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Channel: भौतिकी –विज्ञान विश्व
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अल्बर्ट आइन्स्टाइन (Albert Einstein) : 20 वी सदी के महानतम वैज्ञानिक

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मानव इतिहास के जाने-माने वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन (Albert Einstein) 20 वीं सदी के प्रारंभिक बीस वर्षों तक विश्व के विज्ञान जगत पर छाए रहे। अपनी खोजों के आधार पर उन्होंने अंतरिक्ष, समय और गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत दिये। वे सापेक्षता के सिद्धांत और द्रव्यमान-ऊर्जा समीकरण E = mc2 के लिए जाने जाते हैं। उन्हें सैद्धांतिक भौतिकी,…

ब्रह्मांड मे कितने आयाम ?

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ब्रह्मांड की उत्पत्ति सदियो से ही मनुष्य के लिए रहस्य से भरा विषय रहा है हालांकि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति को समझने के लिए कई वैज्ञानिक शोध किये गए कई सिद्धान्तों का जन्म भी हुआ फिर बिग बैंग सिद्धान्त को सर्वमान्य माना गया। हम अपने आसपास ही यदि लोगो से पूछे की ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे…

समय यात्रा(Time Travel) : स्टीफ़न हाकिंग के साथ

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स्टीफेंस हाकिंग: नमस्ते! मेरा नाम स्टीफेंस हाकिंग है मुझे आप भौतिकविज्ञानी, खगोलविद् और एक सपने देखनेवाला भी कह सकते है। मैं चल-फिर नही सकता और मुझे बात भी कंप्यूटर से ही करनी पड़ती है लेकिन मेरा दिमाग सोचने के लिए स्वतंत्र है। मैं आपके सामने ब्रह्माण्ड के रहस्य को उजागर करना चाहता हूँ और कुछ बड़े…

समय एक भ्रम : ब्रायन ग्रीन

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“एक समय की बात है(Once Upon a time)”……..। बहुत सारी अच्छी कहानियों की शुरुआत इस जादुई वाक्यांश से शुरू होती है लेकिन समय की कहानी क्या है ? हमलोग हमेशा कहते है समय व्यतीत होता है, समय धन है, हम समय नष्ट करते है, हम समय बचाने की कोशिश कर रहे है लेकिन वास्तव में…

भौतिकविदो का इतिहास : संक्षिप्त अवलोकन

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किसी प्रश्न में ‘क्यों’ शब्द की उपस्थिति हमारी जिज्ञासा को व्यक्त करती है। और निश्चित तौर पर हमारी जिज्ञासा ही हमें नए तथ्यो के खोज की तरफ अग्रसर करती है। यदि न्यूटन के मन में यह जानने की जिज्ञासा न आई होती कि “आखिर, सेब नीचे ही क्यों गिरा?” तो शायद हमें गुरुत्वाकर्षण के अस्तित्व…

मानव आंखे कितने मेगा पिक्सेल की होती है?

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maxresdefault.jpgहमारी पृथ्वी अन्य ग्रहो से बिलकुल अलग है और खास भी कारण धरती पर जीवन का होना। वैसे तो पृथ्वी पर असंख्य जीव है परंतु जब बात प्रतिभाशाली परिष्कृत जीव की होगी सर्वप्रथम स्थान “मानव”।

मनुष्य धरती पर सबसे प्रतिभाशाली जीव है क्योंकि मनुष्य देखने,सोचने,समझने और कार्य करने में पूर्णतः सक्षम है। मनुष्य को प्रतिभाशाली बनाने में सबसे ज्यादा योगदान मस्तिष्क और आँखों का है। हमलोग एक त्रिआयामी संसार(Three dimensional world)में रहते है हालांकि चौथा आयाम(Dimension)समय है पर समय के बारे में हमारी जानकारी अभी अपूर्ण है। हमारी आँखे सभी चीजों को त्रिआयामी छवि(Three dimensional image)के रूप में देखती है। मानव नेत्र एक प्रकाशीय यंत्र है जो फोटोग्राफिक कैमरे की तरह की व्यवहार करती है। हमसब जानते है जब प्रकाश किसी वस्तु से टकराकर हमारी दृष्टिपटल(Retina)पर पड़ता है तो उस वस्तु का प्रतिबिंब रेटिना पर बनता है रेटिना नेत्र का प्रकाश सुग्राही भाग(light sensitive part)है। दृक तांत्रिक(optic nerve)यह रेटिना पर बनने वाले प्रतिविंब को संवेदनाओ द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचाने का कार्य करती है।

जैसा की ऊपर हमने उल्लेख किया मानव नेत्र कैमरा के समान है तो साधारण सा प्रश्न उठता है कि हम कैमेरे की क्षमता तो MP(Megapixel)में बता सकते है परंतु हमारी आँखे कितने MP कैमेरे के समान है। यदि आप सोच रहे है कि आपकी आँखे मोबाइल कैमेरे से ज्यादा मेगापिक्सेल की है तो आप गलत सोच रहे है। आपको जानकर आश्चर्य होगा आपकी आँखे महज 1.5~2.0 MP के कैमरा के समतुल्य है। जबकि आधुनिक स्मार्टफोन कैमेरे 13MP,16MP या उससे भी अधिक मेगापिक्सेल से लैस होते है।

