओ के प्रयोग से उच्च आवृत्ति वाली दृश्य प्रकाश तरंग का प्रयोग करते है। इन आप्टिकल घडीयों की अचूकता अत्याधिक है और इनमे ब्रह्मांड की संपूर्ण आयु मे केवल एक सेकंड की चूक हो सकती है।

वैज्ञानिको की योजना के अनुसार सेकंड की परिभाषा मे परिवर्तन 2026 मे किया जायेगा। क्योंकि उन्हे समस्त विश्व मे आप्टिकल घड़ीयो के प्रयोग के लिये सर्वोत्तम परमाणु को खोजने के साथ तुलना के लिये विधियाँ खोजनी होगी।

SI ईकाईयों का भविष्य

SI ईकाईयों का भविष्य

 

इसके अतिरिक्त SI प्रणाली मे विमाओ के मापन के लिये ईकाई के समावेश के लिये भी दबाव है। उदाहरण के लिये रेडीयन जोकि किसी वृत्त चाप(arc) और त्रिज्या का अनुपात है।

1857 मे स्थापित BIPM जोकि वर्तमान मे मानक किलोग्राम और मीटर को रखे हुये है, SI प्रणाली मे यह परिवर्तन कुछ खट्टा मीठा है। अब किसी को भी मानक किलोग्राम या मीटर के लिये पेरीस जाने की आवश्यकता नही है।

सर आर्थर स्टेनली एडिंगटन(Sir Arthur Stanley Eddington).

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सर आर्थर स्टेनली एडिंगटन(Sir Arthur Stanley Eddington).

सर आर्थर स्टेनली एडिंगटन(Sir Arthur Stanley Eddington).

अल्बर्ट आइंस्टीन ! यह नाम आज किसी परिचय का मोहताज नही है। आइंस्टीन द्वारा प्रतिपादित सापेक्षवाद सिद्धान्त आज आधुनिक भौतिकी का आधार स्तंभ माना जाता है। आज यह सिद्धान्त हमलोग भलीभांति समझते है और दूसरों को भी समझा सकते है लेकिन क्या यह सिद्धान्त को समझना शुरुआती दिनों में भी इतना ही सरल था ? जवाब है – नही !

शुरुआती दिनों में सापेक्षवाद सिद्धान्त को समझना सामान्य मनुष्यों को तो छोड़िए वैज्ञानिको के लिए भी बड़ा कठिन कार्य था।

एक प्रसिद्ध भौतिकविज्ञानी और विज्ञान प्रस्तोता का कथन है

“वो महान है जो जटिल यंत्र बनाये, जटिल सिद्धान्त दे परन्तु उससे भी ज्यादा महान वो है जो जटिल को सरल बना दे।”

हम उस महान व्यक्ति को तो हमेशा याद करते है जिन्होंने सापेक्षवाद सिद्धान्त हमे दिया लेकिन उस व्यक्ति को याद नही करते जिसने सापेक्षवाद सिद्धान्त को सामान्य लोगो से लेकर वैज्ञानिको के लिए भी सरलतम रूप में प्रस्तुत किया।

वह महान व्यक्ति था सर आर्थर स्टेनली एडिंगटन(Sir Arthur Stanley Eddington). एक प्रतिभाशाली खगोलविज्ञानी, भौतिकविज्ञानी और एक बेहतरीन गणितज्ञ। आइंस्टीन इस बात को जानते थे इसलिए उन्होंने कहा भी है

“जो सिद्धान्त को पुर्णतः समझता है वही अच्छी तरह सिद्धान्त को समझा सकता है।”

28 दिसम्बर को आर्थर एडींगटन का जन्मदिन है। उनका जन्म 28 दिसंबर 1882 तथा मृत्यु 22 नवंबर 1944 को हुई थी।

इस सिद्धांत की गूढ़ता के बारे में एक घटना विख्यात है। सापेक्षता सिद्धांत को पूरी तरह समझने वाले शुरुआती व्यक्तियों में सर आर्थर एंडिग्टन का नाम विशिष्ट माना जाता है। उनके बारे में एक भौतिक-विज्ञानी ने तो यहाँ तक कह दिया था-

‘‘सर आर्थर! आप संसार के उन तीन महानतम व्यक्तियों में से एक हैं जो सापेक्षता सिद्धांत को समझते हैं।’’ यह बात सुनकर सर आर्थर कुछ परेशान हो गये। तब उस भौतिक-विज्ञानी ने कहा- ‘‘इतना संकोच करने की क्या आवश्यकता है सर ?’’ इस पर सर आर्थर ने कहा-‘‘संकोच की बात तो नही है किन्तु मैं स्वयं सोच रहा था कि तीसरा व्यक्ति कौन हो सकता है ?’’

आर्थर एडिंगटन से सापेक्षवाद सिद्धान्त को सामान्य लोगो को उनकी भाषा मे समझाया और सापेक्षवाद पर सरल भाषा मे कई लेख लिखे। सरल रूप में उन्होंने ही सापेक्षवाद को इतना लोकप्रिय सिद्धान्त बनाया उनकी लिखी पुस्तक “Space, Time and Gravitation: An Outline of the General Relativity Theory” आज भी सापेक्षवाद की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में गिनी जाती है।

29 मई 1919 में एक पूर्ण सूर्यग्रहण लगा था उस समय आइंस्टीन की उम्र लगभग 40 साल थी। आइंस्टीन ने सूर्यग्रहण की उस घटना को धन्यवाद दिया साथ मे आर्थर एडिंगटन को भी क्योंकि उस व्यक्ति और उस घटना ने आइंस्टीन को रातों रात सेलेब्रिटी बना दिया था। वह व्यक्ति था आर्थर एडिंगटन। आर्थर एडिंगटन द्वारा सूर्यग्रहण के समय किये एक प्रयोग से यह पता चला कि दूर की सितारों से आनेवाली प्रकाश किरणों को सूर्य की गुरुत्वाकर्षण द्वारा वक्रीत किया जाता है। यह वक्रता उतनी ही है जितनी सामान्य सापेक्षवाद के अनुसार अनुमानित हैं। उस घटना ने सामान्य सापेक्षवाद सिद्धान्त को गुरुत्वाकर्षण का सबसे प्रमुख सिद्धान्त बना दिया।

आर्थर एडिंगटन ने सूर्य ग्रहण के दौरान तारों की स्थिति में विचलन देखा था यह विचलन सामान्य सापेक्षवाद सिद्धान्त को प्रमाणित करता था।
एडिंगटन को विश्वास था की अब आइंस्टीन को नोबेल पुरस्कार सापेक्षवाद सिद्धान्त के लिए मिलने वाला है। लेकिन नोबेल कमेटी ने सापेक्षवाद सिद्धान्त को प्रमाणित होने पर भी नोबेल पुरस्कार देना जरूरी नही समझा। बहुतों को और स्वयं आइंस्टीन को यह लगा जैसे कमेटी ने उनका तिरस्कार किया है। क्या वाकई आइंस्टीन के सिद्धांत प्रामाणिक नहीं थे? समस्या यह थी कि एडिंगटन द्वारा किए गए प्रेक्षण परिष्कृत नहीं थे और उन्होंने बहुत सारे डेटा को अनुपयोगी मानकर अपने निष्कर्षों में शामिल नहीं किया था।

लेकिन अन्ततः 1921 में आइंस्टीन को नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया। जब नोबल कमेटी की पुरस्कार घोषणा में यह लिखा गया था कि आइंस्टीन को यह पुरस्कार

“सैद्धांतिक भौतिकी को उनके योगदान तथा विशेषकर प्रकाश-विद्युत प्रभाव के लिए दिया जा रहा है”।

माना जाता है कि “सैद्धांतिक भौतिकी को उनके योगदान” लिखकर कमेटी ने एक तरह से उनकी सापेक्षता की खोज के गौरव को स्वीकार कर लिया था। लेकिन कमेटी ने एक स्थान पर यह भी लिख दिया कि “यह पुरस्कार सापेक्षता और गुरुत्व संबंधी आपकी स्थापनाओं को ध्यान में रखकर नहीं दिया जा रहा है क्योंकि उनकी पुष्टि होनी बाकी है”।

आर्थर एडींगटन की शिक्षा मैनचेस्टर विश्वविदयालय तथा कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कालेज मे हुई थी।

उन्हे निम्नलिखित खोजो के लिये भी जाना जाता है।

  • एडींगटन सीमा( Eddington limit)
  • एडींगटन संख्या( Eddington number)
  • एडींगटन -डिरैक संख्या(Eddington–Dirac number)
  • एडींगटन -फ़िंकेल्स्टाइन निर्देशांक(Eddington–Finkelstein coordinates)

सम्मान

  • रायल सोसाइटी का रायल पदक (Royal Society Royal Medal) (1928)
  • स्मिथ पुरस्कार (Smith’s Prize) (1907)
  • RAS स्वर्ण पदक(Gold Medal) (1924)
  • हेनरी ड्रेपर पदक(Henry Draper Medal) (1924)
  • ब्रुस पदक(Bruce Medal) (1924)
  • नाइट्स बैचलर(Knights Bachelor) (1930)
  • आर्डर आफ़ मेरीट(Order of Merit) (1938)

ऐतिहासिक उपलब्धि : ब्लैक होल (श्याम विवर) का प्रथम चित्र

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ब्लैक होल की प्रथम तस्वीर - अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने 10 अप्रैल २०१९ को ब्लैकहोल की पहली तस्वीर जारी की। आकाशगंगा एम87 में 53.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष दूर मौजूद इस विशालकाय ब्लैक होल की तस्वीर जारी की गई है। वैज्ञानिकों ने ब्रसल्ज, शंघाई, तोक्यो, वॉशिंगटन, सैंटियागो और ताइपे में एकसाथ प्रेस वार्ता की और जिस दौरान इस तस्वीर को जारी किया गया।

ब्लैक होल की प्रथम तस्वीर – अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने 10 अप्रैल २०१९ को ब्लैकहोल की पहली तस्वीर जारी की। आकाशगंगा एम87 में 53.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष दूर मौजूद इस विशालकाय ब्लैक होल की तस्वीर जारी की गई है। वैज्ञानिकों ने ब्रसल्ज, शंघाई, तोक्यो, वॉशिंगटन, सैंटियागो और ताइपे में एकसाथ प्रेस वार्ता की और जिस दौरान इस तस्वीर को जारी किया गया।

1979 मे खगोल भौतिक वैज्ञानिक जीन-पियरे ल्यूमिनेट(Jean-Pierre Luminet) के पास सुपरकंप्युटर नही था लेकिन उन्होने विश्व को दिखाया था कि कोई ब्लैक होल किस तरह दिखाई देगा। उनके पास IBM का कंप्युटर IBM 7040 और कुछ पंच्ड कार्ड्स( punch cards) थे जिनसे वे कंप्यूटर को निर्देश और आंकड़े देते थे। वे सैद्धांतिक रूप से जानते थे कि ब्लैक होल प्रकाश का उत्सर्जन नही करते है। लेकिन ब्लैक होल के आसपास अत्याधिक उष्ण गैस और धुल का विशालकाय बवंडर अत्याधिक चमकदार प्रकाश उत्सर्जित करता है। ल्यूमिनेट ने सोचा कि इस पदार्थ से उत्सर्जित प्रकाश ब्लैक होल के आकार की जानकारी दे सकता है और इस प्रकाश से काल-अंतराल(space-time) मे गुरुत्वाकर्षण द्वारा उत्पन्न की गई वक्रता को भी देखा जा सकता है।

1979 मे खगोल भौतिक वैज्ञानिक जीन-पियरे ल्यूमिनेट(Jean-Pierre Luminet) के द्वारा बनाया गया ब्लैक होल का चित्र

1979 मे खगोल भौतिक वैज्ञानिक जीन-पियरे ल्यूमिनेट(Jean-Pierre Luminet) के द्वारा बनाया गया ब्लैक होल का चित्र

किसी रेफ़्रिजरेटर के आकार के IBM 7040 कंप्यूटर से संसाधित आंकड़ो के आधार पर ल्यूमिनेट ने पेन और कागज की सहायता से अपने हाथो से ब्लैक होल का सर्वप्रथम चित्र बनाया था। इस चित्र मे उन्होने ब्लैक होल का घटना क्षितिज(event horizon) दिखाया था जिसके पार जाने पर ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण से कुछ नही बच सकता है। इसी के साथ उन्होने अक्रिशन डिस्क भी दिखाई थी जो कि ब्लैक होल द्वारा निगले गये तारों के मलबे से बना धुल और गैस का एक विशाल बवंडर होता है। ब्लैक होल के पास एक ही अक्रिशन डिस्क होती है लेकिन गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से इसका स्वरूप विकृत दिखाई देता है। किसी विकृत दर्पण मे बनी छवि के जैसे इस अक्रिशन डिस्क की छवि दो लंबवत डिस्क के जैसे दिखाई देती है। ये दोनो ब्लैक होल के समीप अधिक चमकदार दिखाई देती है।

इस चित्र के बनाये जाने के 4 दशक के पश्चात भी ल्यूमिनेट का पूर्वानुमान अब भी सही माना जाता है। लेकिन उनके द्वारा बनाया गया चित्र और ब्लैक होल के सभी चित्र पेंटींग मात्र है, वास्तविक फोटोग्राफ़ नही है। अब यह बदलने जा रहा है। वैज्ञानिक एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहे है जिसे इवेंट होरीजान टेलिस्कोप(Event Horizon Telescope) नाम दिया गया है। 10 अप्रैल 2019 को वे M87 आकाशगंगा के केंद्र का ब्लैक होल का चित्र जारी किया है। मूल योजना के अंतर्गत वे हमारी आकाशगंगा के केंद्र के महाकाय ब्लैक होल सेजीटेरीयस A( Sagittarius A , उच्चारण ए स्टार) ब्लैक होल का वास्तविक चित्र भी जारी करने वाले थे लेकिन तकनीकी वजहो से नही कर पाये है। वैकल्पिक रूप से उन्होने  M87 आकाशगंगा मे स्थित एक अन्य ब्लैक होल के आंकड़े जमा किये थे, जिसका चित्र जारी किया गया है। इस चित्र से ब्रह्माण्ड के सबसे रहस्यमय पिंड के रहस्य का आवरण हटाने मे मदद मिलेगी। साथ ही आकाशगंगाओ की निर्माण प्रक्रिया, विकास और आकार के बारे मे भी जानकारी मिलेगी।

इवेंट होरीजान टेलिस्कोप एक अकेली दूरबीन नही है, यह आठ रेडीयो दूरबीनो का नेटवर्क है जोकि हवाई, अरिजोना, स्पेन, मेक्सीको, चीली और अंटार्कटीका मे स्तिथ है।

इवेंट होरीजान टेलिस्कोप एक अकेली दूरबीन नही है, यह आठ रेडीयो दूरबीनो का नेटवर्क है जोकि हवाई, अरिजोना, स्पेन, मेक्सीको, चीली और अंटार्कटीका मे स्तिथ है।

इवेंट होरीजान टेलिस्कोप एक अकेली दूरबीन नही है, यह आठ रेडीयो दूरबीनो का नेटवर्क है जोकि हवाई, अरिजोना, स्पेन, मेक्सीको, चीली और अंटार्कटीका मे स्तिथ है। खगोल वैज्ञानिक इन आठ दूरबीनो का प्रयोग एक समय मे एक ही पिंड के निरीक्षण के लिये करते है। उसके पश्चात वे इन सभी दूरबीनो से प्राप्त आंकड़ो को मिलाकर एक चित्र बनाते है। इन आठ दूरबीनो से इस तरह से एक साथ मे कार्य करने की प्रक्रिया को आप पृथ्वी के आकार की एक दूरबीन के तुल्य मान सकते है।

इस तकनीक को “वेरी लांग बेसलाईन इंटरफ़ेरोमेट्री (very long baseline interferometry, VLBI)” कहते है। इस तकनीक की सफ़लता के लिये आवश्यक है सभी दूरबीनो मे समय मापन के लिये समान और सटीक समय दर्शाने वाली घड़ीयों की उपस्थिति। उन्होने इस कार्य के लिये परमाणु घड़ीयों का प्रयोग किया है।

सब सभी दूरबीने सेजीटेरीयस A* का निरीक्षण करती है तब उनके निरीक्षण के आंकड़ो के साथ परमाणु घड़ी का समय जोड़ देते है। अब जब वैज्ञानिक सभी दूरबीनो के आंकड़ो का मिलान करते है तब वे उन आंकड़ो को परमाणु घड़ी के समय के अनुसार मिलाते है, उदाहरण के लिये किसी एक दूरबीन के 5:13 p.m. GMT के आंकड़ो को अन्य दूरबीनो के 5:13 p.m. GMT के आंकड़ो के साथ ही मिलाया जायेगा।

आठ दूरबीन के आंकड़ो को एक ही स्थान पर मिलाया जाता है। सामान्यत: वैज्ञानिक इन आंकड़ो को इंटरनेट से एक दूसरे से साझा करते है लेकिन चित्र के लिये आंकड़ो के मिलान के लिये सारे आंकड़ो की आवश्यकता होती है और इन आंकड़ो की मात्रा पेटाबाईट मे होती है जोकि इंटरनेट से भेजा नही जा सकता है। इस समस्या को पार पाने के लिये आंकड़ो की हार्ड डिस्क को विमान से भेजा जाता है। वैज्ञानिको ने आंकड़ो को इस तरह भेजे जाने को स्निकरनेट(sneakernet) नाम दिया है।

अप्रैल 2017 मे वैज्ञानिको ने इस प्रयोग मे सबसे पहला निरीक्षण चीली की अटाकामा लार्ज मिलीमिटर-सबमिलीमिटर दूरबीन(ALMA) से किया था। यह उपकरण इतना शक्तिशाली है कि उससे EHT द्वार काल-अंतराल मे एक नन्हे से छिद्र के द्वारा देखा जा सकता है। लेकिन इसकी तैयारीयाँ इतनी आसान नही थी। वैज्ञानिको को इसके लिये ALMA की 66 डीश से प्राप्त आंकड़ो को जमा करना पड़ा था। उसके बाद उन आंकड़ो को अन्य आठ दूरबीनो के आंकड़ो से जोड़ा गया।

इसके बाद भी ALMA के द्वारा सभी आंकड़ो के विश्लेषण के लिये एक साल से से अधिक समय के लेने के बाद भी चित्र नही बन पाया। इसके लिये उन्हे अंटार्कटीका और उस पर स्थित दक्षिणी ध्रुव दूरबीन से आंकड़ो वाली हार्ड डिस्क के विमान से आने के लिये अगले वसंत तक इंतजार करना पड़ा। क्योंकि वर्ष मे केवल वसंत और गर्मीयों मे ही दक्षिणी ध्रुव से विमान उड़ान भर सकते है। यह आंकड़े MIT की हेस्टेक वेधशाला(Haystack Observatory) मे दिसंबर 2017 मे पहुंच पाये थे।

फ्रांस के ग्रीनोबल शहर स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ मिलीमेट्रिक रेडियो एस्ट्रोनॉमी के खगोलविद माइकल ब्रिमर ने कहा,

‘हमने कोई विशाल टेलीस्कोप इसलिए नहीं बनाया क्योंकि वह अपने वजन के चलते ही टूट सकता है। हमने कई सारे रेडियो टेलीस्कोप से ली गई तस्वीरों को इस तरह जोड़ा है जैसे वह किसी बड़े से शीशे का टुकड़ा हो।’

ब्लैक होल के एक चित्र के लिये इतनी सारी कवायद की क्या आवश्यकता है ? वैज्ञानिको के अनुसार

“यही तो विज्ञान की विचित्रता है। ब्लैक होल ब्रह्माण्ड के सबसे अधिक रहस्यमय पिंड है। इनसे अधिक रहस्यमय केवल जीवन ही है।”

और जीवन, कमसे कम वह जीवन जिसे हम जानते है, वह नही जानता कि ब्लैक होल कैसे दिखता है, उनके अंदर क्या होता है, ब्लैक होल की आकाशगंगा और उनके विकास मे क्या भूमिका है , ब्लैकहोल के जन्म और उसके विकास मे हमारे जीवन की उत्पत्ति मे क्या भूमिका निभाई है ? जीवन के लिये यह जानना महत्वपूर्ण है।

EHT के निदेशक शेप डोलमेन ( Shep Doeleman) के अनुसार

” ऐसे बहुत कम विषय है जहाँ हम कह सकते है कि हम नही जानते है ब्रह्मांड के इस बिंदु पर क्या हो रहा है ? इनमे से एक है चेतना और दूसरा है ब्लैक होल!” (“There are very few topics where we say we just really have no idea what happens at that point in the universe,” says Doeleman. “One of those may be consciousness. And another one is the black hole.”)