अब प्रश्न है जब हमारी आँखे महज 2MP की है तो हम किसी भी छवि को इतना स्पष्ट कैसे देख पाते है इसका जवाब है “हमारा परिष्कृत मस्तिष्क”। जब हम किसी त्रिआयामी छवि को देखते है तो दृक तांत्रिक सभी संवेदी सूचनाएं हमारी मस्तिष्क को भेज देती है चूँकि हमारी नेत्र की क्षमता(1.5~2.0MP)कम है इसलिए इन सूचनाओं से जो छवि का निर्माण होता है उसमें लाखो-करोड़ो काले धब्बे(blind spots)होते है हमारा मस्तिष्क इन सारे ब्लाइंड स्पॉट को भर देता है और हमारे समक्ष एक स्पष्ट त्रिआयामी छवि प्रस्तुत कर देता है। दिमाग इस कार्य को करने में बहुत ही सूक्ष्म समय लेता है जबकि सुपर कंप्यूटर भी इस कार्य को इतने कम समय से इतनी कुशलता से नही कर सकता। आधुनिक वैज्ञानिक शोध बताते है कि हम जो कुछ भी देखते है उसमे 85%~90% योगदान हमारे मस्तिष्क का शेष हमारी नेत्रो का।

वास्तव मे किसी कैमरा और मानव नेत्र दृष्टि(vision)की तुलना मेगापिक्सेल मे सटीक रूप से नही की जा सकती क्योंकि हमारे नेत्र की दृष्टि किसी कैमेरे की तरह डिजिटल नही होती और तो और हम अपने विज़न का एक मामूली हिस्सा ही साफ-साफ देख पाते है। इस तथ्य को आप सरल प्रयोग से साबित कर सकते है। एक काम कीजिए। अपना हाथ सामने की ओर करके अपना अंगूठा आँखो के सामने रख अपना फोकस बिलकुल अंगूठा पर रखिये। अब अपने किसी मित्र से कहिये कोई अख़बार आपके अंगूठे के दाएं तरफ 6इंच की दुरी पर लेकर खड़ा रहे। तो क्या??बिना अंगूठे से ध्यान हटाये आप अख़बार में क्या लिखा है बता सकते है?

जवाब है…..नही!!

आपको अख़बार तो दिख रहा है पर अख़बार के अक्षर नही। इसका कारण मानव नेत्र के लिए पूर्ण दृष्टिक्षेत्र(total field of view)मे से केवल 2°क्षेत्र पर ही फोकस करना संभव है अर्थात आपके अंगूठे के साइज के बराबर। शोध यह भी बताते है कि हमारी दृष्टि तीक्ष्णता(visual acuity) अर्थात सामान्य प्रकाश मे देखने की क्षमता)लगभग 74MP के समान है और रेसोलुशन क्षमता 576MP की है।

humaneye

दृष्टि तीक्ष्णता 74MP::औसत मानव रेटिना पचास लाख शंकु रिसेप्टर्स से बना होता है. शंकु रिसेप्टर्स रंग दृष्टि के लिए जिम्मेदार होते हैं, इसीलिए आप कह सकते हैं की ये आँख के लिए एक पांच मेगापिक्सेल के बराबर है.लेकिन यहाँ आप गलत होंगे. क्योंकि मानव आंख में सौ मिलियन मोनोक्रोम भी होते हैं, जो आंख द्वारा देखी जा रही छवि के तीखेपन(contrast)में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है. इस दोनों के आधार पर हम 105 मेगापिक्सेल कह सकते है पर यह पूर्णतः असत्य होगा। परन्तु कुछ शोध हमारे द्वारा देखे गए छवि के गुणबत्ता के आधार पर इसे 76 मेगापिक्सल कहते हैं लेकिन ये भी पूर्ण सत्य नही लगता क्योंकि मनुष्य की आँख कोई डिजिटल कैमरा नहीं है।

Resolution 576MP::
सामान्य प्रकाश मे देखने की क्षमता(A) = (1/b)
जहाँ b= (रेखा युग्म)/(चाप-मिनिट)
सामान्य प्रकाश मे; A= 1.7; जिसका मतलब होता है की 1चाप-मिनिट = 1.7 रेखा युग्म
या 1 रेखा युग्म= 0.59 चाप-मिनिट

एक लाइन को परिभाषित करने के लिये हमे कम से कम 2 पिक्सल की जरूरत होती है, मतलब पिक्सल के बीच जो अंतराल होगा वो 0.59/2 ~ 0.3 चाप-मिनट होगा।

पिक्सेल की गणना करने के लिये हमे 2 विमा पर ही ध्यान देना होगा (ऐसा मान लीजिये की आप खिड़की या दरवाजे से बाहर एकदम सीधे देख रहें है) इस अवस्था मे आप जो भाग घेरेंगे वो करीब करीब 90°×90°का होगा लेकिन हमारे आँख का सामान्य दृश्य कोण (angle of vision) एकदम नाक के सीधे लगभग 60°लिया जाता है|

चूंकि; 0.3 चाप-मिनिट समतुल्य है 1 पिक्सल के
इसीलिये 90×60 होगा= 90×60/0.3 = 18000
दो विमा को बराबर मानते हुए कुल पिक्सेल = 18000×18000 पिक्सेल= 324 MP
सामान्य लोग 90°की जगह 120°मानते है तो उस अवस्था मे 120×60/0.3=24000
24000×24000 पिक्सेल = 576 MP