M87 आकाशगंगा के केंद्र का यह ब्लैक होल

आकाशगंगा M87 के केंद्र के ब्लैक होल के चित्र अद्भूत है। मानव ने पहली बार किसी ब्लैक होल के इवेंट हारीजोइन को देखा है। और यह महादानवाकार है।

इसका द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान का 6.5 अरब गुणा है और इसका व्यास 38 अरब किमी है। पहले चित्र मे इसके आकार की तुलना दिखाई गई है। आप चित्र मे इस दानवाकार ब्लैक होल के इवेंट हारीजोइन की तुलना अब तक के ज्ञात सबसे विशाल तारे (VY कैनीस मेजोरीस, बीटलगुज) के आकार तथा नेपच्युन की कक्षा के आकार के साथ देख सकते है।

M87 आकाशगंगा के केंद्र के ब्लैक होल के आकार की सौर मंडल, महाकाय तारे VY कैनीस मेजोरीस और लाल महादानव तारे बीटलगुज से तुलना

यह महाकाय ब्लैक होल इतना विशाल है कि यदि इसे पृथ्वी से एक प्रकाशवर्ष की दूरी पर रखे तो आकाश मे इसका इवेंट हारीजोइन चंद्रमा के आकार का आधा दिखेगा। जानकारी के लिये बता दें कि एक प्रकाशवर्ष की दूरी पर सूर्य एक नन्हे बिंदु या सूई की नोक के आकार का दिखेगा।

यदि इसे पृथ्वी से एक प्रकाशवर्ष की दूरी पर रखे तो आकाश मे इसका इवेंट हारीजोइन चंद्रमा के आकार का आधा दिखेगा।

 

आखिर ब्लैकहोल क्या है ?

श्याम विवर (Black Hole) एक अत्याधिक घनत्व वाला पिंड है जिसके गुरुत्वाकर्षण से प्रकाश किरणो का भी बच पाना असंभव है। श्याम विवर मे अत्याधिक कम क्षेत्र मे इतना ज्यादा द्रव्यमान होता है कि उससे उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण किसी भी अन्य बल से शक्तिशाली हो जाता है और उसके प्रभाव से प्रकाश भी नही बच पाता है।

श्याम विवर की उपस्थिति का प्रस्ताव 18 वी शताब्दी मे उस समय ज्ञात गुरुत्वाकर्षण के नियमो के आधार पर किया गया था। इसके अनुसार किसी पिंड का जितना ज्यादा द्रव्यमान होगा या उसका आकार जितना छोटा होगा, उस पिंड की सतह पर उतना ही ज्यादा गुरुत्वाकर्षण बल महसूस होगा। जान मीशेल तथा पीयरे सायमन लाप्लास दोनो ने स्वतंत्र रूप से कहा था कि अत्याधिक द्रव्यमान या अत्याधिक लघु पिंड के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से किसी का भी बचना असंभव है, प्रकाश भी इससे बच नही पायेगा।

इन पिंडो को ’श्याम विवर(Black Hole)’ नाम जान व्हीलर ने 1967 मे दिया था। भौतिक विज्ञानीयों तथा गणितज्ञों ने यह पाया है कि श्याम विवर के पास काल और अंतराल(Space and Time) के विचित्र गुणधर्म होते हैं। इन विचित्र गुणधर्मो की वजह से श्याम विवर विज्ञान फतांसी लेखको का पसंदीदा रहा है। लेकिन श्याम विवर फतांसी नही है। श्याम विवर का आस्तित्व है और जब भी एक महाकाय तारे की मृत्यु होती है एक श्याम विवर का जन्म होता है। यह महाकाय तारे अपनी मृत्यु के पश्चात श्याम विवर बन जाते है। हम श्याम विवर को नही देख सकते है लेकिन उसमे गुरुत्वाकर्षण के फलस्वरूप उसमे गिरते द्रव्यमान को देख सकते है। इस विधि से खगोल वैज्ञानिको ने अब तक ब्रह्माण्ड का निरीक्षण कर सैकड़ो श्याम विवरो की खोज की है। अब हम जानते है कि हमारा ब्रह्माण्ड श्याम विवरो से भरा पड़ा है और उन्होने ब्रह्माण्ड को आकार देने मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

सिंगुलरैटी : ब्लैक होल का केंद्र जिस स्थान पर पदार्थ संपिड़ित होकर अत्याधिक(अनंत) घनत्व मे होता है।

रिलेटीविस्टीक जेट : जब कोई ब्लैक होल किसी तारे को निगल लेता है जब परमाण्विक कणो और विकिरण की एक तेज धारा(jet)प्रकाशगति की गति के समीप वाली गति(लेकिन कम) से निकलती है।

फोटान गोला (Photon Sphere) : ब्लैक होल के निकट के उष्ण प्लाज्मा से उत्सर्जित फोटान जो गुरुत्वाकर्षण से मुड़कर एक चमकीला वलय बनाते है।

घटना क्षितिज(Event Horizon) :सिंगुलरैटी के पास की वह सीमा जिसे पार करने के बाद पदार्थ और ऊर्जा ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण से बच नही सकते। वह बिंदु जिससे वापसी संभव नही।

अक्रिशन डिस्क(Accretion Disc) : ब्लैक होल के पास अत्याधिक उष्ण गैस और धुल की तश्तरी जो अत्याधिक गति से घूर्णन करती है और विद्युत चुंबकीय विकिरण(X रे) उत्पन्न करती है।

ब्लैक होल(श्याम विवर)

ब्लैक होल(श्याम विवर)

ब्लैक होल के बारे मे विस्तार से :

https://vigyanvishwa.in/2011/06/27/black-hole/
https://vigyanvishwa.in/2011/07/04/blackhole1/
https://vigyanvishwa.in/2011/07/11/bithofblackhole/
https://vigyanvishwa.in/2015/10/26/wierdbh/
https://vigyanvishwa.in/2016/11/14/bh/


खगोल भौतिकी(ASTROPHYSICS) क्या है और वह खगोलशास्त्र(ASTRONOMY) तथा ब्रह्माण्डविज्ञान(COSMOLOGY) से कैसे भिन्न है?

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लेखक : ऋषभ

यह लेख ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)” शृंखला के 30 लेखो मे से पहला है, इस शृंखला मे खगोलभौतिकी संबधित विविध विषय जैसे विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम से लेकर आकाशगंगा, सूर्य से लेकर न्युट्रान तारे तथा ब्लैकहोल और क्वासार से लेकर नेबुला और कास्मिक बैकग्राउंड विकिरण(CMB) का समावेश होगा। इन सब ब्रह्मांडीय संरचनाओं की चर्चा से पहले हम जानने का प्रयास का करते है कि खगोल भौतिकी क्या है और वह खगोलशास्त्र(Astronomy) तथा ब्रह्मांड विज्ञान(Cosmology) से किस तरह भिन्न है?

खगोलभौतिकी की परिभाषा

खगोलभौतिकी (Astrophysics) खगोल विज्ञान का वह अंग है जिसके अंतर्गत भौतिकी और रसायनशास्त्रो के नियमों के द्वारा खगोलीय पिंडो की रचना तथा उनके भौतिक लक्षणों का अध्ययन किया जाता है जिसमे उनकी स्थिति तथा अंतरिक्ष मे गति का समावेश नही है।

खगोलभौतिकी मे तारों का अध्ययन एक महत्वपूर्ण विषय है।

खगोलभौतिकी मे तारों का अध्ययन एक महत्वपूर्ण विषय है।

खगोलभौतिकी मे तारों के अध्ययन का विशेष महत्व है। खगोलभौतिकी वैज्ञानिक भौतिकी ने नियमों का प्रयोग कर सूर्य, तारे और उनके विकास, आकाशगंगा, अंतरतारकीय(intersteller) माध्यम तथा कास्मिक बैकग्राउंड विकिरण का अध्ययन करते है। ब्रह्मांड के इस अध्ययन मे रहस्यों को खोलने का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम है। इसलिये खगोलभौतिकी वैज्ञानिक इन सभी खगोलिय पिंडों के वर्णक्रम का अध्ययन कर उनमे चल रही विभिन्न गतिविधियों को समझते है। श्याम ऊर्जा(Dark Energy),श्याम पदार्थ(Dark Matter), समय यात्रा(Time Travel), वर्महोल तथा श्याम वीवर (Black Hole) जैसे विषय खगोलभौतिकी के अंतर्गत आते है।

खगोलभौतिकी की समय रेखा

अब हम खगोलभौतिकी के विकास यात्रा मे आये पांच मुख्य पड़ाव की चर्चा करेंगे। इन पांच घटनाओं ने खगोलभौतिकी को एक विज्ञान की अन्य शाखाओं मध्य अपनी अलग पहचान बनाने मे सहयोग दिया है।

1. वोलास्टन (1802 मे) और फ़्राउनहोफ़र(1814 मे) द्वारा सौर वर्णक्रम मे गहरी रेखाओं का निरीक्षण(Dark Lines In Solar Spectrum by Wollaston And Fraunhofer)

खगोलभौतिकी का आरंभ सूर्य के वर्णक्रम मे सर विलियम वोल्लास्टन और जोसेफ़ फ़्राउनहोफ़र द्वारा गहरी रेखाओं के अध्ययन से आरंभ हुआ था, इन रेखाओं को अब फ़्राउनहोफ़र रेखा (Fraunhofer Lines) कहा जाता है।

फ़्राउनहोफ़र रेखा (Fraunhofer Lines)

फ़्राउनहोफ़र रेखा (Fraunhofer Lines)

जब सूर्यप्रकाश किसी प्रिज्म से गुजरता है तो वह इंद्रधनुष के रंगो मे विभाजित हो जाता है। इन रंगो को सूर्य का वर्णक्रम कहा जाता है। लेकिन जब इस वर्णक्रम को गहराई से देखा जाये तो इसमे बहुत सी गहरी रेखायें होती है। यह अवशोषण रेखाये सूर्य मे बहुत सी अशुद्धीयों जैसे कैल्सीयम, सोडेयम, मैग्निशियम , लोहा इत्यादि की उपस्तिथि से उत्पन्न होती है। सूर्य मे सबसे अधिक मात्रा मे हायड्रोजन उपस्थित है लेकिन उसमे अत्यल्प मात्रा मे अशुद्धियो की उपस्थिति विशिष्ट तरंगदैधर्य के प्रकाश को अवशोषित कर लेती है जिससे ये गहरी रेखायें बनती है। इस विषय पर हम आने वाले ले्खों मे चर्चा करेंगे।

2. पिकरींग एट अल द्वारा 1885 मे तारों का 7 वर्गो मे वर्गीकरण( Classification of Stars Into 7 Types by Pickering et al)

हावर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification Scheme)

हावर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification Scheme)

पिकरींग और उनकी टीम मे एन्नी कैनन जंप(Annie Cannon Jump) और एंटोनिया मौरी(Antonia Maury) जैसे महिला वैज्ञानिको का समावेश था। इस टीम मे वर्णक्रम के आधार पर 400,000 तारों को सात वर्गो मे विभाजित किया।इस वर्गीकरण प्रणाली को हावर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification Scheme) कहते है, इस प्रणाली ने खगोलभौतिकी को एक दिशा दी और इस प्रणाली का प्रयोग आज भी होता है। इस वर्गीकरण ने स्पेक्ट्रोग्राफ़ी(वर्णक्रम के अध्ययन) का महत्व को खगोलभौतिकी मे रेखांकित किया।

3. एडींगटन का शोधपत्र: तारों की आंतरिक संरचना -1920( Eddington’s Paper: The Internal Constitution Of Stars)

1920 के आसपास किसी भी खगोलीय पिंड की ऊर्जा का स्रोत एक रहस्य ही था। आर्थर एडींगटन ने आईंस्टाईन के द्रव्यमान-ऊर्जा के प्रसिद्ध समीकरण की सहायता से सिद्ध किया कि तारों मे ऊर्जा का उत्पादन उनके केंद्र मे हायड्रोजन के संलयन से हिलियम निर्माण से होता है। उन्होने इस निष्कर्ष को तारों की आंतरिक संरचना शीर्षक वाले शोधपत्र मे प्रकाशित किया था।

4. सेसीलिआ पेन का डाक्टरल शोधपत्र -1925( Doctoral Thesis of Cecilia Payne)

सेसीलिआ पेन के सहकर्मीयों के अनुसार यह सबसे विलक्षण डाक्टरल शोधपत्र था जिसमे यह बताया गया था कि तारों के मुख्य घटक हायड्रोजन(H) और हिलियम(He) है।

5. गुरुत्वाकर्षण तरंगो की खोज – 2016 (Detection of Gravitational Waves)

दो श्याम वीवरों द्वारा एक दूसरे की परिक्रमा से उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण तरंगे

दो श्याम वीवरों द्वारा एक दूसरे की परिक्रमा से उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण तरंगे

गुरुत्वाकर्षण तरंगो की खोज से खगोलभौतिकी के क्षेत्र मे एक नया युग आया, यह खगोल भौतिकी मे एक मील का पत्थर है। गुरुत्वाकर्षण तरंगे किसी दो अत्यधिक संपिडीत पिंड जैसे ब्लैक होल के टकराने और विलय से उत्पन्न होती है। इनका निरीक्षण और जांच अत्यधिक दुरुह कार्य है।

खगोलभौतिकी किस तरह खगोलशास्त्र(ASTRONOMY) तथा ब्रह्माण्डविज्ञान(COSMOLOGY) से भिन्न है?

अब हम जानते है कि खगोलभौतिकी क्या है, अब देखते है कि वह खगोलशास्त्र(ASTRONOMY) तथा ब्रह्माण्डविज्ञान(COSMOLOGY) से कैसे भिन्न है?

खगोलविज्ञान विज्ञान की वह शाखा है जिसमे आकाशीय पिंडो की गति तथा स्तिथि का अध्ययन किया जाता है। खगोल शास्त्र, एक ऐसा शास्त्र है जिसके अंतर्गत पृथ्वी और उसके वायुमण्डल के बाहर  अर्थात अंतरिक्शःअ होने वाली घटनाओं का अवलोकन, विश्लेषण तथा उसकी व्याख्या (explanation) की जाती है। यह वह अनुशासन है जो आकाश में अवलोकित की जा सकने वाली तथा उनका समावेश करने वाली क्रियाओं के आरंभ, बदलाव और भौतिक तथा रासायनिक गुणों का अध्ययन करता है। इसमे ग्रहों की स्तिथियों की गणना, ग्रहण के समय की गणना, उल्कापात के पूर्वानुमान का समावेश होता है। खगोलशास्त्र मुख्य रूप मे खगोलीय गतिकी और ओप्टिक्स के प्रयोग से खगोलीय पिंडो की स्तिथि और संरचना का अध्ययन करता है।

ब्रह्माण्ड विज्ञान या कॉस्मोलॉजी खगोल विज्ञान की एक शाखा है, जिसमें ब्रह्माण्ड से जुड़ी तमाम बातों का अध्ययन किया जाता है। इसमें ब्रह्माण्ड के बनने की प्रक्रिया के बारे में भी जानकारी दी जाती है। ब्रह्माण्ड विज्ञान(Cosmology) मुख्य रूप से ब्रह्माण्ड के जन्म , विकास और अंत का अध्ययन करता है।

ब्रह्माण्ड विज्ञान मे ब्रह्मांड का बड़े पैमाने पर अध्ययन होता है, इसमे ब्रह्मांड का सम्पूर्ण रूप से अध्ययन होता है जबकि खगोलशास्त्र मे किसी विशिष्ट खगोलिय पिंड का अध्ययन होता है।

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe (https://secretsofuniverse.in/) के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

मूल लेख : https://secretsofuniverse.in/2019/04/15/what-is-astrophysics-and-hows-it-different-from-astronomy-cosmology/

विद्युत चुंबकीय (EM SPECTRUM) क्या है और वह खगोलभौतिकी (ASTROPHYSICS) मे महत्वपूर्ण उपकरण क्यों है ?

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लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

कितना अद्भुत है कि हम खूबसूरत तारों , ग्रहों, चंद्रमा और सूर्य से लाखों करोड़ो किलोमीटर दूर रहते हुये भी उनके विषय मे बहुत कुछ जानते और समझते है। यह लेख मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला का द्वितीय लेख है। इस लेख मे हम खगोलभौतिकी के अध्ययन के सबसे महत्वपूर्ण उपकरण के बारे मे बुनियादी जानकारी देगें। इस उपकरण का नाम है विद्युतचुंबकीय वर्णक्रम(Electromagnetic spectrum)। अब हम जानने का प्रयास करते है कि विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम(Electromagnetic spectrum) क्या है और इसका खगोल भौतिकी मे क्या महत्व है?

विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम(The Electromagnetic (EM) spectrum)

बचपन से ही हमे विद्युत चुंबकीय वर्ण क्रम के सिद्धांत का परिचय दे दिया जाता है। इसे हमने सीधे इंद्रधनुष के रूप मे देखा होता है या इसे अपने प्राथमिक स्कूल मे पढ़ा होता है। लेकिन इंद्रधनुष विशाल विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम का एक नन्हा सा दृश्य हिस्सा है। अब हम विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम को संपूर्ण रूप से देखते है।

दृश्य प्रकाश के रंग और विद्युत चुंबकिय विकिरण

दृश्य प्रकाश के रंग और विद्युत चुंबकिय विकिरण

विद्युत चुंबकीय विकिरण (Electromagnetic Radiation)

विकिरण या रेडीएशन ऊर्जा का एक प्रकार है तरंग और कणो के रूप मे यात्रा करता है और अपनी इस यात्रा मे विस्तृत(फ़ैलते) होते जाता है। विद्युत चुंबकीय विकिरण को शून्य द्रव्यमान वाले कण फोटान की धारा के रूप मे परिभाषित किया जा सकता है। हर फोटान एक विशिष्ट मात्रा मे ऊर्जा रखता है और वह एक तरंग के रूप मे प्रकाशगति से यात्रा करता है।

सूर्य, तारो या घर मे लगी ट्युबलाईट/बल्ब से हमारे घर तक आने वाला प्रकाश दृश्य विद्युत चुंबकीय विकिरण का उदाहरण है। किसी रेडीयो स्टेशन से निकलने वाली रेडीयो तरंगे जो संचार का एक सशक्त माध्यम है विद्युत चुंबकीय विकिरण है। खाना बनाने या उसे गरम करने मे प्रयुक्त माइक्रोवेव तरंग भी विद्युत चुंबकीय विकिरण है। पराबैंगनी तरंग(Ultraviolet waves) जिनसे त्वचा कैंसर हो सकता है भी विद्युत चुंबकीय विकिरण है। हमारे रोजमर्रा के जीवन मे विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के कई भाग जैसे अवरक्त किरणे(infrared), एक्सरे, गामा किरण का प्रयोग होता है। जब हम ठंड लगती है और हम सूर्य से उष्णता प्राप्त करने का प्रयास करते है तब है सौर विद्युतचुंबकीय वर्णक्रम के अवरक्त भाग से उष्णता प्राप्त कर रहे होते है। जब हमारी हड्डीयों मे कोई चोट लगती है तो उसकी जांच और स्थिति की जानकारी के लिये हम एक्सरे का प्रयोग करते है।

विद्युत चुंबकीय विकिरण (आकार और तापमान की तुलना)

विद्युत चुंबकीय विकिरण (आकार और तापमान की तुलना)

हम विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के विभिन्न भागो का वर्गीकरण कैसे करते है ?