सरल शब्दों में मानव की दोनों आँखें मिलकर जो चारों ओर के दृश्य की समग्र छवि मस्तिष्क में पहुंचती है। वो कुल मिलाकर एक बहुत बड़े क्षेत्र की छवि बनाता है। जो लगभग 576 मेगापिक्सल के बराबर होता हैं। Actually 576MP जबाव तब सही हो सकता है जब मानव नेत्र किसी कैमरा स्नेप शॉट की तरह तस्वीर के हर कोण को साफ साफ देख सके पर ऐसा संभव ही नही। 2°के छोटे से क्षेत्र का रेसुलुशन 576MP नही 8 मेगापिक्सेल डाटा काफी है आपके इस 2°के क्षेत्र को भरने के लिए। अब आप ही अंदाजा लगा लीजिये की आपकी आंख कितने मेगा पिक्सल के बराबर होती हैं।

शायद आप अब भी थोड़े असमंजस मे है तो चलिए कुछ विरोधाभास को दूर कर देते है। वास्तब मे मेगापिक्सेल किसी कैमेरे की क्षमता का सटीक मापन नही कर सकता कि वह कैमरा कितनी स्पष्ट तस्वीर लेगा। किसी भी तस्वीर की स्पष्टता इमेज सेंसर पर निर्भर करती है। इमेज सेंसर ही यह तय करता है कि किसी भी तस्वीर को स्पष्ट देखने या दिखाने मे कितनी प्रकाश की आवश्कता है। निशाचर जीव जंतु के आँखों में फोटो रिसेप्टर्स की संख्या ज्यादा होती है। इसी कारण वे रात मे ज्यादा प्रकाश को ग्रहण करके साफ छवि देख पाते है। चील और गिद्ध जैसे जीव लंबी दूरियों से भी छोटी से छोटी हलचल को देख लेते है क्योंकि उनकी आँखों मे सक्रिय फोटो रिसेप्टर्स की संख्या बहुत अधिक होती है। प्रोफ़ेशनल कैमरा इसलिए महँगे नही होते की उसमे ज्यादा मेगापिक्सेल लगे होते है बल्कि इसलिए महँगे होते है क्योंकि उसमे ज्यादा बड़े इमेज सेंसर और अति उन्नत अति संवेदनशील सेंसर लगे होते है। सरल शब्दो में आप कह सकते है इमेज सेंसर ही प्रकाश को किसी छवि में बदलता है।

 

लेखिका परिचय

पलल्वी  कुमारी, बी एस सी प्रथम वर्ष की छात्रा है। वर्तमान  मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

पल्लवी कुमारी

पल्लवी कुमारी


Filed under: भौतिकी, मानव विज्ञान Tagged: मानव आंखे, मानव आंखे मेगापिक्सेल, Human Eye, Human Eye in Megapixel

मध्यरात्रि सूर्य(Midnight Sun)

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midnightsunउत्तरी गोलार्द्ध(Northern Hemisphere)में मध्य मई से जुलाई के अंत तक तथा दक्षिणी गोलार्द्ध(Southern Hemisphere)में मध्य नवंबर से जनवरी के अंत तक की अवधियों में 63°समानांतर से उच्च अक्षांशों(High Latitude)में पाई जाने वाली वह अवस्था, जिसमें सूर्य 24 घंटे नहीं छिपता और मध्य रात्रि में भी देखा जा सकता है।

हमारी पृथ्वी पर ऐसे भी कुछ स्थान हैं जहाँ वर्ष के कुछ खास महीनों में आधी रात को भी सूर्य के दर्शन होते हैं।आपको विश्वास नहीं?परंतु यह सत्य है।मध्य-रात्रि के समय सूर्य के दिखाई देने वाली घटना एक प्राकृतिक घटना(Natural Phenomena)है।आप लोग इतना तो जानते ही है कि आकाश में सूर्य स्थिर(पृथ्वी के सापेक्ष)है और हमारी पृथ्वी अपनी कक्षा या भ्रमण पथ पर उसके चारों ओर लगभग 365 दिन में एक चक्कर पूरा करती है।इसके साथ ही वह अपने अक्ष या धुरी पर 24 घंटे में एक चक्कर पूरा करती है।पृथ्वी के इस निरंतर भ्रमण के कारण ही दिन व रात होते हैं। परंतु हम देखते हैं कि दिन और रात की अवधि हमेशा बराबर नहीं होती। कभी दिन बड़े और रातें छोटी होती हैं तो कभी दिन छोटे और रातें बड़ी होती हैं।यह पृथ्वी के अक्ष के झुकाव(Axis Tilt)का परिणाम है।यहां हम आपको बता दें कि पृथ्वी का कोई वास्तविक अक्ष नहीं होता है किंतु जब पृथ्वी घूमती है तो एक ठीक उत्तर और दूसरा ठीक दक्षिण में ऐसे दो बिंदु बनते हैं जिन्हें एक सीधी रेखा से जोड़ देने की कल्पना करें तो वैसी ही एक धुरी बन जाएगी जैसी साइकिल के पहियों की धुरी होती है जिन पर वे घूमते हैं।

day-and-night-on-the-earthपृथ्वी अपने तल से 66.5°का कोण बनाते हुए घूमती है या यों कहें कि पृथ्वी का अक्ष सीधा न होकर 23.5°(Actual Earth Axis Tilt::23.4392811°)तक झुका हुआ है।अक्ष के झुकाव के कारण ही दिन व रात छोटे-बड़े होते हैं।21 जून व 22 दिसंबर ऐसी दो तिथियां हैं जिनमें सूर्य का प्रकाश वृत्त पृथ्वी की धुरी के झुकाव के कारण पृथ्वी के सभी स्थानों को समान भागों में नहीं बांटता है।इसलिए दिन और रात की अवधि में अंतर आता है।उत्तरी गोलार्द्ध में मध्य-रात्रि अर्थात रात को 12 बजे भी सूर्य दिखाई देने की घटना का संबंध 21 जून वाली स्थिति से है।इस समय 66°उ.अक्षांश से 90°उ. अक्षांश तक का संपूर्ण भू-भाग प्रकाश वृत्त के भीतर रहता है।इसका अर्थ यह हुआ कि यहाँ चौबीसों घंटे दिन रहता है रात होती ही नहीं इसीलिए वहाँ आप आधी रात को भी सूर्य को देख सकते हैं।वहाँ न तो सूर्योदय होगा और न सूर्यास्त होगा।बस यही है अर्द्धरात्रि के सूर्य-दर्शन की घटना का रहस्य।

day-and-night-on-the-earth2आर्कटिक घेरे के उत्तर में और अंटार्कटिक घेरे के दक्षिण में पड़ने वाले सभी इलाकों में गर्मियों के मौसम में आधी रात को भी सूरज दिखाई देता है।अगर मौसम साफ़ हो तो यहां 24 घंटे सूरज नज़र आता है।आर्कटिक घेरे के उत्तर में पड़ने वाले देश हैं कनाडा, अमरीका का राज्य अलास्का, ग्रीनलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, फ़िनलैंड, रूस और आइसलैंड जबकि अंटार्कटिक घेरे के दक्षिण में कोई इंसानी बस्ती नहीं है।उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव पर तो सूरज वर्ष में एक बार उगता है और एक बार डूबता है जिसका परिणाम यह होता है कि लगभग छह महीने दिन रहता है और छह महीने रात।

नार्वे यूरोप महाद्वीप का एक देश है।आप विश्व मानचित्र या एटलस में इसकी स्थिति देख सकते है।इसके उत्तरी छोर पर हेमरफेस्ट(Hemerfest)नामक शहर है।यहाँ उन दिनों मध्यरात्रि के सूर्य के दर्शन करने के लिए कई शौकीन पर्यटक आते हैं।इसीलिए नार्वे को “मध्यरात्रि के सूर्य का देश’ भी कहा जाता हैं।यहां चौबीसों घंटे सूर्य क्षितिज पर दिखाई देता है।प्रकृति के इस अद्भुत करिश्मे को देखने का जीवन में यदि आपको कभी अवसर मिले तो हेमरफेस्ट ज़रूर जाइए।

विषुव (अंग्रेज़ी:इक्विनॉक्स)

equinoxविषुव (अंग्रेज़ी:इक्विनॉक्स) ऐसा समय-बिंदु होता है, जिसमें दिवस और रात्रि लगभग बराबर होते हैं। इसका शब्दिक अर्थ होता है – समान। इक्वीनॉक्स शब्द लैटिन भाषा के शब्द एक्वस (समान) और नॉक्स (रात्रि) से लिया गया है। किसी क्षेत्र में दिन और रात की लंबाई को प्रभावित करने वाले कई दूसरे कारक भी होते हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर 23½° झुके हुए सूर्य के चक्कर लगाती है, इस प्रकार वर्ष में एक बार पृथ्वी इस स्थिति में होती है, जब वह सूर्य की ओर झुकी रहती है, व एक बार सूर्य से दूसरी ओर झुकी रहती है। इसी प्रकार वर्ष में दो बार ऐसी स्थिति भी आती है, जब पृथ्वी का झुकाव न सूर्य की ओर ही होता है और न ही सूर्य से दूसरी ओर, बल्कि बीच में होता है। इस स्थिति को विषुव या इक्विनॉक्स कहा जाता है। इन दोनों तिथियों पर दिन और रात की बराबर लंबाई लगभग बराबर होती है। यदि दो लोग भूमध्य रेखा से समान दूरी पर खड़े हों तो उन्हें दिन और रात की लंबाई बराबर महसूस होगी। ग्रेगोरियन वर्ष के आरंभ होते समय (जनवरी माह में) सूरज दक्षिणी गोलार्ध में होता है और वहां से उत्तरी गोलार्ध को अग्रसर होता है। वर्ष के समाप्त होने (दिसम्बर माह) तक सूरज उत्तरी गोलार्द्ध से होकर पुनः दक्षिणी गोलार्द्ध पहुचं जाता है। इस तरह से सूर्य वर्ष में दो बार भू-मध्य रेखा के ऊपर से गुजरता है।

इस परिभाषा को सूर्य के पृथ्वी पर उदय और अस्त या परिक्रमा के संदर्भ में देखें तो इक्विनॉक्स एक ग्रह की कक्षा में लगने वाला वह समय है, जिसमें ग्रह की कक्षा और विशिष्ट स्थिति में सूर्य सीधे भूमध्य रेखा के ऊपर से होकर निकलता है। दिन और रात बराबर होने की बात सिद्धान्तः होती है पर वास्तविकता में नहीं। आजकल यह समय लगभग 22 मार्च तथा 23 सितंबर को आता है। जब यह मार्च में आता है तो उत्तरी गोलार्द्ध में रहने वाले इसे महा/बसंत विषुव (Vernal/(अंग्रेज़ी)) कहते हैं तथा जब सितंबर में आता है तो इसे जल/शरद विषुव (fall/(अंग्रेज़ी)) कहते हैं। यह उत्तरी गोलार्द्ध में इन ऋतुओं के आने की सूचना देता है। यह समय विषुव अयन के कारण समय के साथ साथ बदलता रहता है। अंतर्राष्ट्रीय समय में भिन्नता के कारण अलग अलग देशों में इसके दिखने की तिथियों में अंतर हो सकता है। उदाहरण के लिए दूरस्थ पूर्वी देशों में यह यूरोप और अमेरिका से एक दो दिन आगे पीछे दिख सकता है। हर ग्रह की एक काल्पनिक केंद्रीय रेखा को भूमध्य रेखा कहते हैं। इसके साथ ही भूमध्य रेखा के ठीक ऊपर अंतरिक्ष में एक काल्पनिक आकाशीय रेखा भी होती है। इक्विनॉक्स के समय सूर्य सीधे भूमध्य रेखा की सीध में होता है। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति भूमध्य रेखा पर खड़ा हो तो सूर्य उसे सीधे अपने सिर के ऊपर दिखाई देगा। इसका यह भी अर्थ है कि आधा ग्रह पूरी तरह प्रकाशित होता है और इस समय दिन और रात लगभग बराबर होते हैं।

उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले लोगों के लिए इक्विनॉक्स के अगले छह महीने लगातार दिन वाले होते हैं जबकि दक्षिणी ध्रुव के लोगों के लिए छह महीने अंधेरी रात वाले। इक्विनॉक्स के इस विशेष दिन दोनों ध्रुवों के लोगों को सूर्य का एक जैसा प्रकाश देखने को मिलता है, जबकि दोनों जगह का मौसम अलग होगा।

लेखिका परिचय

पलल्वी  कुमारी, बी एस सी प्रथम वर्ष की छात्रा है। वर्तमान  मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

पल्लवी कुमारी

पल्लवी कुमारी


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प्रकाश विद्युत प्रभाव(Photoelectric effect)

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photoelectriceffectजब किसी धातु की सतह पर विद्युत चुम्बकीय विकरण(Electro Magnetic Radiation जैसे X-किरण,पराबैगनी किरण,दृश्य प्रकाश)पड़ती है तो उसकी सतह से इलेक्ट्रॉन निकलने लगते है सरल शब्दों में यही प्रकाश विद्युत है। इस क्रिया से जो इलेक्ट्रॉन निकलते है उसे प्रकाश इलेक्ट्रॉन(Photoelectron)कहते है। दृश्य प्रकाश का उपयोग केवल क्षारीय धातु पर ही यह प्रभाव दिखाता है जबकि X-किरण का जब उपयोग किया जाता है तो लगभग सभी धातुएँ प्रकाश विद्युत प्रभाव दिखाती है।

प्रकाश विद्युत प्रभाव की खोज महान जर्मन भौतिक विज्ञानी हेनरीच हर्ट्ज(Heinrich Hertz)ने 1887 मे की थी। हेनरीच ने ऋण प्लेट पर पराबैगनी किरणें डालने पर देखा की परिपथ मे तुरन्त ही विद्युत धारा प्रवाहित होने लगती है। पराबैगनी किरणे डालना बंद करते है तो धारा प्रवाह भी एकदम रुक जाता है। यदि इसको ऋण प्लेट के बजाय धन प्लेट पर डाला जाय तो परिपथ में या तो कोई धारा नही बहती अथवा बहुत ही क्षीण धारा बहती है। मगर हेनरीच अपने तमाम प्रयासों के बाद भी इस प्रकाश विद्युत प्रभाव की कोई संतोषजनक व्याख्या नही कर पाए। उनकी विफलता का बड़ा कारण था प्रकाश विद्युत प्रभाव को प्रकाश तरंग सिद्धान्त से समझाना। शास्त्रीय प्रकाश तरंग सिद्धान्त के अनुसार,प्रकाश की तीव्रता(प्रवलता Wavelength)ही निर्धारित करती है तरंग की विपुलता( आयाम)*। हर्ट्ज के अनुसार अति तीव्र प्रकाश की प्रवलता के कारण इलेक्ट्रॉन धातु के अंदर दोलन करते हुए और अधिक गतिज ऊर्जा(Kinetic energy)के साथ उत्सर्जित होने लगते है। परंतु जब उनके प्रयोग से उनकी कथन की तुलना की गयी तो उनका कथन संतोषजनक नही था। प्रयोग यह दर्शाता है कि उत्सर्जित इलेक्ट्रॉन की गतिज ऊर्जा प्रकाश के आवृति पर निर्भर करती है प्रकाश की तीव्रता का प्रभाव केवल निकलनेवाले इलेक्ट्रॉन की संख्या पर ही था न की इलेक्ट्रॉन की गतिज ऊर्जा पर। उनके इस सैद्धान्तिक टिप्पणी से उस समय प्रकाश विद्युत प्रभाव को समझना और समझाना काफी जटिल हो गया था। कारण कुछ भी हो हर्ट्ज इस प्रभाव के आविष्कारक थे इसलिए उनके सम्मान मे इस प्रकाश विद्युत प्रभाव को हर्ट्ज प्रभाव (Hertz effect) भी कहा जाता है।

प्रकाशविद्युत प्रभाव का अध्ययन करने के लिये प्रयोग। इसमें प्रकाश स्रोत एक पतली आवृत्ति बैण्ड वाला (लगभग एकवर्णी) लेते हैं। इस प्रकाश को कैथोड पर डालते हैं जो निर्वात में स्थित है। एनोड और कैथोड के बीच विभवान्तर से यह निर्धारित हो जाता है कि कैथोड से उत्सर्जित वे ही इलेक्ट्रान एनोड तक आ पायेंगे जिनके पास निकलते समय eV से अधिक गतिज ऊर्जा होगी। धारा की मात्रा (μA), प्राप्त इलेक्ट्रानों की संख्या के समानुपाती होगी।