विभिन्न प्रकार के विकिरण की परिभाषा उनके वाहक फोटान की ऊर्जा के के अनुसार दी जाती है। रेडीयो तरंग के फोटान की ऊर्जा कम होती है, माइक्रोवेव के फोटानो की ऊर्जा रेडीयो तरंग के फोटानो से अधिक होती है, अवरक्त तरंगो के फोटान की और अधिक। इस ऊर्जा के बढ़ते अनुक्रम मे दृश्य प्रकास, पराबैंगनी, एक्स रे और सबसे शक्तिशाली गामा किरणे आती है।

विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम का खगोलभौतिकी मे महत्व

भिन्न तरंगदैधर्य वाले क्षेत्रो के विकिरण खगोलभौतिकी के पिंडो मे होने वाली भिन्न भिन्न भौतिकीय प्रतिक्रियाओं का परिणाम होते है। हम ब्रह्मांड के दूरी वाले क्षेत्रो का अध्ययन इन विद्युत चुंबकीय विकिरणो की जांच और विश्लेषण से कर सकते हैं।

किसी तारे द्वारा उत्सर्जित विद्युत चुंबकीय विकिरण विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के एक बड़े भाग मे कई क्षेत्रो मे फ़ैला होता है। इस क्षेत्रो के विश्लेषण और अध्ययन से हम उस तारे की संरचना, आकार और अन्य गुणधर्मो को जान सकते है।

कुछ सरल तत्वो का वर्णक्रम

खगोलभौतिकी वैज्ञानिक स्पेक्ट्रोस्कोपी(spectroscopy) उपकरण के प्रयोग से तारे और ग्रह की रासायनिक संरचना का पता लगाते है, इस अध्ययन मे उस तारे द्वारा उत्सर्जित विद्युत चुंबकीय विकिरण के तरंगदैधर्य को देखा जाता है। हमने पिछले लेख मे देखा है कि वोल्लास्टन और फ़्राउनहोफ़र द्वारा सौर वर्णक्रम मे पाई जाने वाली गहरी रेखाओं ने खगोलभौतिकी को जन्म दिया था।

हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला

हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला

हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला तथा वायेजर अंतरिक्ष अण्वेषण यान अंतरिक्ष मे शोध करते है और इन उपकरणो द्वारा दूरस्थ खगोलिय पिंडो के अध्ययन मे पृथ्वी द्वारा उत्पन्न विद्युत चुंबकीय विकिरण आड़े नही आता है। इन उपकरण हमारी आकाशगंगा और ब्रह्माण्ड के दूरस्थ भागो से आते विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के अध्ययन मे अत्याधिक संवेदी और सटीक निरीक्षण परिणाम प्राप्त होता है।

किसी खगोलवैज्ञानिक के हाथो मे ब्रह्मांड के रहस्यो को अनावृत्त करने के लिये विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। वर्णक्रम के अध्ययन से अत्याधिक मात्रा मे सूचना प्राप्त होती है। उदाहरण के लिये खगोलीय वर्णक्रम से हम उसकी रासायनिक संरचना, तापमान, द्रव्यमान , आकार, दूरी और घनत्व को जान सकते है। इसके साथ ही हम उस तारे की हमसे सापेक्ष गति की भी गणना कर सकते है। रेडीयो खगोलशास्त्र(Radio Astronomy) इस विषय की एक मुख्य शाखा और लोकप्रिय शाखा है। रेडीयो वर्णक्रम(Radio Spectrum) के अध्ययन से वैज्ञानिक अत्यधिक दूरी पर स्थित पिंडों जैसे ब्लैक होल, क्वासर और आकाशगंगाओ का अध्ययन करते है।

लेखिका का संदेश

मै प्लाज्मा भौतिक शास्त्री हुं और मै अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा की विभिन्न तरंगो जैसे अल्फ़वेन(alfven) तरंग का अध्ययन करती हुं। अल्फ़वेन तरंग को सौर कोरोना के अनियमित रूप से उष्ण होने के लिये उत्तरदायी माना जाता है। उपग्रहों और अंतरिक्ष यान द्वारा प्लाज्मा तरंगे का निरीक्षण होता रहता है जोकि अंतरिक्ष और खगोल भौतिकीय पिंडो द्वारा मूलभूत प्लाज्मा गतिविधियों के अध्ययन के लिये अत्यधिक रूचिकर है। आशा है कि इस लेख से आपको खगोल भौतिकी मे प्रयुक्त होने वाले इस सरल से लेकिन अत्यधिक महत्वपूर्ण उपकरण को समझने मे मदद मिली होगी।

इस शृंखला मे इससे पहले : खगोल भौतिकी(ASTROPHYSICS) क्या है और वह खगोलशास्त्र(ASTRONOMY) तथा ब्रह्माण्डविज्ञान(COSMOLOGY) से कैसे भिन्न है?

मूल लेख : WHAT IS EM SPECTRUM & WHY IT’S THE MOST IMPORTANT TOOL IN ASTROPHYSICS?

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)
संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.

दूरबीनो की कार्यप्रणाली का परिचय

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लेखिका:  सिमरनप्रीत (Simranpreet Buttar)

आज हम जानते है कि हमारे आसपास का विश्व कैसा दिखता है, हम जानते हैं कि हमारा ब्रह्मांड कितना सुंदर है, हमने तेजस्वी देदीप्यमान सुपरनोवा देखे है और हमारे पास ब्लैकहोल का सबसे पहला चित्र है। सब कुछ हमारी दूरबीनों की बदौलत! हम निर्विवादित रूप से कह सकते है कि खगोलशास्त्र और खगोलभौतिकी के क्षेत्र मे सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाला उपकरण दूरबीन है। इस विषय मे रूचि रखने वाला कोई भी व्यक्ति कभी ना कभी किसी ना किसी दूरबीन का प्रयोग करेगा ही। प्रस्तुत है ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला का तृतीय लेख जो कि इस उपकरण को समर्पित है।

दूरबीनों ने हमे ब्रह्माण्ड मे अपने स्थान को जानने और पहचानने मे बहुत मदद की है। किसी समय समुद्री जहाजो के कप्तान और सागरी डाकू अपने साथ दूरबीन ले जाया करते थे जोकि उनकी देखने की क्षमता को चार गुणा बढ़ाते थे लेकिन दृश्यपटल काफ़ी संकरा हुआ करता था। लेकिन वर्तमान की आधुनिक दूरबीने बहुत सी दूरबीनो का एक विशालकाय समूह है जोकि अंतरिक्ष के हर कोने को देख सकती है। एक दूरबीन हमारी आंखो को विस्तार देती है और उन चिजो को भी देखने मे मदद करती है जिसे नंगी मानव आंखो से देखा नही जा सकता है।

तकनीकी रूप से एक दूरबीन एक ऐसा प्रकाशीय(optical) उपकरण है जो कि दूरस्थ वस्तुओं को लेंस तथा दर्पणो की सहायता से आवर्धित कर के दिखाता है। दूरबीन सामान्यत: प्रकाशीय दूरबीनों के लिये प्रयुक्त शब्द है लेकिन 17 वी सदी मे अपने अविष्कार के पश्चात यह उपकरण अनेक क्रांतिकारी परिवर्तनो के दौर से गुजरा है। जिसके फ़लस्वरूप वर्तमान दूरबीने ना केवल दृश्य प्रकाश मे काम करती है, बल्कि वे रेडीयो तरंग से लेकर गामा किरणो को भी देख सकती है। किसी दूरबीन का मुख्य कार्य दूरस्थ पिंड द्वारा उत्सर्जित प्रकाश या अन्य विकिरण को जमा करना और उस प्रकाश या विकिरण को एक जगह फ़ोकस करना है जिससे उसकी छवि को देखा जा सके, चित्र लिया जा सके या अध्ययन किया जा सके।

दूरबीनो का इतिहास

हैंस लिप्पर्शे (Hans Lippershey)

हैंस लिप्पर्शे (Hans Lippershey)

सबसे पहली दूरबीन हालैंड के एक चश्मो के निर्माता हैंस लिप्पर्शे(Hans Lippershey) ने बनाया थी और पेटेंट के लिये आवेदन किया था। लिप्पर्शे को पेटेट नही मिला लेकिन इस नई खोज की खबर सारे यूरोप मे जंगल की आग की तरह फ़ैल गई थी। लिप्पर्शे के डीजाईन मे एक उत्तल (convex) वस्तु लेंस और अवतल दृष्टि लेंस(concave eyepiece) था। हैंस का यह उपकरण किसी भी वस्तु को वास्तविक आकार से तीन गुना आवर्धित करने मे सक्षम था।

1609 मे जब हैंस लिप्पर्शे की दूरबीन की खबर गेलेलियो के पास पहुंची तो वे हैंस लिप्पर्शे के डीजाईन को देखे बगैर अपनी दूरबीन के निर्माण मे जुट गये। उन्होने अपनी दूरबीन मे बहुत से महत्वपूर्ण सुधार किये और उनकी दूरबीन मे उन्होने 20 गुणा आवर्धन प्राप्त करने मे सफ़लता पाई। इससे बड़ी बात यह थी कि गैलेलीयों दूरबीन का रूख आकाश की ओर करनेवाले प्रथम व्यक्ति थे जिसके फ़लस्वरूप उन्होने 1610 मे बृहस्पति के चार बड़े चंद्रमाओं को खोजने मे सफ़लता पाई। इन चार बड़े चंद्रमाओं को संयुक्त रूप से गैलेलीयन चंद्रमा कहा जाता है।

गैलेलीयो द्वारा निरीक्षण के बाद बनाया गया गैलेलीयन चंद्रमाओ का चित्र

गैलेलीयो द्वारा निरीक्षण के बाद बनाया गया गैलेलीयन चंद्रमाओ का चित्र

दूरबीनों के प्रकार

दूरबीनों के कई प्रकार है। दूरबीनो का वर्गीकरण लेंस और दर्पण की व्यवस्था के अनुसार, संवेदी विकिर्ण के अनुसार तथा वातावरण को झेल सकने की क्षमता जैसे कई तरिको से किया जाता है। लेकिन मुख्य रूप से दूरबीनो के तीन मुख्य प्रकार है, इन्ही तीन प्रकारो से सभी आधुनिक संस्करण बने है। ये तीन प्रकार निम्नलिखित है :

अपवर्तक (Refractor) दूरबीन – सबसे पहली निर्मित दूरबीन अपवर्तक दूरबीन थी। अपवर्तक दूरबीन मे एक लेंस के प्रयोग से प्रकाश को ग्रहण और फ़ोकस किया जाता है। इसमे कांच का लेंस दूरबीन के सामने होता है, जब प्रकाश इस लेंस से गुजरता है तब वह अपवर्तन से मुड़ता है। शुरुवाती खगोलशास्त्री इस तरह की दूरबीन का प्रयोग करते है क्योंकि इसका प्रयोग करना आसान है और रखरखाव मे अधिक मेहनत नही है।

 अपवर्तक (Refractor) दूरबीन


अपवर्तक (Refractor) दूरबीन

परावर्ती (Reflector) दूरबीन– परावर्ती दूरबीन मे एक दर्पण से प्रकाश को जमा कर फ़ोकस किया जाता है। सभी खगोलीय पिंड पृथ्वी से इतनी दूर है कि उनसे आने वाली सभी प्रकाश किरणे एक दूसरे के समानांतर होती है। इन समानांतर प्रकाशकिरणो को केंद्रीत करने के लिये पैराबोला के आकार का दर्पण बनाया जाता है। पैराबोला के आकार का दर्पण इन समानांतर प्रकाश किरणो को एक बिंदु पर केंद्रित करता है। सभी आधुनिक शोध दूरबीने और विशाल शौकिया दूरबीने इसी प्रकार की होती है क्योंकि अपने गुणो मे वे अपवर्तक से बेहतर होती है।

परावर्ती (Reflector) दूरबीन-

परावर्ती (Reflector) दूरबीन-

संयुक्त/केटेडीओप्ट्रीक(Compound/Catadioptric) दूरबीन – ये दूरबीन अपवर्ती और परावर्ती दूरबीन का मिश्रण होती है, ये दोनो दूरबीनो के लाभ लेती है।

संयुक्त/केटेडीओप्ट्रीक(Compound/Catadioptric) दूरबीन

संयुक्त/केटेडीओप्ट्रीक(Compound/Catadioptric) दूरबीन

दूरबीनो से संबधित मूलभूत शब्द

वस्तु लेंस(Objective Lens) – दूरबीन के सामने वाला लेंस वस्तु लेंस या प्राथमिक लेंस कहलाता है। यह दूरस्थ पिंड से प्रकाश जमा कर एक बिंदु पर फ़ोकस करता है।

अपर्चर (Aperture) – प्राथमिक दर्पण या लेंस का व्यास अपर्चर कहलाता है। अपर्चर जितना अधिक होगा छवि उतनी चमकदार होगी। एक अच्छे घरेलु दूरबीन का अपर्चन कम से कम 80 mm से 300 mm होना चाहीये। जबकी अरबो डालर के खर्च से बनी विशालकाय शोध दूरबीनो के अपर्चर 10 मिटर तक होते है।

फ़ोकस दूरी(Focal length) – जब प्रकाश किसी दर्पण या लेंस से गुजरता है तो उसे एक समतल सतह पर कुछ दूरी पर एक बिंदु पर केंद्रित किया जाता है। लेंस या दर्पण के केंद्र से इस बिंदु की दूरी को फ़ोकस दूरी कहा जाता है।

दृष्टि लेंस(Eyepiece) –दृष्टि लेंस एक छोटी ट्युब मे लेंस होते है जिससे दूरबीन के द्वारा फ़ोकस की गई छवि को आंखो से देखने मे सहायता करते है। आमतौर पर सभी दूरबीने दो क्षमता वाले लेसो के साथ आती है, कम आवर्धन और स्पष्ट छवि, तथा अधिक आवर्धन लेकिन धुंधली छवि वाले लेंस।

आवर्धन क्षमता(Magnifying Power) – यह दर्शाता है कि दूरबीन पिंड के दृश्य आकार को कितने गुणा अधिक विशाल कर दिखायेगी। इसकी गणना दूरबीन की फ़ोकस दूरी को दृष्टि लेंस की फ़ोकस दूरी से विभाजित कर की जाती है। इसलिये अधिक फ़ोकल दूरी वाले दृष्टि लेंस से आवर्धन कम होगा लेकिन छवि अधिक स्पष्ट और चमकदार होगी।

लेखिका का संदेश

आशा है कि इस लेख से आपको दूरबीनो के बारे मे जानने मे मदद मिली होगी। यदि आपको खगोल शास्त्र मे रुचि है तो आपको किसी दूरबीन से कम से कम एक बार आकाशीय पिंडॊ को देखना चाहीये। यह एक स्वप्निल अनुभव होगा और वह आपकी रुचि इस विषय मे अप्रत्याशित रूप से बढ़ायेगा।

इस शृंखला मे इससे पहले : विद्युत चुंबकीय (EM SPECTRUM) क्या है और वह खगोलभौतिकी (ASTROPHYSICS) मे महत्वपूर्ण उपकरण क्यों है ?

मूल लेख : AN INTRODUCTION TO THE BASIC CONCEPTS OF TELESCOPES

लेखक परिचय

सिमरनप्रीत (Simranpreet Buttar)
संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका भौतिकी मे परास्नातक कर रही है। उनकी रुचि ब्रह्मांड विज्ञान, कंडेस्ड मैटर भौतिकी तथा क्वांटम मेकेनिक्स मे है।

Editor at The Secrets of the Universe, She is a science student pursuing Master’s in Physics from India. Her interests include Cosmology, Condensed Matter Physics and Quantum Mechanics

खगोलीय दूरी मापन : खगोलीय इकाई(AU), प्रकाशवर्ष(Ly) और पारसेक(Parsec)

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लेखक : ऋषभ

मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ लेख शृंखला मे यह चतुर्थ लेख है, और अब हम ब्रह्मांड को विस्तार से जानने के लिये तैयार है। विज्ञान की हर शाखा मे मापन की अपनी इकाईयाँ होती है। दूरी मापन की इकाईयाँ, विज्ञान की हर शाखा मे आवश्यकतानुसार प्रयोग की जाती है। उदाहरण के लिये एक पदार्थ वैज्ञानिक(material scientist ) अधिकतर माइक्रान (10-6m)मे मापन करेगा, वहीं आण्विक भौतिक वैज्ञानिक (atomic physicist) अन्गस्ट्राम (10-10 m) मे, वहीं एक नाभिकिय वैज्ञानिक(nuclear physicist ) फ़र्मी(10-15 m) मे मापन करेगा। हम जानते है कि दूरी मे मापन के लिये मानक SI इकाई मीटर(m) है लेकिन यह इकाई विज्ञान की हर शाखा मे प्रयोग होने के लिये सुविधाजनक नही है। किसी परमाणु के व्यास को मीटर या किलोमीटर मे मापना भद्दा होगा। इस लिये अध्ययन और उपयोग के अनुसार इकाईयों का चयन आवश्यक होता है। तो खगोलशास्त्र मे दूरी मापन के लिये किस इकाई का प्रयोग हो ? इस लेख मे हम खगोलीय इकाई(astronomical unit – AU), प्रकाशवर्ष(light year- ly) और पारसेक(parsec) के बारे मे जानेंगे।

आप इस शृंखला के सारे लेख यहाँ पढ़ सकते है

दूरी मापन और इकाईयाँ

क्वांटम प्रणालीयों कि विपरीत ब्रह्माण्ड अत्यधिक विशाल है। इतना विशाल कि किलोमीटर बहुत छॊटी इकाई है। इसलिये खगोलशास्त्रीयों ने दूरी के मापन के लिये एक नई इकाई प्रणाली बनाई। इस लेख मे हम इस प्रणाली की तीन मुख्य इकाईयों की चर्चा करेंगे जोकि आपको अधिकतर खगोलशास्त्र के लेखों और किताबों मे मिलेंगी। ये तीन इकाईयाँ है, प्रकाश वर्ष , पारसेक और खगोलीय इकाई(Astronomical Unit (AU))। इनका प्रयोग दूरी के मूल्य के अनुसार होता है। सौर मंडल के अंदर ग्रहों के मध्य की दूरी के लिये खगोलीय इकाई का प्रयोग होता है। समीप के तारों की दूरी की चर्चा के लिये प्रकाशवर्ष तथा पारसेक का प्रयोग होता है, जबकि आकाशगंगाओं के मध्य की दूरी के लिये किलोपारसेक और मेगापारसेक का प्रयोग किया जाता है।

खगोलीय इकाई : Astronomical Unit (AU)

खगोलीय इकाई सूर्य और पृथ्वी के मध्य की औसत दूरी को कहते है। इसका मूल्य 149,597,870,700 metres या 15 करोड़ किमी (9.3 करोड़ मील) है।