प्रकाशविद्युत प्रभाव का अध्ययन करने के लिये प्रयोग। इसमें प्रकाश स्रोत एक पतली आवृत्ति बैण्ड वाला (लगभग एकवर्णी) लेते हैं। इस प्रकाश को कैथोड पर डालते हैं जो निर्वात में स्थित है। एनोड और कैथोड के बीच विभवान्तर से यह निर्धारित हो जाता है कि कैथोड से उत्सर्जित वे ही इलेक्ट्रान एनोड तक आ पायेंगे जिनके पास निकलते समय eV से अधिक गतिज ऊर्जा होगी। धारा की मात्रा (μA), प्राप्त इलेक्ट्रानों की संख्या के समानुपाती होगी।

कहते है,वो महान है जो जटिल यंत्र बनाये,जटिल सिद्धान्त दे परन्तु उससे भी ज्यादा महान वो है जो जटिल को सरल बना दे। प्रकाश विद्युत प्रभाव के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। जर्मनी मे ही जन्मे इस सदी के महान भौतिकविज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टीन(Albert Einstein :1905)ने प्रकाश विद्युत प्रभाव की सफल व्याख्या की। आइंस्टीन ने मैक्स प्लांक(Max Planck)द्वारा प्रतिपादित क्वांटम थ्योरी(Quantum theory)को आधार मानकर प्रकाश विद्युत प्रभाव की सटीक व्याख्या की। मैक्स प्लांक के अनुसार प्रकाश ऊर्जा छोटे-छोटे पैकटों के रूप में चलता है जिसे फोटोन या क्वांटम (Photon or Quantum) कहते है।

एक फोटॉन की ऊर्जा = hc/λ
जहाँ h = प्लांक नियतांक = 6.62607×10-34 जूल
c = प्रकाश का वेग = 3×108 m/s
λ = प्रकाश का तरंगदैर्ध्य
यदि प्रकाश की आवृति n हो तो v = c/λ
इसलिए एक फोटॉन की ऊर्जा E = hυ
यहाँ [E = energy] [h = plank constant] [υ = frequency]

किसी धातु पृष्ठ से इलेक्ट्रॉन को मात्र बाहर निकलने मे जितनी ऊर्जा व्यय होती है उसे धातु का कार्य फलन(Work function)कहा जाता है इसे Φo से व्यक्त किया जाता है। अलग अलग धातुओ के लिए Φo का मान भी भिन्न-भिन्न होता है। यदि hυ ऊर्जा के फोटॉन द्वारा उत्सर्जित प्रकाश इलेक्ट्रॉन का महत्तम वेग यदि Vmax हो, तो ऊर्जा संरक्षण नियमानुसार,

[hυ = Φo+1/2mv²max]
या,[1/2mv²max = hυ-Φo]

यहाँ m इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान है। इस समीकरण को आइन्सटीन का प्रकाश विद्युत समीकरण कहा जाता है। इससे स्पस्ट है सतह से निकलने वाले इलेक्ट्रॉनों की गतिज ऊर्जा महत्तम होती है। प्रकाश विद्युतधारा आपतित विकिरण की तीव्रता पर निर्भर करता है जबकि उत्सर्जित इलेक्ट्रॉनों की गतिज ऊर्जा फोटॉन की आवृत्ति पर निर्भर करती है।
किसी भी धातु के लिए क्रांतिक आवृति (Threshold frequency) वह न्यूमतम आवृति है जिसके नीचे की आवृत्ति वाले प्रकाश द्वारा प्रकाश विद्युत प्रभाव उत्तपन्न नही किया जा सकता चाहे प्रकाश की तीव्रता कितनी भी बड़ी क्यों न हो।

यदि f० =Threshold frequency हो तो
Φo = hf०

अब प्रकाश विद्युत प्रभाव को इस प्रकार लिखा जाता है

[hf = hf० + 1/2mv²max]

photoelectriceffect1अल्बर्ट आइंस्टीन (Albert Einstein) ने इस प्रयोग के कुछ परिणाम भी सबके समक्ष रखा था।

  1. धातु की सतह से प्रकाशपुंज टकराते ही इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित होने लगते है अर्थात प्रकाश पड़ने और इलेक्ट्रॉन निकलने के बीच कोई समय अंतराल नही होता।
  2. उत्सर्जित इलेक्ट्रॉन की संख्या प्रकाश की तीव्रता के समानुपाती होता है।
  3. क्रांतिक आवृति से नीचे की आवृत्ति का प्रकाश यह प्रभाव उत्तपन्न नही कर सकता।
  4. जैसे जैसे प्रकाश की आवृत्ति को बढ़ाते है वैसे वैसे उत्सर्जित इलेक्ट्रॉन की गतिज ऊर्जा बढ़ती जाती है।
  5. उत्तपन्न प्रकाश विद्युतधारा प्रकाश विकरण की तीव्रता पर निर्भर करता है।

इस सिद्धान्त का महत्व इससे बड़ा हो जाता है क्योंकि यह सिद्धान्त प्रकाश के तरंग प्रकृति के विरुद्ध उसके कणीय प्रकृति का समर्थन करता है। इस सफल व्याख्या के लिए उन्हें 1921 मे नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize) से सम्मानित किया गया। आज इस सिद्धान्त का उपयोग फोटो सेल,टेलीविज़न,कैमरा ट्यूब और सोलर सेल मे किया जाता है।


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प्रतिपदार्थ(Antimatter) से ऊर्जा

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प्रतिपदार्थ(Antimatter) से ऊर्जा के निर्माण का सिद्धांत अत्यंत सरल है।

पदार्थ(matter) : साधारण पदार्थ जो हर जगह है। नाभिक मे धनात्मक प्रोटान और उदासीन न्युट्रान, कक्षा मे ऋणात्मक इलेक्ट्रान से निर्मित।

प्रतिपदार्थ(Antimatter) : इसके गुणधर्म पदार्थ के जैसे ही है लेकिन इसका निर्माण करने वाले कणो का आवेश पदार्थ का निर्माण करने वाले कणो से विपरीत होता है। नाभिक मे ऋणात्मक एंटीप्रोटान और उदासीन एंटीन्युट्रान, कक्षा मे ऋणात्मक धनात्मक पाजीट्रान से निर्मित।

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जब पदार्थ और प्रतिपदार्थ टकराते है तब वे एक दूसरे को विनष्ट करते हुये ऊर्जा मे परिवर्तित हो जाते है। यदि इस ऊर्जा का प्रयोग किया जाये तो यह ऊर्जा स्रोत किसी भी अन्य ऊर्जा स्रोत से अधिक सक्षम और बेहतर होगा।

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प्रतिपदार्थ का प्रयोग करने वाले ऊर्जा संयत्र क्यों नही है ?

इसके पीछे तीन समस्याये है :

1. प्रतिपदार्थ का निर्माण अथवा उसे जमा करना अत्यंत कठीन है।

प्रतिपदार्थ को कण त्वरको(particle accelerators) मे अत्यंत अल्प मात्रा मे बनाया जा सकता है। अब तक निर्मित प्रतिपदार्थ से एक प्रकाश बल्ब को केवल तीन मिनट तक ही जलाया जा सकता है।

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प्रतिपदार्थ प्राकृतिक रूप से सुपरनोवा के पास तथा पृथ्वी के समीप वान एलेन विकिरण पट्टे(Van Allen Radiation Belt) के समीप पाया जाता है। इन कणो को एकत्रित कर जमा करना अत्यंत दुष्कर कार्य है।

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2. संग्रहण पात्र (containment)

प्रतिपदार्थ को चुंबकिय क्षेत्र की सहायता से संग्रहित करना होता है जिससे वह साधारण पदार्थ के संपर्क मे ना आ पाये।  अब तक हम इस विधि से प्रति पदार्थ को केवल 16 मिनट तक ही संग्रहीत कर पाये है।

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3.उत्पन्न ऊर्जा का प्रयोग

हमारे पास प्रतिपदार्थ से उत्पन्न ऊर्जा को जमाकर प्रयोग करने का कोई प्रभावी उपाय नही है। इस प्रक्रिया मे उत्पन्न अधिकतर ऊर्जा न्युट्रीनो के रूप मे मुक्त हो जाती है। न्युट्रीनो का द्रव्यमान नगण्य होता है और उन्हे पकड़ पाना अत्याधिक कठीन है।

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इस विषय पर विस्तार से लेख

https://vigyanvishwa.in/2011/05/23/anti-matter/

https://vigyanvishwa.in/2011/06/13/antimatterusage/

 

पोस्टर

एंटीमैटर, Antimatter, प्रतिपदार्थ

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ध्रुविय ज्योति

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What the ....यह कोई साधारण चित्र नही है यह पृथ्वी पर होने वाली एक अद्भुत खगोलीय घटना है जो की हमारी पृथ्वी के ध्रुवीय क्षेत्रो में घटित होती है। पृथ्वी के धुवीय क्षेत्रो जैसे अलास्का तथा उत्तरी कनाडा के आकाश मे रंगो का अत्यंत वैभवशाली दृश्य दिखाई देता है नृत्य करते हरे गुलाबी रंग एक अदभुत दृश्य प्रस्तुत करते है ये दृश्य जितने मनोहारी है उतने ही रहस्यपूर्ण भी।

ध्रुवीय ज्योति (अंग्रेजी: Aurora), या मेरुज्योति, वह रमणीय दीप्तिमय छटा है जो ध्रुवक्षेत्रों के वायुमंडल के ऊपरी भाग में दिखाई पड़ती है। उत्तरी अक्षांशों की ध्रुवीय ज्योति को सुमेरु ज्योति (अंग्रेजी: aurora borealis), या उत्तर ध्रुवीय ज्योति, तथा दक्षिणी अक्षांशों की ध्रुवीय ज्योति को कुमेरु ज्योति (अंग्रेजी: aurora australis), या दक्षिण ध्रुवीय ज्योति, कहते हैं। प्राचीन रोमवासियों और यूनानियों को इन घटनाओं का ज्ञान था और उन्होंने इन दृश्यों का बेहद रोचक और विस्तृत वर्णन किया है। दक्षिण गोलार्धवालों ने कुमेरु ज्योति का कुछ स्पष्ट कारणों से वैसा व्यापक और रोचक वर्णन नहीं किया है, जैसा उत्तरी गोलार्धवलों ने सुमेरु ज्योति का किया है। इनका जो कुछ वर्णन प्राप्य है उससे इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि दोनों के विशिष्ट लक्षणों में समानता है।

हेंड्रिक एंटून लॉरेंज (Hendrik Antoon Lorentz :1853-1928) डेनमार्क के सैद्धान्तिक भौतिकविज्ञानी और लिण्डेन के प्रख्यात प्रोफ़ेसर थे।जिन्हें पीटर जीमन (Peter Zeeman)के साथ संयुक्त रूप से 1902 में जीमन प्रभाव के लिए नोबेल पुरस्कार मिला।