हम जानते है कि पृथ्वी( या किसी अन्य ग्रह) की सूर्य परिक्रमा की कक्षा पूर्ण वृत्ताकार नही है। यह दिर्घवृत्ताकार(elliptical) है। इसलिये पृथ्वी की सूर्य से दूरी वर्ष भर बदलते रहती है। आरंभ मे खगोलीय इकाई की परिभाषा पृथ्वी की कक्षा की उपप्रधान अक्ष(semi-major axis) के तुल्य मानी गई थी। लेकिन 1976 मे अंतराष्ट्रीय खगोल संस्थान(International Astronomical Union (IAU)) अधिक शुद्धता तथा सुनिश्चतता के लुए इसे परिवर्तित किया। अब खगोलीय इकाई की परिभाषा एक द्रव्यमान रहित(शून्य द्रव्यमान) कण की ऐसी वृताकार कक्षा की त्रिज्या है जिसमे परिक्रमा के लिये लगने वाला समय 365.2568983 दिन या एक गासीयन वर्ष (Gaussian year) हो।

अधिक अचूकता के लिये एक खगोलीय इकाई(AU) वह दूरी है जिसपर हिलियोसेंट्रीक गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक (G*M☉) का मूल्य (0.017 202 093 95)² AU³/d² हो। M☉ = सूर्य का द्रव्यमान ।

खगोलीय इकाई (AU) का महत्व

यह ध्यान मे रखा जाना चाहिये कि गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक (G) तथा सूर्य का द्रव्यमान (M☉) का मूल्य अत्याधिक सटीक रूप से ज्ञात नही है। लेकिन इन दोनो का गुणनफ़ल अधिक सटिकता से ज्ञात है। इसलिये ग्रहीय गति की सारी गणना मुख्य रूप से खगोलीय इकाई और सौर द्रव्यमान (M☉) के प्रयोग से की जाती है। इस तरह से सारे परिणाम गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक पर निर्भर हो जाते है। इन स्थिरांको को मानक SI इकाईयों मे नही बदला जाता है क्योंकि इस परिवर्तन से अशुध्दता आ सकती है।

प्रकाशवर्ष (ly)

जुलियन वर्ष (365.25 दिन) और प्रकाशगति (299,792,458 m/s) के गुणनफ़ल को प्रकाशवर्ष कहा जाता है। यह समय और गति का गुणनफ़ल है, इसलिये यह वह दूरी है जिसे प्रकाश एक जुलियन वर्ष मे तय करता है। प्रकाशवर्ष का मूल्य 9.46 ट्रिलियन किमी या 63,241.077है। प्रकाशवर्ष यह कुछ अन्य इकाई प्रकाश सेकंड, प्रकाश मिनट या प्रकाशघंटा जैसी इकाईयों की मातृ इकाई है। जब हम कहते है कि कोई पिंड “प्रकाश-x” दूरी पर है, उसका अर्थ है कि वह दूरी जिसे तय करने मे प्रकाश x इकाई समय लेगा।

प्रकाश इकाई मे मापन

प्रकाश इकाई मे मापन

प्रकाशवर्ष का महत्व

प्रकाशवर्ष का खगोलशास्त्र मे अत्याधिक प्रओग होता है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह भी है कि जब हम कहते है कि यह पिंड इतने प्रकाशवर्ष दूर है तब हम यह भी जानते है कि हम उस पिंड की कितनी पुरानी छवि देख रहे है। यदि कोई पिंड 4 प्रकाशवर्ष की दूरी पर है, तो इसका अर्थ है कि उस पिंड से उत्सर्जित प्रकाश को हम तक पहुंचने मे 4 वर्ष लगे है। अर्थात हम उसकी 4 वर्ष पुरानी छवि देख रहे है। इसी तरह से सूर्य हमसे 500 प्रकाशसेकंड की दूरी पर है, यदि किसी कारण से सूर्य गायब हो जाये तो हमे 500 सेकंड बाद ही पता चलेगा।

पारसेक -Parsec (pc)

एक पारसेक का मूल्य 3.26 प्रकाशवर्ष है। अब आप सोच रहे होंगे कि प्रकाशवर्ष और पारसेक मे इतना कम अंतर है तो एक अतिरिक्त इकाई की क्या आवश्यकता ? चलिये देखते है।

खगोलशास्त्र मे किसी तारे की दूरी मापन की सबसे प्राचिन विधियों मे से एक पेरेलक्स (parallax) विधि है। इस विधि मे किसी तारे की आकाश मे स्तिथि के दो मापन के मध्य के कोण को मापा मापा जाता है। इसमे पहला मापन पृथ्वी के सूर्य के एक ओर होने पर है दूसरा छः माह बाद पृथ्वी के सूर्य के दूसरी ओर होने पर किया जाता है। इन दो मापनो के मध्य मे पृथ्वी की दोनो स्तिथियों के मध्य दूरी पृथ्वी और सूर्य के मध्य की दूरी का दोगुणा होती है। अब इन दोनो मापनो के मध्य के कोणो का अंतर पेरेलक्स कोण का दोगुणा होता है जोकि सूर्य तथा पृथ्वी से उस तारे तक बनने वाली रेखाओं के मध्य बनता है।

तारे की स्थिति का पृथ्वी की कक्षा मे सूर्य के दो ओर से मापन(पेरेलक्स विधि)

तारे की स्थिति का पृथ्वी की कक्षा मे सूर्य के दो ओर से मापन(पेरेलक्स विधि)

पेरेलक्स का मूल्य उस तारे द्वारा आकाश मे आभासीय गति की कोणीय दूरी का आधा होता है। इस चित्र मे तारे की स्तिथि D से, सूर्य की S से तथा पृथ्वी की स्तिथि E से दिखाई गई है और ये तीनो पिंड समकोण त्रिभूज बना रहे है। इसमे तारे की स्तिथि पृथ्वी की कक्षा के उपप्रधान अक्ष के सम्मुख कोण मे है।

अब हम कोण SDE तथा रेखा SE की दूरी का मूल्य(1 AU) जानते है। इस जानकारी के प्रयोग से त्रिकोणमिती का प्रयोग करते हुये, SD या ED का मूल्य जान सकते है। यदि सम्मुख कोण का मुल्य 1 आर्क सेकंड(arc second) होतो तारे की दूरी 1 पारसेक होगी। अब हम 1 पारसेक को परिभाषित करने की स्तिथि मे है। एक पारसेक अर्थात वह दूरी जिसपर 1 AU का सम्मुख कोण(subtends) 1 आर्कसेकंड हो।

पारसेक(parsec) का महत्व

खगोलभौतिकी मे पारसेक विधि दूरी के निर्धारण मे सबसे बुनियादी कैलीब्रेशन का महत्वपूर्ण चरण रही है। पृथ्वी पर आधारित दूरबीनो द्वारा पेरेलक्स मापन की सीमा 0.01 आर्कसेकंड है, जिससे 100 पारसेक से अधिक दूरी के तारों की दूरी का सटिक मापन इस विधि से संभव नही है। यह सीमा पृथ्वी के वातावरण के तारे की बनने वाली छवि मे आने वाले धुंधलेपन के कारण होती है। लेकिन अंतरिक्ष स्तिथ दूरबीनो के सामने यह सीमा नही होती है। अंतरिक्ष मे अत्याधिक दूरी के पिंडॊ की दूरी के मापन के लिये पारसेक, किलोपारसेक तथा मेगापारसेक का प्रयोग होता है।

इस शृंखला मे इससे पहले : दूरबीनो की कार्यप्रणाली का परिचय

लेखक का संदेश

मुझे आशा है कि मूलभूत खगोलभौतिकी लेख शृंखका के चौथे लेख ने आपको खगोलशास्त्र मे दूरी मापन की इकाईयों खगोलीय इकाई, प्रकाशवर्ष तथा पारसेक की के बारे मे आवश्यक जानकारी दे दी होगी। यह खगोलशास्त्र के अध्ययन मे एक बुनियादी लेख है। आने वाले लेखों मे हम इन इकाईयों का धड़ल्ले से प्रयोग करेंगे। इसलिये इस लेख का महत्व स्पष्ट हो जाता है। आशा है कि आप इन लेखों का आनंद ले रहे होंगे। इस विषय पर यदि आप कोई पुस्तक पढ़ना चाहते है तो हम बैद्यनाथ बसु(Baiydanaath Basu) की पुस्तक “Basics of Astrophysics” की सलाह देंगे जोकि अमेजन पर उपलब्ध है। यह सरल भाषा मे इस विषय की बुनियादी जानकारी को समेटे हुये लिखी पुस्तक है। आप इस पुस्तक का भरपूर आनंद उठायेंगे।

मूल लेख : THE CONCEPT OF ASTRONOMICAL UNIT, LIGHT YEAR AND PARSEC

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe (https://secretsofuniverse.in/) के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

 

लालविचलन(Redshift) के तीन प्रकार और उनका खगोलभौतिकी मे महत्व

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लेखक : ऋषभ

इस शृंखला के दूसरे लेख मे हमने देखा कि किस तरह से किसी खगोलभौतिक वैज्ञानिक के लिये विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम(Electromagnetic Spectrum) ब्रह्माण्ड के रहस्यो को समझने के लिये एक महत्वपूर्ण और उपयोगी उपकरण है। किसी भी खगोलीय पिंड के वर्णक्रम से हम बहुत सी बहुतसी महत्वपूर्ण जानकारी निकाल सकते है। उदाहरण के लिये यदि हम किसी तारे के वर्णक्रम का अध्ययन कर हम उसके तापमान, सतह पर गुरुत्वाकर्षण, तत्वों की उपलब्धता, घनत्व, विकास का चरण और इस जैसी अनेक जानकारी प्राप्त कर सकते है। स्पेक्ट्रोस्कोपी तकनीक हमे उस पिंड के आकाशगंगा मे विचरण के बारे मे भी जानकारी देती है। मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’  शृंखला के पांचवे लेख मे हम तीन तरह के लाल विचलन(Redshifts) और उनके खगोल विज्ञान मे महत्व को समझेंगे।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

तरंगदैर्ध्य और आवृत्ति (Wavelength And Frequency)

हम विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम को देख चुके है उसे भलीभांति समझते है। किसी प्रकाश के स्रोत को लिजिये। वह सूर्य हो सकता है या आपके टेबललैंप का बल्ब। इस प्रकाश का एक विशिष्ट रंग है। प्रकाश के हर रंग के साथ तीन चीजे जुड़ी है, तरंगदैर्ध्य, आवृत्ति तथा ऊर्जा।

सबसे पहले हम तरंगदैर्ध्य तथा आवृत्ति को समझते है। प्रकाश को नीचे दिये गये चित्र से समझीये:

तरंगदैर्ध्य और आवृत्ति (Wavelength And Frequency)

तरंगदैर्ध्य और आवृत्ति (Wavelength And Frequency)

लाल रेखा के उपर का भाग शीर्ष (crests)तथा नीचे का भाग गर्त (troughs) कहलाता है। किसी तरंग के दो लगातार शीर्ष के मध्य की क्षैतिज दूरी तरंगदैर्ध्य (Wavelength) कहलाती है। किसी शीर्ष या गर्त की अधिकतम लंब दूरी तरंग का आयाम(amplitude ) कहलाती है। एक शिर्ष तथा उससे लगा हुआ गर्त मिलकर एक तरंग चक्र(wave-cycle) बनाते है। किसी तरंग की आवृत्ति एक सेकंड मे बनने वाली तरंग (wave-cycle) की संख्या को कहते है। उदाहरण के लिये यदि हम चित्र मे दिखाई गई तीन भिन्न तरंग (एक उपर और उसके नीचे की दो तरंग) को देखे तो हम कह सकते है कि

  1. पहली तरंग का तरंगदैर्ध्य सबसे अधिक है क्योंकि उसके दो लगातार शीर्ष या गर्त के मध्य अधिकतम क्षैतिज दूरी है।
  2. तीसरी तरंग की आवृत्ति सर्वाधिक है क्योंकि एक सेकंड मे सर्वाधिक तरंगचक्र बन रहे है।
  3. तरंगदैर्ध्य जितनी अधिक होगी आवृत्ति उतनी कम होगी। तरंगदैर्ध्य तथा आवृत्ति विलोमानुपात (inverse) मे होते है।

 

हम विद्युतचुंबकीय वर्णक्रम के दृश्य भाग को देखते है। दृश्य प्रकाश का तरंगदैर्ध्य 400 nm (1 nm = 10-9 m) से 800 nm के मध्य होता है। 400 nm पर बैंगनी रंग तथा 800 nm पर लाल रंग होता है।

लाल विचलन क्या है (What Is Redshift)?

मान लिजिये की स्रोत किसी मोनोक्रोमेटीक स्रोत के जैसे एक विशिष्ट रंग के प्रकाश का एक विशिष्ट आवृत्ति पर उत्सर्जन करता है। इसका अर्थ यह नही है कि निरीक्षण की गई तरंगदैर्ध्य उत्सर्जित की गई तरंगदैर्ध्य के समान हो। यदि निरीक्षण की गई तरंगदैर्ध्य अधिक हो तो उसे लाल विचलन कहते है, यदि वह कम हो तो वह नीला विचलन(Blueshift) कहलाता है।

मध्य वाले वर्णक्रम मे कोई विचलन नही है। जबकि उपर वाले वर्णक्रम मे गहरी अवशोषण रेखाये लाल रंग की ओर विचलित हुई है और निचले वर्णक्रम मे नीले रंग की ओर

मध्य वाले वर्णक्रम मे कोई विचलन नही है। जबकि उपर वाले वर्णक्रम मे गहरी अवशोषण रेखाये लाल रंग की ओर विचलित हुई है और निचले वर्णक्रम मे नीले रंग की ओर

उपर दिये गये चित्र मे मध्य का वर्णक्रम प्रकाश स्रोत द्वारा वास्तविक रूप से उत्सर्जित है। यदि हम उपर के वर्णक्रम मे गहरी अवशोषण रेखाओं (dark absorption lines) को देखें तो हम पायेगे कि इनसे संबधित रेखाये लाल रंग की ओर विचलीत हो गई है। जबकि नीचले वर्णक्रम मे वह नीले रंग की ओर विचलीत हुई है। यह प्रभाव भले ही दृश्यप्रकाश से संबधित ना हो, तरंगदैर्ध्य मे बढोत्तरी/कमी हमेशा लाल/निला विचलन कहलाती है। लाल/नीला विचलन कई खगोलभौतिकीय प्रक्रियाओं से उत्पन्न होता है। खगोल भौतिकी मे लाल विचलन को z से दर्शाया जाता है। इसका साधारण समीकरण : 1+z = निरीक्षित तरंगदैर्ध्य /वास्तविक तरंगदैर्ध्य । z का धनात्मक मूल्य लालविचलन और ऋणात्मक मूल्य नीला विचलन दर्शाता है।

लाल विचलन की व्याख्या

आप सोच रहे होंगे कि इस विचलन मे मानक संदर्भ(standard reference) क्या है ? हम लाल विचलन को ज्ञात करने के लिये किस संदर्भ वर्णक्रम से तुलना कर रहे है ? यह एक अच्छा और महत्वपूर्ण प्रश्न है। हर तत्व का अपना हस्ताक्षर वर्णक्रम होता है। ब्रह्मांड मे सर्वाधिक पाया जाने वाला तत्व हायड्रोजन है। इसलिये यदि हम किसी दूरस्थ आकाशगंगा के हायड्रोजन वर्णक्रम को देखते है और यदि उस वर्णक्रम की रेखाये हमारी प्रयोगशाला के वर्णक्रम से मेल खाती है तो इसका अर्थ है कि लाल विचलन नही हओ। लेकिन यदि ये रेखाये लाल रंग की ओर एक निश्चित दूरी पर है तब उसमे लालविचलन है और वह स्रोत हमसे दूर जा रहा है।

लाल विचलन

लाल विचलन

अब हम तीन प्रकार के लाल विचलन को देखते है और उसके खगोलभौतिकी मे महत्व को समझते है।

लालविचलन के प्रकार (Types of Redshifts)

1. सापेक्षीय लाल विचलन (Relativistic Redshift) या डाप्लर प्रभाव (Doppler Effect)

हम सभी ध्वनि तरंगो मे डाप्लर प्रभाव से परिचित है। यदि ध्वनि स्रोत हमारी ओर आ रहा है तो उसकी आवृत्ति बढ़ती है, जबकी दूर जाने पर वह घटती है। खगोलभौतिकी मे भी डाप्लर प्रभाव समान है लेकिन यह प्रकाश से संबधित है। ब्रहांड मे हर पिंड सापेक्षिय गति कर रहा है। तारे और आकाशगंगाये एक दुसरे के सापेक्ष गतिमान है। यदि किसी तारे/आकाशगंगा के वर्णक्रम मे लाल विचलन है, इसका अर्थ है कि वह हम से दूर जा रहा है। सापेक्षिय डाप्लर प्रभाव के सूत्र से हम उस तारे या आकाशगंगा के हमसे दूर जाने की गति की गणना कर सकते है। जब हमने अपनी पड़ोसी आकाशगंगा देव्यानी(एंड्रोमीडा) के वर्णक्रम को देखा तो पाया कि उसमे नीलाविचलन है। यह आकाशगंगा हमारी आकाशगंगा मंदाकीनी(milky way) की ओर 140 किमी/घंटा की गति से आ रही है। अगले पांच अरब वर्ष पश्चात ये दोनो आकाशगंगा एक दूसरे मे विलिन होकर एक बड़ी आकाशगंगा बनायेंगी।

2. गुरुत्विय लाल विचलन (Gravitational Redshift)

इसतरह का लाल विचलन साधारण सापेक्षतावाद का परिणाम है। गुरुत्विय लाल विचलन के अनुसार जब फ़ोटान कम गुरुत्विय विभव वाले क्षेत्र से उच्च विभव वाले क्षेत्र मे यात्रा करता है तो उसकी ऊर्जा मे कमी होती है। यदि कोई तारा अपनी सतह एक विशिष्ट तरंगदैर्ध्य वाले प्रकाश का उत्सर्जन करता है और हम उस तारे के वर्णक्रम का उसकी सतह से दूर अध्ययन करते है तो उसमे लाल विचलन मिलेगा। उस तारे के गुरुत्वाकर्षण से बच निकलने के प्रयास मे उस फोटान की ऊर्जा कम हुई है जिसका अर्थ है तरंगदैर्ध्य मे बढ़ोत्तरी। समझ मे नही आया ? इसे किसी बच्चे द्वारा सीढीयों को चढ़ने से थकने के जैसा मान लिजिये। ध्यान दिजिये कि फ़ोटान की ऊर्जा कम हो रही है, उसकी आवृत्ति भी कम होगी लेकिन तरंगदैर्ध्य बढ़ेगी।

गुरुत्विय लाल विचलन की मात्रा, उस पिंड के घनत्व पर निर्भर है। घने पिंड जैसे श्वेत वामन(white dwarfs) तथा न्युट्रान तारों मे सामान्य तारों जैसे सूर्य की तुलना मे अधिक लाल विचलन होता है। ब्लैक होल(श्याम विवर) का गुरुत्विय लाल विचलन अनंत(infinite) होता है। इस तरह का लालविचलन दर्शाता है कि फोटान का द्रव्यमान होता है जोकि स्थिर द्रव्यमान (rest mass) नही है, बल्कि गुरुत्विय द्रव्यमान(gravitational mass)। यह आइंस्टाइन के साधारण सापेक्षतावाद सिद्धांत(Einstein’s General Relativity)का एक शास्त्रीय प्रायोगिक प्रमाण है।

गुरुत्विय लाल विचलन (Gravitational Redshift)

गुरुत्विय लाल विचलन (Gravitational Redshift)

3. ब्रह्मांडीय लाल विचलन( Cosmological Redshift)

ब्रह्मांडीय लाल विचलन वास्तविकता मे अंतरिक्ष के सतत विस्तार का परिणाम है। 1920 एडवीन हब्बल ने पाया था कि जो आकाशगंगा सूदूर अंतरिक्ष मे हमसे जितनी दूर है उतनी तेजी से हम से दूर जा रही है। इसे हब्बल का नियम कहते है। यह एक निरीक्षण किया हुआ नियम है और ब्रह्मांड के सतत विस्तार को प्रमाणित करता है। अंतरिक्ष अपने आप मे अपना विस्तार कर रहा है। यह एक तथ्य है कि दूरस्थ आकाशगंगाओं के वर्णक्रम ने ही हमे ब्रह्मांड के सतत विस्तार का प्रमाण दिया है, इस वर्णक्रम मे अत्याधिक लाल विचलन पाया गया है।

लेकिन हमे यह ध्यान रखना चाहिये कि स्थानीय डाप्लर लाल विचलन और ब्रह्मांडीय लाल विचलन मे अंतर है। दो आकाशगंगाओ मे मध्य सापेक्ष गति से ब्रह्मांडीय लाल विचलन उत्पन्न नही होगा। फोटान मे लाल विचलन उनके द्वारा सतत विस्तार कर रहे खगोलीय काल-अंतराल मे यात्रा से उत्पन्न हो रहा है। इस सतत विस्तार से दो एक दूसरे से दूर जा रही आकाशगंगाये प्रकाशगति से भी तेज एक दूसरे से दूर हो सकती है। लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि वे विशेष सापेक्षतावाद(special relativity) का उल्लंघन कर रही है।

संक्षेप मे

लाल विचलन के तीन प्रकार

लाल विचलन के तीन प्रकार

इस शृंखला मे पहले : खगोलीय दूरी मापन : खगोलीय इकाई(AU), प्रकाशवर्ष(Ly) और पारसेक(Parsec)

लेखक का संदेश

आशा है कि इस लेख ने तीन तरह के लाल विचलन के मध्य अंतर स्पष्ट कर दिया होगा। सभी खगोलभौतिक वैज्ञानिक बनने वाले के लिये मेरा एक संदेश है, खगोलभौतिकी फ़ैंसी विज्ञान जैसे समय यात्रा, श्वेत विवर(white holes), वर्महोल या ब्लैक होल से यात्रा जैसा ही नही है। वास्तविक चित्र काफ़ी भिन्न है। खगोलभौतिकी एक ऐसा विषय है जिसमे आप ब्रह्मांड की किसी विशेष गतिविधि/प्रक्रिया को समझने के लिये भौतिकी के नियमो का प्रयोग करते है। यदि आप एक खगोल वैज्ञानिक बनना चाहते है तो सबसे पहले आप भौतिकी और गणित पर ध्यान केंद्रित किजिये। इस क्षेत्र मे सफ़लता के लिये स्पेक्ट्रोस्कोपी(Spectroscopy), विद्युतगतिकी(Electrodynamics), सांख्यकिय यांत्रिकी( Statistical Mechanics), सापेक्षतावाद(Theory of Relativity), प्रकाशिकी(Optics) तथा क्वांटम यात्रीकी (Quantum Mechanics) महत्वपूर्ण है। गगनचुंबी इमारत की नींव मजबूत होनी चाहीये।

मूल लेख : THREE TYPES OF REDSHIFTS & THEIR IMPORTANCE IN ASTROPHYSICS.

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe (https://secretsofuniverse.in/) के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

 

ब्लैक होल का चित्र मानव इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक क्यों है?

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लेखक : डॉ मेहेर वान

ब्लैक होल की प्रथम तस्वीर - अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने 10 अप्रैल २०१९ को ब्लैकहोल की पहली तस्वीर जारी की। आकाशगंगा एम87 में 53.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष दूर मौजूद इस विशालकाय ब्लैक होल की तस्वीर जारी की गई है। वैज्ञानिकों ने ब्रसल्ज, शंघाई, तोक्यो, वॉशिंगटन, सैंटियागो और ताइपे में एकसाथ प्रेस वार्ता की और जिस दौरान इस तस्वीर को जारी किया गया।

ब्लैक होल की प्रथम तस्वीर – अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने 10 अप्रैल २०१९ को ब्लैकहोल की पहली तस्वीर जारी की। आकाशगंगा एम87 में 53.5 मिलियन प्रकाश-वर्ष दूर मौजूद इस विशालकाय ब्लैक होल की तस्वीर जारी की गई है। वैज्ञानिकों ने ब्रसल्ज, शंघाई, तोक्यो, वॉशिंगटन, सैंटियागो और ताइपे में एकसाथ प्रेस वार्ता की और जिस दौरान इस तस्वीर को जारी किया गया।

10 अप्रैल 2019 को जब “इवेंट होराइजन टेलेस्कोप” की टीम ने पहली बार ब्लैक होल का सच्चा चित्र प्रस्तुत किया तो पूरी दुनियाँ वैज्ञानिकों की इस उपलब्धि पर जोश ख़ुशी से झूम उठी। जिन्हें यह मालूम था कि कुछ ही समय में ब्लैक होल की सच्ची छवि दुनियाँ के सामने पेश की जाने वाली है वह बड़ी बेसब्री से वैज्ञानिकों की प्रेस कोंफ्रेंस का इंतज़ार कर रहे थे। ब्लैक होल की यह छवि कई कारणों से महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण थी। इस प्रयोग में आइन्स्टीन की “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” दांव पर लगी थी, साथ ही वह वैज्ञानिक ज्ञान भी दांव पर लगा था जो पिछले कई दशकों में ब्लैक होल से बारे में अर्जित किया गया था। ब्लैक होल की यह छवि जनता के सामने लाने से पहले वैज्ञानिकों ने लम्बे समय तक यह सुनिश्चित किया था कि उनके प्रयोगों और प्रक्रिया में कोई कमी तो नहीं रह गई। इस प्रक्रिया में पूरी दुनियां के वैज्ञानिक कई दशकों से लगे हुए थे। अतः जब वैज्ञानिक अपने प्रयोग और प्रक्रिया की सत्यता और त्रुटिहीनता के बारे सुनिश्चित हो गए तब यह छवि छः स्थानों पर प्रेस कोंफ्रेंस करके पूरी दुनिया के समक्ष प्रस्तुत की गई, ताकि प्रक्रिया में शामिल सभी वैज्ञानिकों और देशों को सफलता का पूरा क्रेडिट मिले। पूरी दुनियां की मीडिया ने इस घटना को प्रमुख खबर बनाया, क्योंकि यह मानव इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है।

लेकिन भारतीय मीडिया वैज्ञानिकों की इस महान उपलब्धि को समझ नहीं पाया। हाल ही में एक खबर सत्याग्रह/स्क्रोल  (दिनांक- 21 अप्रैल, 2019) की वेबसाईट पर (विज्ञान कहता है कि ब्लैक होल का कोई फोटो नहीं लिया जा सकता, तो फिर यह क्या है?)–  पर प्रकाशित की गई जिसमें ब्लैक होल की छवि वाली घटना को इस प्रकार पेश किया गया जैसे कि यह कोई वैज्ञानिक घोटाला हुआ हो। यह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि निंदनीय है और भारतीय मीडिया की छवि ख़राब करने वाला है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि आँखें बंद करके ‘रात हो गई-रात हो गई’ चिल्लाने से सूरज की रौशनी ख़त्म नहीं हो जाती, लेकिन बेवकूफी ज़रूर जगजाहिर होती है।

यह मानव इतिहास की महानतम घटना क्यों है?

सन 1784 में अंग्रेज खगोलविद ‘जॉन मिशेल’ ने एक ऐसे तारे की परिकल्पना की जो कि इतना भारी और अधिक घनत्व वाला था कि अगर प्रकाश भी उसके करीब जाए तो वह इस तारे के चंगुल से बाहर नहीं आ सकता। यहाँ प्रकाश का उदाहरण इसलिए दिया जाता है कि प्रकाश का स्थायित्व में द्रव्यमान शून्य और गतिमान अवस्था में अत्यधिक सूक्ष्म होता है। प्रकाश से हल्की वस्तु की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके बाद आइन्स्टीन ने 1915 में “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” की स्थापना की जिसका इस्तेमाल आज खगोलशास्त्र से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान तक के तमाम विषयों को समझने में और उनका विश्लेषण करने में होता है। अनगिनत प्रयोगों और गणनाओं में आइन्स्टीन की “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” अब तक सही और सटीक साबित होती रही है। “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” आने के कुछ हो महीनों बाद वैज्ञानिक कार्ल स्वार्जचाइल्ड ने आइन्स्टीन के समीकरणों को हल करके कुछ नए निष्कर्ष निकाले। इन्हीं निष्कर्षों में ब्लैक होल के केंद्र से एक ऐसी दूरी का मान निकलता है जिसके अन्दर आइन्स्टीन के समीकरण काम नहीं करते। इसे वैज्ञानिक भाषा में सिंगुलारटी कहते हैं। बाद में इस दूरी को ‘स्वार्जचाइल्ड त्रिज्या’ कहा गया और इससे जो वृत्त बना उसे “इवेंट होराइजन” कहा गया। ऐसी गणनाएं की गईं कि ब्लैक होल ‘स्वार्जचाइल्ड त्रिज्या’ के तीन गुना दूरी से पदार्थ को और ‘स्वार्जचाइल्ड त्रिज्या’ की डेढ़ गुना दूरी से प्रकाश को अपनी और खींचकर निगल जाता है। इसके बाद पिछली सदी में सैद्धांतिक स्तर पर ब्लैक होल के बारे में बहुत साड़ी गणनाए की गईं जिनका मूल आधार आइन्स्टीन के समीकरण थे। चूँकि आइन्स्टीन से वह समीकरण खगोलविज्ञान और अन्तरिक्ष विज्ञान से लेकर विज्ञान की अन्य शाखों में इस्तेमाल हो रहे थे और सटीक साबित हो रहे थे इसलिए वैज्ञानिकों में उत्सुकता थी कि अगर उन्हें ‘इवेंट होराइजन’ नहीं दिखा तो आइन्स्टीन की “जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी” असफल हो जायेगी और पूरी भौतिकी में भूचाल आएगा। यह सब अब तक गणनाओं के स्तर पर ही था, इसलिए यहाँ एक सधे हुए सटीक प्रयोग की आवश्यकता थी जिसमें कुछ ठोस प्रमाण मिलें।

इस समस्या से निबटने के लिए विश्व भर के वैज्ञानिकों ने एक संगठन बनाया और एक साथ काम करने का निर्णय लिया।

इस वैज्ञानिक समस्या का विशालकाय होना

ब्लैक होल की छवि लेना की वैज्ञानिक समस्या कोई साधारण समस्या नहीं थी। इसमें कई ऊंचे स्तर की रुकावटें थीं, जिन्हें बिन्दुवार समझना चाहिए-

  1. ब्लैक होल की प्रकृति:

    वैज्ञानिक “इवेंट होराजन” देखना चाह रहे थे। इवेंट होराइजन वह जगह है जहां तक ब्लैक होल के आसपास प्रकाश पहुँच सकता है और ब्लैक होल द्वारा खींच नहीं लिया जाता। इस प्रकार यह प्रकाश ब्लैक होल को बाहर से एक तरह से ऐसे ढँक लेता है जैसे ब्लैक होल ने प्रकाश के कपडे पहन लिए हों। हालांकि ब्लैक होल को नहीं देखा जा सकता मगर इसके चारों और फैले प्रकाश की उन किरणों को देखा जा सकता है जो बस इवेंट होराइजन को छूकर निकल जाती हैं। अतः यह तय था कि ब्लैक होल को देखना संभव नहीं है मगर इवेंट होराइजन में प्रकाश से लिपटे हुए ब्लैक होल को देखना संभव है। इवेंट होराइजन के साथ ब्लैक होल की फोटो लेने का काम आसान नहीं था। इवेंट होराइजन में लिपटी प्रकाश किरणों को भी अपने टेलेस्कोप्स में समेट पाना आसान नहीं होता जिसे हम आगे समझेंगे।

  2.  ब्लैक होल की आकाश में स्थिति:

    सबसे पहले तो यह तय कर पाना आसान नहीं है कि ब्लैक होल कहाँ है? चूँकि यह प्रकाश को दबोच लेता है और हम किसी भी चीज को तब देख पाते हैं जब वह वस्तु प्रकाश को या तो उत्सर्जित करती है या परावर्तित करती है। ब्लैक होल की स्थिति जानने में ही वैज्ञानिकों को कई दशक लगे। अनेकों विशालकाय टेलेस्कोपों की सहायता से अनगिनत वैज्ञानिक पूरे आकाश की निगरानी रखते हैं। कई वर्षों तक एक गैलेक्सी में कई तारों का अध्ययन करने के बाद उन्हें पता चला कि वे तमाम तारे किसी ख़ास केंद्र बिंदु के चारों और चक्कर लगा रहे हैं जो कि चमकीला नहीं है। यह गैलेक्सी M87 थी। इसके तारे विशालकाय हैं। इतने भारी तारे खुद से कई गुना भारी पिंड के चारों और ही चक्कर लगा सकते हैं और वैज्ञानिकों ने गणना की कि यह ब्लैक होल होना चाहिए। इस तरह लम्बी और थकाऊ गणनाओं के बाद ब्लैक होल की संभव स्थिति पता चली।

  3. पृथ्वी से दूरी:

    गणनाओं और प्रयोगों के आधार पर यह पाया गया कि यह ब्लैक होल पृथ्वी से 5.5 करोड़ प्रकाशवर्ष दूर है। इस बात का मतलब यह है कि यह ब्लैक होल M87 गैलेक्सी में धरती से इतना दूर है कि प्रकाश को इससे धरती तक आने में 5.5 करोड़ वर्ष लग जाते हैं। इसका एक मतलब यह भी है हमने जिस प्रकाश के साथ इसकी छवि खींची है वह प्रकाश इस ब्लैकहोल से 5.5 करोड़ साल पहले चला था। मतलब जो छवि हमारे पास है वह इस ब्लैक होल की 5.5 करोड़ साल पुरानी फोटो है। यह तो हम सब जानते हैं कि दूर होते जाने पर वस्तुएं छोटी दिखाई देने लगती हैं। इसी प्रकार से यह ब्लैक होल भी पृथ्वी से बहुत दूर होने के कारण बहुत छोटा दिखाई दे रहा था। वैज्ञानिकों ने गणना की कि धरती से यह इतना छोटा दिखाई देता कि इसे देखने के लिए घरती के आकार के बराबर के दूरदर्शी की ज़रुरत पड़ती। धरती के आकार के बराबर का दूरदर्शी बना पाना मानव के हाथ से बाहर की बला है। वैज्ञानिक कई सालों तक यह सोचकर परेशान रहे की कि कैसे इस कठिनाई से पार पाया जाए। फिर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह बात सही है कि हम पृथ्वी के आकार का दूरदर्शी नहीं बना सकते लेकिन पूरी पृथ्वी पर जगह जगह लगे टेलेस्कोपों को एकजुट करके पृथ्वी के आकार का एक आभासी टेलेस्कोप बनाया जा सकता है। खगोल विज्ञान में यह तकनीक नयी नहीं है। भारत में ही गैलेक्सियों को देखने के लिए लगा GMRT यानी जाइंट मीटरवेव रेडियो टेलेस्कोप पूना के पास लगभग 25 किमी में फैला है, जिसमे छोटे छोटे कई टेलेस्कोप लगे हैं और उन सब टेलेस्कोपों को मिलाकर एक विशालकाय 25 किमी लम्बा टेलेस्कोप बनता है जो अन्तरिक्ष में दूरदूर तक फैले छोटे छोटे दिखने वाले पिंडों की फोटो खींचने में मदद करता है। इसमें कई टेलेस्कोपों से ली गई छवियों को एकसाथ मिलकर एक फोटो बनाई जाती है। यह एक पुरानी और पूरी तरह से स्थापित तकनीक है। हालांकि धरती जितने आभासी टेलेस्कोप के लिए कुछ अन्य तकनीकी कठिनाइयां थी जिन्हें दूर किया गया।

  4. टेलेस्कोप का डिजाइन:

    दुनिया के तमाम देशों के वैज्ञानिकों ने मिलकर दुनिया भर में फैले कई टेलेस्कोपों का एक समूह बनाया और उन्हें एक साथ सिंक्रोनाइज़ किया। एक और समस्या यह थी कि पृथ्वी तेज रफ़्तार से अपनी अक्ष पर घूमती है इसलिए छवियों में इस घूर्णन का प्रभाव भी ख़त्म करना था। इसके लिए वैज्ञानिकों ने कुछ दशक तक गणनाएं कीं ताकि प्रयोगों से त्रुटियों को हटाया जा सके। ख़ास समयों पर दुनियां भर के कई टेलेस्कोपों ने उस ख़ास बिंदु की फ़ोटोज़ लीं जहाँ ब्लैक होल होने की गणनाएं हुई थी। इस तरह कई हज़ार टेराबाईट का डेटा उत्पन्न हुआ। अब इस भारीभरकम डेटा को एक साथ मिलाकर देखने की बारी थी। इस डेटा को मिलाने का काम मैसच्यूसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी की कंप्यूटर साइंस की पीएचडी की छात्रा केटी बौमन ने किया। इसके लिए उन्हें एक अल्गोरिदम बनानी पड़ी। इस प्रक्रिया में वैज्ञानिकों में बहुत ख़ास ख्याल रखा कि वह कुछ ऐसी चीज़ न देख लें जो वह देखना चाह रहे थे बल्कि वह देखें जो कि वहां उपस्थित था। लम्बे संघर्ष के बाद जब वैज्ञानिक इस बात को लेकर तय हो गए कि सारे टेलेस्कोपों की मदद से ब्लैक होल रिंग ही बन सकती है तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।

 

इसके अलावा तमाम तकनीकी और वैगानिक चुनैतिया वैज्ञानिको के समक्ष थीं जिन्हें आम जनता को समझाना बहुत मुश्किल है।

इस फोटो में एक प्रकाशिक अंगूठीनुमा आकार में काला केंद्र छुपा हुआ है। यह ठीक वैसे ही है जिसकी गणनाये वैज्ञानिक एक सदी से भी अधिक समय से कर रहे थे। इस छवि में साफ़ देखा जा सकता है कि प्रकाशिक इवेंट होराइजन में अंधकारमय ब्लैक होल छुपा हुआ है। हालांकि इस प्रक्रिया में तमाम बड़ी वैज्ञानिक रुकावटें थीं और ब्लैक होल की छवि उतारना असंभव माना जाता रहा लेकिन वैज्ञानिकों ने चतुराई से यह कर दिखाया। दुनिया भरके विद्वान इसे मानव जाति की सर्वकालिक सबसे बड़ी उपलब्धियों में गिन रहे हैं। विज्ञान का सर्वकालिक काम असंभव लगने वाली बात को संभव बनाना ही तो है। और चुनौती जितनी बड़ी हो जीत उतनी ही बड़ी मानी जाती है। अंततः: यह ब्लैक होल की पहली छवि है समय आने पर बेहतर छवियाँ भी हम मानव खींच पायेंगे ऐसा विश्वास है।

मूल लेख : https://a-timetraveller.blogspot.com/2012/12/2012_4579.html

लेखक का परिचय

डाक्टर मेहर वान IIT खड़गपुर के एडवांशड टेक्नालाजी सेंटर मे कार्यरत है।

वेबसाईट : https://meherwan.com/

 

स्टीफ़न का नियम और उसका खगोलभौतिकी मे महत्व

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लेखक : ऋषभ

इस लेख मे हम भौतिकी के एक बहुत ही महत्वपूर्ण नियम की चर्चा कर रहे है जो कि बहुत ही सरल है इसके खगोलभौतिकी मे बहुत से प्रयोग है। यह बहुत लोकप्रिय नियम नही है और हम मे से बहुत इसके महत्व को समझ पाने मे असफ़ल रहते है। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के छठे लेख मे हम स्टीफ़न के नियम और उसका खगोलभौतिकी मे महत्व को जानेंगे।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

स्टीफ़न के नियम का गणितिय रूप

स्टीफ़न के नियम का अर्थ सरल है। स्टेफॉन वोल्‍ज़मान नियमानुसार इकाई समय में सभी तरंगदैर्घ्य परास में कृष्णिका(ब्लैकबाडी )द्वारा प्रति इकाई पृष्ठिय क्षेत्रफल द्वारा विकरित कुल ऊर्जा कृष्णिका के ऊष्मगतिकीय ताप के चतुर्थ घात के अनुक्रमानुपाती होता है। सरल शब्दो मे किसी ब्लैकबाडी (black body) की सतह के प्रति इकाई क्षेत्रफ़ल द्वारा सभी तरंगदैर्ध्य पर उत्सर्जित विकिरण की कुल ऊर्जा उसके तापमान के चतुर्घात के अनुपात मे होती है।

 स्टेफॉन वोल्‍ज़मान सूत्र

स्टेफॉन वोल्‍ज़मान सूत्र

L = तारे की दीप्ति (luminosity)। वास्तविकता मे दीप्ति किसी तारे द्वारा कुल उत्पन्न का माप है। इस नियम को स्टेफॉन वोल्‍ज़मान नियम भी कहते है।

हमारा उद्देश्य इस नियम के पीछे के बुनियादी सिद्धांत को समझना है, इसलिये हम खाली स्लेट से शुरुवात करते है।

एक कृष्णिका या ब्लैकबाडी क्या है ?

एक ऐसी वस्तु जो अपने पृष्ठ पर आपतित सभी तरंगदैध्यो के विकिरणो का पूर्ण:  अवशोषण और पुन: पूर्ण  उत्सर्जन कर देती है उसे कृष्णिका कहते है। भौतिक विज्ञान में कृष्णिका पदार्थ की एक आदर्शीकृत अवस्था है, जो अपने ऊपर पड़ने वाले सभी विद्युत चुम्बकीय विकिरण अवशोषित कर लेता है। कृष्णिका एक विशेष और सतत वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) में विकिरण को अवशोषित और गर्म होने पर फिर से उत्सर्जित करते हैं। सामान्यत: प्रकाश का एक अच्छा अवशोषक प्रकाश का एक अच्छा उत्सर्जक भी होता है इसलिये एक आदर्श अवशोषक को एक आदर्श विकिरण उत्सर्जक भी होना चाहीये। लेकिन साथ मे एक आदर्शअवशोषक द्वारा प्रकाश का परावर्तन भी नही होगा इसलिये वह काला दिखाई देगा, जिससे उन्हे कृष्णिका(ब्लैक बाडी) कहते है।

लेकिन सूर्य को कृष्णिका (ब्लैक बाडी) क्यों कहते है ? सूर्य की कोई ठोस सतह नही है। इसलिये सूर्य पर जो भी विकिरण आपतीत होता है पूरी तरह से समाप्त होने तक बिखरते(scattered) और अवशोषित होते रहता है। यह प्रक्रिया सूर्य को एक आदर्श अवशोषक बनाती है। लेकिन सूर्य एक आदर्श विकिरक(emitter) नही है। यह उसके वर्णक्रम से स्पष्ट है।

संतरे रंग की रेखा आदर्श कृष्णिका को दर्शाती है, जबकि लाल रेखा सूर्य के वर्णक्रम को दर्शाती है। सूर्य के वर्णक्रम मे आदर्श कृष्णिका के वर्णक्रम से कई विचलन है। सूर्य को एक आदर्श कृष्णिका के समीप माना जाता है।

सूर्य का तापमान

इस नियम का प्रतिपादन जोसेफ़ स्टीफ़न(Josef Stefan) ने 1879 मे किया था। उनसे पहले एक अन्य वैज्ञानिक जे सोरेट (J. Soret) ने एक खूबसूरत प्रयोग किया था जिसमे उन्होने एक पतली प्लेट को 2000K तापमान तक गर्म किया था। उसके बाद उन्होने इस प्लेट को इतनी दूरी पर रखा कि उसका सम्मुख कोण और सूर्य का सम्मूख कोण (subtended angle)समान था। इस प्रयोग से उन्होने पाया कि सूर्य से उत्सर्जित ऊर्जा इस पतली प्लेट से विकिरित ऊर्जा के घनत्व(energy flux density) से 29 गुणा अधिक है। स्टीफ़न ने इन आंकड़ो का प्रयोग किया और उसके आगे गये। उन्होने एक और कारक को जोड़ा। उन्होने अनुमान लगाया कि सूर्य से उत्सर्जित ऊर्जा का एक तिहाई भाग वातावरण द्वारा अवशोषण कर लिया जाता है। इसलिये सूर्य द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा का घनत्व पतली प्लेट से 29 गुणा अधिक नही, बल्कि 29×3/2 गुणा अधिक है अर्थात 43.5 गुणा अधिक है।

अब उन्होने इस मूल्य को अपने सूत्र(उपरोक्त) मे डाला। अर्थात सूर्य द्वारा विकिरित ऊर्जा पतली प्लेट द्वारा विकिरित ऊर्जा से 43.5 गुणा अधिक है। इसका अर्थ यह है कि सूर्य का तापमान पतली प्लेट के तापमान के 43.5 गुणा का चतुर्थमूल होगा। यह सरल गणित है, उपरोक्त सूत्र मे मूल्य रखीये। अब (43.5)1/4 =2.57 अर्थात सूर्य का तापमान पतली प्लेट के तापमान का 2.57 गुणा होगा। 2000K x 2.57 =5700K। यह एक अप्रत्याशित परिणाम था। यह सूर्य के तापमान से केवल 1.3% ही दूर था, जोकि 5778K है। स्टीफ़न ने माना था कि पृथ्वी का वातावरण सूर्य की ऊर्जा का एक तिहाई अवशोषित कर लेता है, यह अनुमान भी सही पाया गया। सूर्य की सतह के तापमान की गणना का यह पहला प्रयास था और मानवता के इतिहास मे यह एक मील का पत्थर था।

स्टीफ़न के नियम का खगोलभौतिकी मे महत्व

अब तक यह स्पष्ट हो गया होगा कि स्टीफ़न का नियम खगोलभौतिकी मे महत्वपूर्ण क्यो है। आखीर हमने इसके प्रयोग से सूर्य का तापमान ज्ञात किया था। लेकिन इसकी सीमा सूर्य के तापमान तक ही नही है, इसके द्वारा अन्य तारों के तापमान और आकार की गणना की जा सकती है।

लेखक का संदेश

अब हम धीमे धीमे खगोलभौतिकी मे गहरा गोता लगाने जा रहे है। इस लेख का उद्देश्य किसी तारे की दीप्ती और उसके प्रभावी तापमान के मध्य के संबध की जानकारी देना था। अगले कुछ लेखों मे हम तारों का अध्ययन करेंगे। तारकीय खगोलभौतिकी(Stellar Astrophysics) एक महत्वपूर्ण तथा बड़े पैमाने पर अध्ययन किया जानेवाला विषय है। इस विषय मे करीयर बनाने के लिये भौतिकी मे मजबूत पकड़ चाहीये। इस लेख मे हमने केवल सतह को छुआ है। हमे आशा है कि आप इस लेख शृंखला का आनंद ले रहे है।

मूल लेख : THE STEFAN’S LAW AND ITS IMPORTANCE IN ASTROPHYSICS.

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.


खगोलीय निर्देशांक प्रणाली(CELESTIAL COORDINATE SYSTEMS)

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लेखिका:  सिमरनप्रीत (Simranpreet Buttar)

यदि आप कहीं जा रहे हों तो वहाँ पहुंचने के लिये आपके लिये क्या जानना सबसे महत्वपूर्ण क्या होगा ? उस स्थल का पता! खगोलभौतिकी मे हमे किसी भी पिंड की जानकारी ज्ञात करने के लिये, उस पिंड पर अपने उपकरणो को फ़ोकस करने के लिये हमे उस पिंड की स्थिति की जानकारी चाहीये। पृथ्वी पर किसी भी जगह की स्थिति जानने के निये हमे दो भौगोलिक निर्देशांक चाहीये होते है, जिन्हे हम अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) निर्देशांक (coordinates)कहते है। अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) निर्देशांक से हम पृथ्वी की सतह पर के किसी भी स्थल तक पहुंच सकते है। लेकिन यदि हमे गहन अंतरिक्ष मे किसी पिंड की स्तिथी जाननी हो तो ? इसके लिये हमे खगोलिय निर्देशांक प्रणाली(celestial coordinate) चाहीये।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

पृथ्वी पर हम अक्षांश और देशांतर से हम शहर, कस्बा और पर्वत जैसे स्थलो को खोज लेते है। इसी तरह से अंतरिक्ष मे किसी पिंड को खोजने के लिये खगोलिय निर्देशांक प्रणाली प्रयुक्त होती है। खगोलीय निर्देशांक प्रणाली खगोलशास्त्र और खगोलभौतिकी मे कई स्थानो पर प्रयोग की जाती है। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के सांतवे लेख मे हम भिन्न खगोलीय निर्देशांक प्रणालीयों के बारे मे जानेंगे।

खगोलीय गोला(Celestial Sphere) क्या है ?

खगोलीय निर्देशांक प्रणाली को समझने से पहले हमे खगोलीय गोला(Celestial Sphere) समझना होगा। जब भी हम उपर अंतरिक्ष मे देखते है तो सारे खगोलीय पिंड किसी विशालकाय काल्पनिक गोले की आंतरिक सतह पर दिखाई देते है, इस काल्पनिक गोले के केंद्र मे हम होते है। यह किसी प्लेनेटेरियम के डोम की छत पर चिपके कृत्रिम तारों के जैसे ही दिखाई देता है। यह विशाल काल्पनिक गोला ही खगोलीय गोला है।

खगोलीय गोला(Celestial Sphere)

खगोलीय गोला(Celestial Sphere)

अब आप निरीक्षक के उपर और नीचे की दिशा मे एक सीधी रेखा खींचे। यह रेखा इस खगोलीय गोले से दो बिंदुओं पर मिलेगी। निरीक्षक के सर के उपर वाला बिंदु शिरोबिंदु(Zenith) तथा नीचे वाला बिंदु अधोबिंदु(Nadir) कहलाता है। शिरोबिंदु और अधोबिंदु को जोड़ने वाली रेखा पर लंबवत प्रतल खगोलीय गोले को एक वृत्त के रूप मे काटता है, यह महाकाय वृत्त खगोलीय क्षितिज( Celestial horizon)कहलाता है)

विस्तृत खगोलीय गोला(Celestial Sphere)

विस्तृत खगोलीय गोला(Celestial Sphere)

अब निरीक्षक को पार करती हुई पृथ्वी के घूर्णन अक्ष(rotational axis) के समांतर एक रेखा खींचीये, यह रेखा भी खगोलीय गोले से दो बिंदुओं पर मिलेगी। क्षितिज के उपर वाला कटाव बिंदु उत्तरी खगोलीय बिंदु(North Celestial point) तथा नीचे वाला दक्षिणी खगोलीय बिंदु कहलाता है। दोनो बिंदुओ को अपने ध्रुव पर समाविष्ट करने वला महा वृत्त खगोलीय विषुवत(celestial equator) कहलाता है। पृथ्वी के विषुवत का प्रतल(plane) तथा खगोलीय विषुवत का प्रतल समान है। शिरोबिंदु, अधोबिंदु तथा खगोलीय ध्रुवों से गुजरने वाला महाकाय वृत्त मध्याह्न(Meridian) वृत्त कहलाता है।

संपूर्ण वर्ष मे सूर्य के आभासी पथ के द्वारा बनने वाला महाकाय वृत्त क्रांतिवृत्त(ecliptic) कहलाता है। क्रांतिवृत्त विषुवत को दो बिंदुओ पर काटता है जिसे विषुव बिंदु(equinoctial) कहते है। जब सूर्य उत्तर से दक्षिण की ओर जाते हुये विषुवत को जिस बिंदु पर काटता है उसे मेष की प्रथम बिंदु(First Point of Aries) कहते है। विषुवत को काटने वाला दूसर बिंदु तुला का प्रथम बिंदु (First point of Libra)कहते है।

तीन भिन्न खगोलीय निर्देशांक प्रणालीयाँ

अब हम तीन भिन्न निर्देशांक प्रणाली समझने की स्थिति मे हैं।

क्षैतिज निर्देशांक प्रणाली(उन्नतांश तथा दिगंश (Altitude and Azimuth))

मान लिजिये शिरोबिंदु Z है तथा A किसी तारे की स्तिथि है। अब यदि हम एक वृत्त ZAX बनाये तब खगोलीय गोले मे इस तारे की स्थिति को हम चाप(arc) NX, चाप ZA या चाप ZA तथा कोण NZA से परिभाषित कर सकते है। महा वृत्त ZAX का चाप AX उस तारे की क्षितिज से कोणीय दूरी(angular distance) दिखा रहा है जिसे हम उन्नतांश((Altitude) कहते है। चाप ZA उस तारे की शिरोबिंदु दूरी (Zenith distance) है। चाप NX जो उत्तरी बिंदु और तारे को समाये हुये महावृत के नीचे है, या कोण NZA जो कि मध्याह्न(Meridian) तथा मह वृत्त के मध्य है, तारे का दिगंश(Azimuth) कहलाता है। इसे उत्तरी बिंदु से पूर्व की ओर या पश्चिम की ओर मापा जाता है।

क्षैतिज निर्देशांक प्रणाली(उन्नतांश तथा दिगंश (Altitude and Azimuth))

क्षैतिज निर्देशांक प्रणाली(उन्नतांश तथा दिगंश (Altitude and Azimuth))

विषुवतीय प्रणाली(दायाँ आरोहण तथा दिक्पात (Right Ascension and Declination))

यदि हम तारे को पार करते हुये एक महावृत्त PAM बनाये तो उस तारे की स्तिथि को हम चाप PA, कोण QPA या चाप QM या कोण QPA से परिभाषित कर सकते है। चाप PA को तारे का उत्तरी ध्रुव दूरी कहते है, साथ मे चाप AM से उस तारे की विषुवत से कोणीय दूरी मिलती है जिसे उस तारे का दिक्पात(Declination) कहते है।

दिक्पात(Declination) का मूल्य धनात्मक या ऋणात्मक हो सकता है जो कि क्रमश: उस तारे विषुवत के उत्तर या दक्षिण पर होने पर निर्भर है। महावृत्त PAM उस तारे का दिक्पात(Declination) वृत्त कहलाता है। उस तारे का दायाँ आरोहण(R.A.) विषुवत चाप YM है जोकि मेष के प्रथम बिंदु तथा दिक्पात वृत्त के अधोबिंदु पर है।
मेष का प्रथम बिंदु की दैनिक गति और तारे की दैनिक गति समान होती है, इसलिये दैनिक गति मे तारे का RA और दिक्पात परिवर्तित नही होता है।

विषुवतीय प्रणाली(दायाँ आरोहण तथा दिक्पात (Right Ascension and Declination))

विषुवतीय प्रणाली(दायाँ आरोहण तथा दिक्पात (Right Ascension and Declination))

क्रांतिवृत्त प्रणाली (खगोलीय अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) निर्देशांक)

यदि क्रांतिवृत्त के ध्रुव और तारे के द्वारा महावृत्त बनाया जाये तो उस तारे की क्रांतिवृत्त से इस महावृत्त के साथ मापी जाने वाली कोणीय दूरी उस तारे का खगोलीय अक्षांश होगी। क्रांतिवृत्त पर मेष के प्रथम बिंदु और महावृत्त के अधोबिंदु के मध्य के चाप को खगोलीय देशांतर (longitude) निर्देशांक कहते है। दैनिक गति के दौरान किसी तारे का खगोलीय अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) परिवर्तित नही होता है। किसी तारे का खगोलीय अक्षांश तारे की विषुवत के उत्तर मे या दक्षिण मे होने के आधार पर धनात्मक या ऋणात्मक हो सकता है। जबकि देशांतर शून्य से 360 डीग्री के मध्य हो सकता है, यह मापन पूर्व की ओर होता है।

क्रांतिवृत्त प्रणाली (खगोलीय अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) निर्देशांक

क्रांतिवृत्त प्रणाली (खगोलीय अक्षांश(latitude) और देशांतर (longitude) निर्देशांक

लेखिका का संदेश

आशा है कि इस लेख ने खगोलीय निर्देशांक के बारे मे मूलभूत जानकारी उपलब्ध कराई होगी। यह लेख समझने मे थोड़ा कठीन हो सकता है लेकिन खगोलशास्त्र के लिये अत्यावश्यक है।

मूल लेख : THE THREE TYPES OF CELESTIAL COORDINATE SYSTEMS.

इस शृंखला मे इससे पहले : स्टीफ़न का नियम और उसका खगोलभौतिकी मे महत्व

लेखक परिचय

सिमरनप्रीत (Simranpreet Buttar)
संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका भौतिकी मे परास्नातक कर रही है। उनकी रुचि ब्रह्मांड विज्ञान, कंडेस्ड मैटर भौतिकी तथा क्वांटम मेकेनिक्स मे है।

Editor at The Secrets of the Universe, She is a science student pursuing Master’s in Physics from India. Her interests include Cosmology, Condensed Matter Physics and Quantum Mechanics

खगोलभौतिकी मे परिमाण (MAGNITUDE) की अवधारणा

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लेखक : ऋषभ

जब हम आकाश मे देखते है तो हम भिन्न आकाशीय पिंडो को देखते है। इनमे से कुछ(सूर्य और चंद्रमा) अत्याधिक चमकदार है जबकि कुछ अन्य(धुंधले तारे, निहारिका) नग्न आंखो से मुश्किल से ही दिखाई देते है। किसी पिंड की चमक बहुत से कारको पर निर्भर होती है। किसी पिंड से दूरी निश्चय ही एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन किसी पिंड की चमक मे उस के द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा की मात्रा का सबसे बड़ा योगदान होता है। इसका अर्थ यह है कि पिंडो को उनकी चमक के आधार पर वर्गीकरण की भी कोई अवधारणा अवश्य होगी। ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के आंठवे लेख मे हम परिमाण(MAGNITUDE) की अवधारणा को जानेंगे।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

आगे बढ़ने से पहले हम इस तथ्य पर जोर डालना चाहेंगे कि परिमाण(MAGNITUDE) की अवधारणा महत्वपूर्ण है, यह ना केवल खगोलभौतिक विज्ञानियों के लिये महत्वपूर्ण है, साथ ही यह आकाश मे नजरे गढ़ाये रखने वाले शौकीया खगोलशास्त्रीयों के लिये भी महत्वपूर्ण है। इस लेख मे हम खगोलशास्त्रीयों द्वारा प्रयुक्त परिंमाणो को जानेंगे ?

खगोलभौतिकी मे परिमाण(Magnitude) क्या है?

सामान्यत: परिमाण का अर्थ किसी चीज का संख्यात्मक मूल्य होता है। उदाहरण के लिये यदि हम 40 किमी/घंटा पूर्व की ओर गति की को लेते है। यह एक सदिश मूल्य है, इसमे परिमाण और दिशा दोनो है। गति का परिमाण 40 है और दिशा पूर्व की ओर है। लेकिन खगोलभौतिकी मे परिमाण की अवधारणा गति जैसी सदिश राशीयो से भिन्न है। खगोलभौतिकी मे परिमाण का अर्थ है किसी पिंड द्वारा संपूर्ण विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम मे कुल उत्सर्जित ऊर्जा का मूल्य। सरल शब्दो मे परिमाण का अर्थ किसी पिंड की चमक या दीप्ती होता है।

परिमाण के प्रकार

खगोल भौतिकी मे तीन मुख्य प्रकार के परिमाण होते है। हर प्रकार का अपना प्रयोग और महत्व है।

आभासी परिमाण/सापेक्ष कांतिमान (Apparent Magnitude)

किसी पिंड का सापेक्ष कांतिमान पृथ्वी से किसी पिंड की दिखाई देने वाली चमक/दीप्ती/कांति को परिभाषित करने वाली संख्या है, इसकी कोई इकाई नही है। सापेक्ष कान्तिमान को मापने के लिए यह शर्त होती है कि आकाश में कोई बादल, धूल, वगैरा न हो और वह वस्तु साफ़ देखी जा सके। इस अवधारणा को समझने के लिये हमे इतिहास मे झांकना होगा और इसकी जड़ो को खोजना होगा।

खगोलशास्त्री विलियम हर्शेल( William Herschel)

खगोलशास्त्री विलियम हर्शेल( William Herschel)

ईसा पूर्व दूसरी सदी मे हिप्पारकस(Hipparchus) ने तारों का उनकी चमक के आधार पर वर्गीकरण किया और उन्होने 1000 तारों को छः वर्गो मे बांटा। इसके वर्ग 1 मे सबसे चमकीले तारे थे, वर्ग 2 मे वर्ग एक से कम चमकीले तारे थे, और इस तरह चमक के घटते क्रम मे वर्ग छः मे सबसे धूंधले तारे थे। ईसा के बाद दूसरी सदी मे टालेमी(Ptolemy) मे इसी आधार पर तारों का अपना स्वयं का वर्गीकरण किया। 1830 मे खगोलशास्त्री विलियम हर्शेल( William Herschel) ने पाया कि वर्ग 1 के तारे वर्ग 6 के तारों से 100 गुणा अधिक दीप्ती रखते है। 1856 मे एन आर पोगसन(N R Pogson) ने तारों की दीप्ती को मापने के लिये एक नया पैमाना बनाया जिसमे दो क्रमिक वर्ग के मध्य दीप्ती का अनुपार समान था।

इसका निश्कर्ष यह निकला कि प्रथम परिमाण वाले तारे द्वितिय परिमाण वाले तारों से 2.5 गुणा अधिक चमकदार है और यही अनुपात अगले क्रमिक वर्गो मे है। इस तरह से छठा वर्ग प्रथम वर्ग से 100 गुणा कम चमकदार है। 100 का पांचवा मूल 2.5 है। गणितिय रूप से यदि B(m) तथा B(n) दो तारों की दीप्ती है जिनका परिमाण m तथा n ( n>m ) है तो

B(m)/B(n) = (2.5) n-m

यह समीकरण एक महतपूर्ण तथ्य बताता है। इस समीकरण के अनुसार अधिक चमकदार पिंड का परिमाण उतना ही कम होगा। इसका अर्थ है कि -4 परिमाण वाले पिंड की दीप्ती +2 परिमाण वाले पिंड से अधिक होगी।
उदाहरण

सूर्य का निरपेक्ष कांतिमान(आभासी परिमाण) -26.74 है और रात्रि आकाश मे सबसे अधिक चमकदार तारे का-1.74। अब इस समीकरण के अनुसार सूर्य रात्रि आकाश के सबसे अधिक चमकदार तारे(लुब्धक/सीरीअस) से 10 अरब गुणा अधिक दीप्तीमान है। निम्न चित्र इस अवधारणा को स्पष्ट करती है।

मानव आंखो
से दृष्य
सापेक्ष कांतिमान वेगा( Vega) के सापेक्ष दीप्ती सापेक्ष कांतिमान
से अधिक चमक वाले
तारों की संख्या
हाँ −1.0 251% 1 (Sirius)
0.0 100% 4
1.0 40% 15
2.0 16% 48
3.0 6.3% 171
4.0 2.5% 513
5.0 1.0% 1602
6.0 0.4% 4800
6.5 0.25% 9100[3]
नही 7.0 0.16% 14000
8.0 0.063% 42000
9.0 0.025% 121000
10.0 0.010% 340000

 

निरपेक्ष परिमाण(कांतिमान)/Absolute Magnitude

आभासी परिमाण/सापेक्ष कांतिमान उस पिंड की अपनी चमक या उस पिंड द्वारा प्रतिसेकंड उत्सर्जित कुल ऊर्जा पर निर्भर है। इसके अतिरिक्त यह उस पिंड की दूरी पर भी निर्भर करता है। लेकिन खगोलीय पैमाने पर दूरी मे अत्याधिक परिवर्तन होता है जिससे किसी खगोलीय पिंड का निरपेक्ष परिमाण उस पिंड की वास्तविक चमक या दीप्ती नही दर्शाता है। उदाहरण के लिये सूर्य और लाल महादानव तारे बीटलगुज को लेते है। सूर्य का निरपेक्ष कांतिमान -26.74 है जबकि बीटलगुज का +0.50। इसका अर्थ यह है कि उपरोक्त सूत्र के अनुसार सूर्य को बीटलगुज से 69 अरब गुणा अधिक चमकदार होना चाहीये। जबकि वास्तविकता यह है कि बीटलगुज सूर्य से 100,000 गुणा अधिक चमकदार है। इसलिये दीप्ती मापन के लिये एक नई पद्धिति निरपेक्ष परिमाण/कांतिमान(Absolute Magnitude) की आवश्यता महसूस हुई। निरपेक्ष कांतिमान किसी खगोलीय वस्तु के अपने चमकीलेपन को कहते हैं।

निरपेक्ष कांतिमान की अवधारणा मे हम खगोलीय पिंड की दूरी को एक मानक दूरी पर स्थिर कर देते है। यह चूनी हुई दूरी 10 पारसेक(32.6 प्रकाशवर्ष) है। किसी तारे के निरपेक्ष कांतिमान की बात हो रही हो तो यह देखा जाता है कि यदि देखने वाला उस तारे के ठीक 10 पारसैक की दूरी पर होता तो वह कितना चमकीला लगता। हम भिन्न खगोलीय पिंडो को इस दूरी पर रख कर उनकी दीप्ती के मध्य तुलना करते है।

गणितिय रूप से यदि m किसी पिंड का सापेक्ष कांतिमान है ,M उसका निरपेक्ष कांतिमान है तथा उसकी पृथ्वी से दूरी d हो तो,

m – M = 5 log (d) – 5

अवश्य पढ़े: खगोलीय दूरी मापन : खगोलीय इकाई(AU), प्रकाशवर्ष(Ly) और पारसेक(Parsec)

परिमाण m – M केवल दूरी पर निर्भर करता है इसलिये इसे दूरी माप(distance modulus) माप कहलाता है। यह सूत्र किसी पिंड के निरपेक्ष कांतिमान, सापेक्ष कांतिमान और हम से दूरी के मध्य के संबध को दर्शाता है।

अधिकतर तारों का निरपेक्ष कांतिमान -20 से + 10 के मध्य होता है। सूर्य का निरपेक्ष कांतिमान +4.8 है जो उसे तारों की जनसंख्या मे एक औसत तारा बनाता है।

फोटोग्राफ़िक परिमाण(Photovisual Magnitude)

जब हम तारों को आंखो से देखते है तब उसका परिमाण दृश्य परिमाण होता है। लेकिन हमारी आंखो का दृष्टिपटल विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के एक बड़े भाग को महसूस नही कर पाता है। लेकिन एक तारे का चित्र हम अलग अलग फ़िल्टर लगा कर ले सकते है और इस तरह से प्राप्त परिमाण को हम फोटोग्राफ़िक परिमाण कहते है।

बोलोमेट्रीक परिमाण(Bolometric Magnitude)

अब तक हमने जितने भी परिमाणो की चर्चा की है वे खगोलीय वर्णक्रम के एक चुनिंदा भाग पर ही निर्भर करते है। किसी पिंड की दीप्ती को यदि विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम के समस्त पट्टे पर मापा जाये तो प्राप्त परिमाण बोलोमेट्रीक परिमाण कहलाता है।

लेकिन हमारे पास कोई ऐसा अकेला उपकरण नही है जो खगोलीय वर्णक्रम के सभी भागो के लिये संवेदी हो जिससे किसी अन्य परिमाण को बोलोमेट्रीक परिमाण मे रूपांतरित करने कुछ सुधार करने होते है। विशेष रूप से बोलोमेट्रीक परिमाण और फोटोग्राफ़िक परिमाण के मध्य का अंतर बोलोमेंट्रीक सुधार (Bolometric correction (BC)) कहलाता है।

सूर्य का बोलोमेट्रिक सुधार -0.11 है (यह हमेशा ऋणात्मक होगा)। इस परिमाण का महत्व इस उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। ग्वाला तारामंडल(Boötes constellation) मे एक महाकाय नारंगी स्वाति(Arcturus) तारा है। यह तारा सूर्य से 110 गुणा अधिक चमकदार है लेकिन अवरक्त(infrared) वर्णक्रम मे यह सूर्य से 180 गुणा अधिक चमकदार है। इसलिये स्वाति तारे का कुल (बोलोमेट्रीक) ऊर्जा उत्पादन उसके आभासी ऊर्जा उत्पादन से कहीं अधिक है।

लेखक का संदेश

सबसे पहले मै सभी पाठक को इस शृंखला के लिये दीये जा रहे उत्साहजनक प्रतिसाद के लिये धन्यवाद देता हुं। हमारी टीम की मेहनत के प्रतिफ़ल से हम खुश है। अब हम खगोलभौतिकी की अवधारणाओं मे गहरा गोता लगाने जा रहे है। अब तक हम इस क्षेत्र के मूलभूत उपकरणो और अवधारणाओं की जानकारी प्राप्त की है। खगोलभौतीकी मे परिमाण की अवधारणा समझना महत्वपूर्ण है। इसके बाद हम आने वाले लेखो मे तारकीय खगोलभौतिकी (Stellar Astrophysics) की यात्रा आरंभ करेंगे। यह एक खूबसूरत विषय है। अब हम देखेंगे कि तारो का जन्म कैसे होता है, उनका जीवन चक्र क्या होता है, उनकी संरचना कैसी होती है और उनकी मृत्यु किसी श्वेत वामन तारे, न्युट्रान तारे या ब्लैक होल के रूप मे कैसे होती है। इस लेख शृंखला से जुड़े रहीये, इस शृंखला मे बहुत कुछ बाकि है।

इस शृंखला मे इससे पहले : खगोलीय निर्देशांक प्रणाली(CELESTIAL COORDINATE SYSTEMS)
मूल लेख : UNDERSTANDING THE CONCEPT OF MAGNITUDE IN ASTROPHYSICS

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

तारों का वर्णक्रम के आधार पर वर्गीकरण (SPECTRAL CLASSIFICATION)

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लेखक : ऋषभ

यह लेख ’मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला मे नंवा लेख है और अब तक की यात्रा रोचक रही है। हमने एक सरल प्रश्न से आरंभ किया था कि खगोलभौतिकी क्या है? इसके पश्चात हमने इस क्षेत्र मे प्रयुक्त होने आधारभूत उपकरणो और तकनीकी शब्दो, दूरी की इकाईयों, खगोलीय निर्देशांक प्रणाली, परिमाण(magnitud) की अवधारणा, विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम का महत्व तथा लाल विचलन(redshifts) के प्रकारों को समझा। अब हम इस विषय की गहराईयों के गोता लगाने के लिये तैयार है और अब हम समझेंगे कि ब्रह्मांड कैसे कार्य करता है। इस लेख मे हम तारकीय खगोलभौतिकी(Stellar Astrophysics) की यात्रा आरंभ करेंगे जो कि खगोलशास्त्र मे सबसे ज्यादा अध्ययन कीया जाने वाला विषय है। इस नवम लेख मे हम समझेंगे कि ब्रह्मांड के अरबो खरबो तारों को हम केवल सात वर्गो मे समेट लेते है, अर्थात तारों का वर्गीकरण कैसे होता है।

इस शृंखला के सभी लेखों को आप इस लिंक पर पढ़ सकते है।

यूरोपीयन अंतरिक्ष संस्थान (European Space Agency (ESA)) के अनुसार ब्रह्मांड मे लगभग 1 ट्रिलियन ट्रिलियन(1024) तारे है। यह एक ऐसी संख्या है जिसका मानव की तकनीकी क्षमता मे बढ़ोत्तरी और गहन अंतरिक्ष मे अन्वेषण के साथ बढ़ना तय है। लेकिन क्या हमारे पास इन ब्रह्माण्ड के इन तारों के वर्गीकरण की कोई प्रणाली है ? इसका उत्तर है हाँ मे है! मार्गन कीनन वर्ग्रीकरण प्रणाली(The Morgan Keenan Classification System) जो कि पुरानी वर्गीकरण प्रणाली हार्वर्ड प्रणाली(Harvard System) तथा येर्कीस प्रणाली(Yerkes System) का संगम है। इन प्रणालीयों को विस्तार से देखते है।

तारों का वर्णक्रम के आधार पर वर्गीकरण

हार्वर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification System)

हार्वर्ड वर्गीकरण प्रणाली एक विमा वाली वर्गीकरण प्रणाली है जिसमे तारों को सात मुख्य वर्गो मे वर्णक्रम के आधार पर रखा जाता है। यह वर्गीकरण तारे की सतह के तापमान पर आधारित है। इसके सात वर्ग सात अल्फ़ाबेट से निर्देशित होते है जो कि उष्ण से शीतलता की ओर है, O, B, A, F, G, K तथा M। O वर्ग का तारा उष्णतम होता है जिसकी सतह का तापमान लगभग 50,000 K होता है जबकि एक M वर्ग का तारा शीतलतम होता है जिसकी सतह का तापमान केवल2,500 K होता है। इन तारो का रंग भी उनके सतह के तापमान के अनुसार होता है जोकि नीचे दिये चित्र मे दर्शाया गया है।

हार्वर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification System)

हार्वर्ड वर्गीकरण प्रणाली(Harvard Classification System)

इस वर्गीकरण को याद रखने का सबसे आसान उपाय नीचे दिया गया सूत्र है।

Oh Boy, A Funny Girl Kicked Me.

इस वर्गीकरण मे हर वर्ग से संबधित तापमान सीमाये नीचे दी है।

  • O: ≥ 30,000 K
  • B: 10,000–30,000 K
  • A: 7,500–10,000 K
  • F: 6,000–7,500 K
  • G: 5,200–6,000 K
  • K: 3,700-5200 K
  • M: 2,400–3,700 K

 

वर्ग प्रभावी तापमान औपचारिक रंग आभासी रंग मुख्य अनुक्रम द्रव्यमान
(सौर द्रव्यमान)
मुख्य अनुक्रम्र त्रिज्या(सौर त्रिज्या) मुख्य अनुक्रम दीप्ती(बोलोमेट्रीक) हाइड्रोजन रेखायें मुख्य अनुक्रम का अनुपात]
O ≥ 30,000 K नीला नीला ≥ 16 M ≥ 6.6 R ≥ 30,000 L कमजोर ~0.00003%
B 10,000–30,000 K नीला श्वेत गहरा नीला श्वेत 2.1–16 M 1.8–6.6 R 25–30,000 L मध्यम 0.13%
A 7,500–10,000 K श्वेत नीला श्वेत 1.4–2.1 M 1.4–1.8 R 5–25 L मजबूत 0.6%
F 6,000–7,500 K पीला श्वेत श्वेत 1.04–1.4 M 1.15–1.4 R 1.5–5 L मध्यम 3%
G 5,200–6,000 K पीला पीलापन लिये श्वेत 0.8–1.04 M 0.96–1.15 R 0.6–1.5 L कमजोर 7.6%
K 3,700–5,200 K हल्का संतरा हल्का पीला संतरा 0.45–0.8 M 0.7–0.96 R 0.08–0.6 L बहुत कमजोर 12.1%
M 2,400–3,700 K संतरा लाल हल्का संतरा लाल 0.08–0.45 M ≤ 0.7 R ≤ 0.08 L बहुत कमजोर 76.45%

अब इन मुख्य वर्गो के अंदर दस उपवर्ग है जिन्हे 0-9 से निर्देशित किया जाता है। इसमे भी छोटी संख्या अधिक तापमान को दर्शाती है। इसलिये K0 वर्ग का तारा K7 तारे से उष्ण होता है। खगोलशास्त्र मे औपचारिक रंहो का प्रयोग परम्परागत है और ये रंग A वर्ग के तारों के रंग के सापेक्ष होते है जिसे श्वेत माना जाता है। इन आभासी रंग का निर्धारण का आधार किसी निरीक्षक द्वारा गहरे आकाश मे नंगी आंखो से तारे के निरीक्षण मे दिखाई देने वाले रंग पर है।

येरकिस वर्गीकरण प्रणाली(Yerkes Classification System)

किसी तारे को उसकी सतह के तापमान के आधार पर एक अल्फ़ाबेट वर्ग दे देना काफ़ी नही है। तारे विभिन्न आकारों मे आते है और वे अपने जीवन के विभिन्न चरणो मे होते है। इसमे मुख्य अनुक्रम(Main Sequences) के तारे होते है जो अब भी अपने केंद्रक मे हाईड्रोजन के संलयन से हिलियम का निर्माण कर रहे होते है और दूसरी ओर श्वेत वामन होते है जिनका जीवन समाप्त हो चुका होता है। इसलिये हमे इनके वर्गीकरण के लिये एक और कारक चाहीये होता है, यह कारक है उनकी दीप्ती।

खगोलभौतिकी मे दीप्ती का अर्थ प्रति सेकंड कुल ऊर्जा का उत्पादन होता है। घने तारे जिनकी अधिक सतह पर अधिक गुरुत्वाकर्षण होता है, उनके वर्णक्रम मे की गहरी रेखाये गुरुत्विय दबाव मे अधिक फ़ैली होती है। किसी महाकाय तारे की सतह पर श्वेत वामन तारे की तुलना मे गुरुत्वाकर्षण कम होता है जिससे उत्पन्न दबाव भी कम होता है। ऐसा इसलिये कि समान द्रव्यमान वाले महाकाय(giant) तारे की त्रिज्या वामन(dwarf) तारे से अधिक होती है। इसलिये वर्णक्रम मे अंतर को दीप्ती के प्रभाव को माना जा सकता है और तारे को उसके वर्णक्रम के विश्लेषण के आधार पर एक दीप्ती वर्ग(luminosity class) दिया जा सकता है। दीप्ती वर्ग(luminosity class) और उसका विवरण नीचे दिया है :

  • 0 or Ia(+): अतिमहादानव (hypergiants) या अत्याधिक चमकीले महाकाय तारे(super giants)
  • Ia: दीप्तीमान महादानव(supergiants)
  • Iab: मध्यम आकार वाले दीप्तीमान महादानव(intermediate-size luminous supergiants)
  • Ib: निम्न दीप्तीमान महादानव(less luminous supergiants)
  • II: दीप्तीमान दानव( giants)
  • III: सामान्य दानव( giants)
  • IV: अर्धदानव(subgiants)
  • V: मुख्य अनुक्रम(Main Sequence)
  • sd: अर्धवामन(sub-dwarfs)
  • D: श्वेत वामन

यह वर्गीकरण तारे के वर्णक्रम के आधार पर है। इस शृंखला के दूसरे लेख मे हमने कहा था कि

“किसी खगोलवैज्ञानिक के हाथो मे ब्रह्मांड के रहस्यो को अनावृत्त करने के लिये विद्युत चुंबकीय वर्णक्रम सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है।”

अब आप इस वाक्य को प्रयोग मे देख सकते है ।

मार्गन कीनन वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण(Morgan Keenan Spectral Classification of Stars)

यह वर्गीकरण हार्वर्ड प्रणाली और येरेकेस दीप्ती वर्गीकरण प्रणाली का समिश्रण है और मार्गन कीनन वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण वर्तमान मे सबसे अधिक प्रयुक्त प्रणाली है। इसमे हर तारे को उसकी सतह के तापमान के आधार पर वर्णक्रम वर्ग (spectral class) तथा उसकी दीप्ती(सतह के गुरुत्वाकर्षण) के आधार पर दीप्ती वर्ग(luminosity class) दिया जाता है। हमारा सूर्य इस वर्गीकरण के आधार G2V वर्ग का है। इसकी सतह का तापमान 5,900 K (G वर्ग) तथा यह वर्तमान मे हायड्रोजन के संलयन से हिलियम बना रहा है अर्थात मुख्य अनुक्रम (V) का तारा है। मार्गन कीनन से ब्रह्माण्ड के सभी तारो को एक ही चित्र मे समेटा जा सकता है जिसे हर्टजस्प्रंग रस्सेल(Hertzsprung Russell) चित्र कहते है।

हर्टजस्प्रंग रस्सेल(Hertzsprung Russell)

हर्टजस्प्रंग रस्सेल(Hertzsprung Russell)

लेखक का संदेश

तारों का वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण और हर्टजस्प्रंग रस्सेल(Hertzsprung Russell) चित्र तारकीय खगोलभौतीकी(Stellar Astrophysics) की आधारभूत अवधारणा है। तारों की समस्त कहानी इन्ही दो अवधारणाओं के आसपास घूमती है। यह लेख तारकीय खगोलभौतिकी को समझने मे काफ़ी महत्वपूर्ण है। वर्तमान मे खगोलभौतिकी के नाम पर अधिकतर लोग वर्महोल से यात्रा, ब्लैक होल, श्वेत विवर(white hole), समय यात्रा , श्याम पदार्थ(dark matter) की ही बात करते है। लेकिन वास्तविकता मे, खगोलभौतिकी इन सब विषयो से बहुत अधिक है। इस शृंखला को लिखने का यदि मुख्य उद्देश्य है। हम चाहते है कि आप इस क्षेत्र के इन गहरे विषयों को समझे, उन सिद्धांतो को समझे जिनके बारे मे अधिकतर लोग चर्चा नही करना चाहते है। हम अपने युवा मित्रो को बताते है कि यदि आपको खगोलभौतिक वैज्ञानिक बनना है तो आपको स्पेक्ट्रोस्कोपी(Spectroscopy), विद्युत गतिकी(Electrodynamics), सांख्ययिकीय यांत्रिकी(Statistical Mechanics), क्वांटम यांत्रिकी(Quantum Mechanics), प्रकाशिकी(Optics) और नाभिकिय भौतीकी(Nuclear Physics) मे महारत हासिल करना होगा।

मूल लेख : THE SPECTRAL CLASSIFICATION OF STARS

लेखक परिचय

लेखक : ऋषभ

Rishabh Nakra

Rishabh Nakra

लेखक The Secrets of the Universe के संस्थापक तथा व्यवस्थापक है। वे भौतिकी मे परास्नातक के छात्र है। उनकी रूची खगोलभौतिकी, सापेक्षतावाद, क्वांटम यांत्रिकी तथा विद्युतगतिकी मे है।

Admin and Founder of The Secrets of the Universe, He is a science student pursuing Master’s in Physics from India. He loves to study and write about Stellar Astrophysics, Relativity, Quantum Mechanics and Electrodynamics.

खगोल भौतिकी 10 : मेघनाद साहा का समीकरण और महत्व

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लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के इस लेख मे हम आज एक आधारभूत गणितीय उपकरण की चर्चा करेंगे। इस उपकरण को साहा का समीकरण कहा जाता है। इस समीकरण ने खगोलभौतिकी की एक विशिष्ट शाखा की नींव रखी थी और यह प्लाज्मा के अध्ययन मे मील का पत्थर साबीत हुई है। लेखिका प्लाज्मा भौतिक वैज्ञानिक है, और इस लेख मे साहा के समीकरण और उसके इतिहास के बारे मे सहर्ष चर्चा कर रही है। चलीये साहा के समीकरण को समझते है और देखते है कि इस समीकरण ने तारों के वर्णक्रम के अध्ययन मे क्या भूमिका निभाई है।

संक्षिप्त इतिहास

1814 मे फ़्राउनहोफ़र रेखाओं की खोज ने तारों के वर्णक्रम के अध्ययन को जन्म दिया था। तारों का वर्णक्रम फ़्राउनहोफ़र वर्णक्रम के साधारण गुणधर्मो की व्याख्या करता है। सभी तारकीय(stellar) वर्णक्रम मे कुछ तत्वो की रेखाये अन्य तत्वो की रेखाओं की तुलना मे अधिक गहरी होती है। दिलचस्प रूप से उसी तत्व की रेखा की गहराई भिन्न तारों के वर्णक्रम मे सतत रूप से भिन्नता मे पाई जाती है।

यह भी पढ़े : विद्युत चुंबकीय (EM SPECTRUM) क्या है और वह खगोलभौतिकी (ASTROPHYSICS) मे महत्वपूर्ण उपकरण क्यों है ?

फ़्राउनहोफ़र रेखायें(The Fraunhofer Lines)

फ़्राउनहोफ़र रेखायें(The Fraunhofer Lines)

मेघनाद साहा

जिस समय परमाण्विक तथा विकिर्ण सिद्धांत अज्ञात था, खगोलभौतिक वैज्ञानिक वर्णक्रम रेखाओं मे भिन्नता को तारों के निर्माण के समय आरंभिक पदार्थ की संरचना मे भिन्नता का परिणाम मानते थे। लेकिन आज हम जानते है कि तारों के वर्णक्रम मे यह भिन्नता तापमान के अंतर के कारण है। इस लेख मे हम इतिहास मे झांखते हुये देखते है कि तारों के वर्णक्रम मे इस विविधता की पहेली को किस तरह एक भारतीय खगोलवैज्ञानिक मेघनाद साहा ने हल किया था।

1920 मे साहा के आयोनाइजेशन सिद्धांत ने बोह्र के परमाण्विक सिद्धांत के एक महत्वपूर्ण अनुप्रयोग की व्याख्या की थी। आयनोनाईजेशन एक ऐसी स्तिथि है जिसमे किसी परमाणु केंद्रक के आसपास मंडराते इलेक्ट्रान इतनी ऊर्जा प्राप्त कर लेते है कि वे केंद्रक से अलग हो जाते है या बहुत ही कमजोर रूप से बंधे रहते है। साहा ने एक गणितिय सूत्र प्रस्तावित किया था जो कि यह दर्शाता था कि किसी तारे के वातावरण मे इलेक्ट्रानो का ऊर्जा प्राप्त करना और परमाणुओं का आयोनाइजेशन वास्तविकता मे तारों की संरचना के अतिरिक्त तापमान और दबाव पर भी निर्भर करता है। साहा के इस समीकरण ने खगोलभौतिकी की एक नई शाखा की नींव रखी थी जिसे तारकीय(stellar) स्पेक्ट्रोस्कोपी कहते है। अब हम साहा के प्रसिद्धा कार्य साहा आयोनाइजेशन समीकरण को देखते है।

साहा के समीकरण का अर्थ

साहा का समीकरण तारों के वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण(spectral classification) की व्याख्या करने के लिये क्वांटम यांत्रिकी(quantum mechanics) और सांख्यकिय यांत्रिकी(statistical mechanics) के मिश्रण का प्रभावी परिणाम है। यह समीकरण बताता है कि उष्मीय संतुलन(thermal equilibrium) किसी गैस मे आयोनाइजेशन की दर उस गैस के दबाव और तापमान पर निर्भर करती है।

साहा का समीकरण

साहा का समीकरण

साहा का समीकरण

यह समीकरण दर्शा रहा है कि किसी गैस मे आयोनाईजेशन भिन्न भौतिक कारको पर निर्भर है और ये कारक है :

  • आयोनाइजेशन ऊर्जा(Ionization energy): जब किसी गैस के तापमान मे वृद्धि होती है, आयोनाइजेशन की डीग्री(degree of ionization) तब तक निम्न रहती है जब तक आयोनाइजेशन ऊर्जा के गैस के तापमान से अधिक ना हो जाये।(जो कि घातांकी(exponential ) कारक से स्पष्ट है।)
  • तापमान(Temperature): उष्मीय संतुलन मे किसी गैस की आयोनाइजेशन की डीग्री(degree of ionization) अर्थात आयन के जनघनत्व(number density) तथा उदासीन परमाणु के जनघनत्व का अनुपात तापमान मे वृद्धि के साथ अचानक बढती है। इस के बाद गैस प्लाज्मा अवस्था मे पहुंच जाती है जोकि आयन, इलेक्ट्रान और कुछ उदासीन परमाणूओ से बनी होती है।
  • आयन का जनघनत्व(number density) : जब कोई परमाणु आवेशित होता है, वह किसे इलेक्ट्रान से मिलकर फ़िर से उदासीन हो सकता है। इसलिये जैसे ही इलेक्ट्रान की संख्या बढ़ती है, आयोनाइजेशन अनुपात कम होता है। सबसे सरल हायड्रोजन प्लाज्मा मे इलेक्ट्रान की संख्या और आयन की संख्या समान मानी जाती है। इसलिये जब प्लाज्मा मे आयन का जनघनत्व बढ़ता है, आयन के उदासीन होने की दर भी बढ़ती है। इससे आयोनाइजेशन अनुपात मे कमी होती है।
  • अब इस समीकरण का भौतिक महत्व समझने का प्रयास करते है।

साहा ने निर्देशित किया था कि किसी गैस की आयोनाइजेशन की डीग्री मे दबाव का अत्याधिक प्रभाव रहता है। इस तथ्य को इससे पहले नही माना गया था। उन्होने 1921 मे जब अपना शोधपत्र रायल सोसायटी मे प्रकाशित किया। इस शोधपत्र मे उन्होने इस सिध्दांत की सहायता से तारकीय वर्णक्रम की व्याख्या की थी। उन्ही के शब्दो मे

जब हम किसी तारे को हायड्रोजन, हिलियम या कार्बन तारा कहते है और यह कहने का प्रयास कर रहे होते है कि ये तत्व किसी तारे के मुख्य घटक है तब हम उन तारों के साथ न्याय नही कर रहे होते है। जबकि सही निष्कर्ष यह है कि उस तारे के वातावरण मे उपस्थित उद्दीपन कारको के प्रभाव मे विशिष्ट तत्व या एकाधिक तत्व उत्तेजित अवस्था मे होते है और अपनी गुणधर्म वाली वर्णक्रम रेखा से उपस्थिति दर्शाते है, जबकि अन्य तत्व या तो आयन अवस्था मे होते है या उद्दीपन इतना कम होता है कि उन तत्वो को पहचानने वाली गुणधर्म रेखा नही बन पाती है।
We are not justified in speaking of a star as a hydrogen, helium or carbon star, thereby suggesting that these elements for the chief ingredients in the chemical composition of the star. The proper conclusion would be that under the stimulus prevailing in the star, the particular element or elements are excited by radiation of their characteristic lines, while other elements are either ionized or the stimulus is too weak to excite the lines by which we can detect the element.

साहा का समीकरण यह भी दर्शाता है कि कोई गैस प्लाज्मा अवस्था अत्याधिक तापमान तथा आवेशित कणो के कम जनघनत्व पर प्राप्त करती है। इसी कारण से प्लाज्मा प्राक्रुतिक रूप से खगोलीय पिंडो मे पाई जाती है जिनपर तापमान लाखों डीग्री तथा परमाणुओं का जनघनत्व 1 परमाणु प्रति घन सेमी होता है। अपनी इस प्राकृतिक उपस्थिति के कारण प्लाज्मा को पदार्थ की चतुर्थ अवस्था माना जाता है।

लेखिका का संदेश

लेखिका प्लाज्मा भौतिकी वैज्ञानिक है और वे मानती है कि तारकीय वातावरण मे शोध, खगोलभौतिकी मे लोकप्रिय और सक्रिय विषयो मे से एक है। किसी तारे का वर्णकम वास्तविकता मे अत्याधिक सूचना प्रदान कर देता है जोकि किसी खगोलभौतिक वैज्ञानिक के लिये ब्रह्मांड के रहस्यो को खोलने मे अत्यावश्यक है। इस लेख के साथ हमने इस शृंखला का एक तिहाई भाग देख लिया है। अगले लेख मे हम किसी तारे के वातावरण और खगोलभौतिकी के आयोनाइजेशन सिद्धांतों के महत्व को और विस्तार से देखेंगे। उसके पश्चात हम अपने सबसे समीप के और सर्वाधिक शोध किये गये तारे की आधारभूत संरचना को देखेंगे, यह तारा है : हमारा अपना सूर्य।

मूल लेख : SAHA’S EQUATION AND ITS IMPORTANCE

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)
संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.

खगोल भौतिकी 11 : तारों का वातावरण

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लेखिका याशिका घई(Yashika Ghai)

अब तक आप तारों के वर्णक्रम के आधार पर वर्गीकरण तथा साहा के प्रसिद्ध समीकरण को जान चुके है। मूलभूत खगोलभौतिकी (Basics of Astrophysics)’ शृंखला के इस लेख मे हम आपको आसमान मे टिमटीमाते खूबसूरत तारों के वातावरण के बारे मे चर्चा करने जा रहे है। आयोनाइजेशन सिद्धांत के अनुसार हम यह जानने का प्रयास करते है कि तारकीय वातावरण मे होता क्या है ?

हम जानते है कि किसी तारे के वातावरण मे किसी विशिष्ट तत्व की उपस्थिति से उस तारे के वर्णक्रम मे कुछ विशिष्ट रेखाये बनकर उभरती है जो उपरोक्त चित्र मे स्पष्ट है। यह उस तारे की संरचना पर ही नही, उसके तारकीय तापमान पर भी निर्भर है। इस लेख मे हम जानने का प्रयास करेंगे कि आयोजाइजेशन सिद्धांत के प्रयोग से किस प्रकार खगोलभौतिकी वैज्ञानिक उस तारे की आंतरिक संरचना केवल उस तारे के वर्णक्रम को ही देखकर जान लेते है। हम यह भी देखेंगे कि तारों का वर्णक्रम आधारित वर्गीकरण(spectral classification) किस तरह से आयोनाइजेशन सिद्धांत पर आधारित है। सबसे पहले यह जानते है कि आयोनाइजेशन ऊर्जा(ionization energy) क्या है ?

आयोनाइजेशन ऊर्जा(ionization energy) क्या है ?

किसी धात्विक गैस के बाह्य इलेक्ट्रानो को परमाणु से हटाने के लिये लगने वाली न्यूनतम ऊर्जा आयोनाइजेशन ऊर्जा कहलाती है। कुछ तत्वो की आयोनाइजेशन ऊर्जा अधिक होती है, जबकी कुछ धातुओं की आयोनाइजेशन ऊर्जा कम होती है। नीचे दिया गया चित्र विभिन्न तत्वो की आयोनाइजेशन ऊर्जा मे विचलन को दर्शा रहा है।

आयोनाइजेशन सिद्धांत ने “कल्पना युग (age of imagination)” से “प्रायोगिक विज्ञान युग (age of experimental science)” की ओर जाने का का मार्ग प्रशस्त किया है। इस सिद्धांत ने ही हार्वर्ड वर्गीकरण के O से M वर्ग के वर्णक्रमों को वास्तविकता मे तापमान आधारित क्रम के रूप सिद्ध किया है। अब तारों की संरचना और तापमान को आयोनाइजेशन सिद्धांत के आधार पर देखते है। सबसे पहले तारो को दो श्रेणीयों मे विभाजित करते है और उनमे आयोनाइजेशन प्रक्रिया को समझते है।

कम तापमान वाले तारे(Low-Temperature Stars)

केवल शीतलतम तारे ही अणुओं(molecules) से संबधित वर्णक्रम पट्टा(spectral bands) बना सकते है। ये अणु हायड्रोकार्बन(CH), सायनोजेन(CN), कार्बन अणु, टाइटेनियन आक्साईड(TiO) इत्यादि हो सकते है। ये अणु केवल शीतलीकृत वातावरण मे ही टूटे बगैर रह सकते है। इसलिये लाल और पीले रंग के तारे जिनकी सतह पर तापमान कम होता है, इन अणुओं वाले वर्णक्रम पट्टे दिखाते है।

धातुओं की आयोनाइजेशन और उद्दीपन(excitation) ऊर्जा कम होती है। शीतल तारो मे इन धात्विक रेखाओं के उद्दीपन के लिये पर्याप्त ऊर्जा होती है। इसलिये कम तापमान वाले तारों के वर्णक्रम मे प्राकृतिक धातुओं को दर्शाने वाली रेखायें होती है।

उच्च तापमान वाले तारे(High-Temperature Stars)

अब हम कम तापमान वाले तारो से उच्च तापमान वाले तारों के वर्णक्रम की ओर जाते है। इनमे उदासीन धात्विक वर्णक्रम रेखाये कमजोर होते जाती है, जबकी आयनीकृत धात्विक रेखाये गहरी होते जाती है। इसके पीछे अधिक तापमान पर धातुओं का आंशिक रूप से आयनीकृत होना है। उदाहरण के लिये कैल्शीयम-I की वर्णक्रम रेखा शीतल M तारों मे दिखाई देती है, जबकि कैल्शीयम II की वर्णक्रम रेखा उष्ण K या G तारों मे पाई जाती है।

हिलियम रेखाओं के संबध मे हिलियम की आयोनाईजेशन ऊर्जा सर्वाधिक है। इसलिये हिलियम की वर्णक्रम रेखायें अत्याधिक तापमान वाले तारों मे ही दिखाई देती है। हिलियम I की रेखाये अत्याधिक उच्च तापमान वाले तारे जैसे वर्ग B के तारों मे ही दिखाई देती है।

उदासीन और आयोनाइज्ड हिलियम, आक्सीजन , कार्बन , नाइट्रोजन और नीआन की विभिन्न आयनोईजेशन अवस्थाओं वाली रेखा केवल O वर्ग के तारों मे दिखाई देती है।

लेखिका का संदेश

इससे पिछले और इस लेख का उद्देश्य तारकीय वातावरण का परिचय था। इसके पिछले वाले लेख मे हमने साहा समीकरण द्वारा ब्रह्माण्ड मे तारे के रहस्यो को तोड़ने मे महत्व को देखा था। तारकीय वातावरण मे शोध यह खगोलभौतिकी मे अधिक कार्य किया जाने वाला विषय है। यह एक विस्तृत विषय है और इसके लिये प्लाज्मा भौतिकी की जानकारी आवश्यक है। इस लेख मे हमने केवल तारे के वातावरण का परिचय देखा है। इस विषय पर चर्चा हम यहीं पर रोकेंगे और शृंखला मे आगे बढ़ेंगे। हम मानते है कि ये दो लेख कठीन और जटिल थे, लेकिन यह खगोलभौतिकी की रीढ़ है।

मूल लेख : THE ATMOSPHERE OF STARS

लेखक परिचय

याशिका घई(Yashika Ghai)

संपादक और लेखक : द सिक्रेट्स आफ़ युनिवर्स(‘The secrets of the universe’)

लेखिका ने गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर से सैद्धांतिक प्लाज्मा भौतिकी(theoretical plasma physics) मे पी एच डी किया है, जिसके अंतर्गत उहोने अंतरिक्ष तथा खगोलभौतिकीय प्लाज्मा मे तरंग तथा अरैखिक संरचनाओं का अध्ययन किया है। लेखिका विज्ञान तथा शोध मे अपना करीयर बनाना चाहती है।

Yashika is an editor and author at ‘The secrets of the universe’. She did her Ph.D. from Guru Nanak Dev University, Amritsar in the field of theoretical plasma physics where she studied waves and nonlinear structures in space and astrophysical plasmas. She wish to pursue a career in science and research.

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