हेंड्रिक एंटून लॉरेंज (Hendrik Antoon Lorentz :1853-1928) डेनमार्क के सैद्धान्तिक भौतिकविज्ञानी और लिण्डेन के प्रख्यात प्रोफ़ेसर थे।जिन्हें पीटर जीमन (Peter Zeeman)के साथ संयुक्त रूप से 1902 में जीमन प्रभाव के लिए नोबेल पुरस्कार मिला।

हम सब जानते है सूर्य पृथ्वी के लिए ऊर्जा का महान स्रोत है कारण सूर्य पर नाभिकीय संलयन का होना। इसके कारण सूर्य से सौर लपटें(solar flair)उठती रहती है ये सौर लपटें विशेष अवधि में अपने चक्र को घटाती और बढ़ाती रहती है क्योकि सूर्य अपने ध्रुव को निश्चित समयअंतराल मे बदलता रहता है। सूर्य से सौर लपटें उठते रहने के कारण ये सौर लपटें पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र(Magnetic Field)मे प्रवेश करती है वास्तव मे सौर लपटे विशाल संख्या मे सूर्य से निकलनेवाली आवेशित इलेक्ट्रान और प्रोटोन है। ये इलेक्ट्रान और प्रोटोन जब पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र मे प्रवेश करती है तो उसपर एक बल लगने लगता है जिसे लॉरेंज बल(Lorentz force)कहा जाता है।

लॉरेंज के अनुसार, जब कोई आवेशित कण किसी चुम्बकीय बल क्षेत्र में गति करता है तो उसपर एक बल क्रियाशील हो जाता है जिसकी दिशा दोनों के तल पर लम्बवत होती है अर्थात क्रियाशील बल की दिशा आवेशित कण और चुम्बकीय क्षेत्र के तल पर लम्ब होती है। लॉरेंज़ बल कितना शक्तिशाली होगा यह आवेशित कण और चुम्बकीय क्षेत्र के बीच बनने बाले कोण पर निर्भर करता है। यदि बना कोण 0° हो तो बल न्यूनतम होगा पर यदि बना कोण 90° हो तो उसपर लगने वाला बल बहुत ही शक्तिशाली होगा मतलब जैसे जैसे कोण का मान 0° से 90° की ओर बढ़ता जायेगा लगने वाला बल ताकतवर होता जायेगा और 90° पर बल सबसे महत्तम मान पर होगा।यदि कोण का मान 90° से 180° की और ज्यो-ज्यो बढेगा तो फिर लगने वाला बल कमजोर होता जायेगा और 180° पर बल का मान नगण्य हो जायेगा।इस प्रकार हम पाते है की लगने वाला बल 90° पर अपने सबसे महत्तम मान पर होता है।
इसे इस समीकरण से दर्शाया जाता है

F=q(V×B)

=qVB.SinA

यहाँ F बल,q कण का आवेश,V आवेशित कण का वेग,B चुम्बकीय क्षेत्र,A आवेशित कण और चुम्बकीय क्षेत्र के बीच बना कोण है।

aurora-1आप ध्यान रखे F,V और B तीनो सदिश राशियाँ है। जब आवेशित इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में प्रवेश करती है तो पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र मे फँस जाती है और पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के क्षेत्र रेखाओ के साथ-साथ वृताकार पथ पर गति करते हुए पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुवों के पास पहुँच जाती है। शायद आप सोच रहे होगे की सौर लपटे(इलेक्ट्रान और प्रोटोन)पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुवो के पास ही क्यों आ जाती है ये सौर लपटें ध्रुवों से दूर भी तो जा सकती है इसका कारण है पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की रेखाए चुम्बकीय ध्रुवों पर बहुत पास पास आ जाती है इस कारण पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र ध्रुवों पर ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है। इसी कारण से सौर लपटें पृथ्वी के ध्रुवों पर आ जाती है। जब ये आवेशित इलेक्ट्रान और प्रोटोन पृथ्वी के ध्रुवों पर आ जाती है तो ध्रुवो पर आवेश का घनत्व बढ़ जाता है। ये आवेशित कण वायुमंडल के अणुओ एवं परमाणुओ से टकराने लगते है इस कारण आवेशित ऑक्सीजन परमाणु हरा और लाल रंग तथा आवेशित नाइट्रोजन परमाणु नीले, गहरे लाल और गुलाबी रंग का प्रकाश उत्सर्जित करने लगता है।

जैसा की ऊपर की पंक्तियों में भी उल्लेख किया गया है ध्रुवीय ज्योति उत्पन्न होने का कारण जब उच्च ऊर्जा वाले कण (मुख्यतः इलेक्ट्रान)पृथ्वी के ऊपरी वातावरण में उपस्थित उदासीन अणुओं से उनकी जोरदार टक्कर है। बड़े तीव्रता वाली ध्रुवीय ज्योति चाँद की रौशनी के समान उज्जवल होती है। ध्रुवीय ज्योति की ऊँचाई पृथ्वी से 80 किमी से लेकर 500 किमी तक हो सकती है। सामान्य तीव्रता वाली ध्रुवीय ज्योति की औसत ऊँचाई 110 किमी से लेकर 200 किमी तक होती है।

aurora-2ध्रुवीय ज्योति के रंग का निर्धारण करने वाले कारक वायुमंडलीय गैस, उसके विशिष्ट आवेश और उस कण की ऊर्जा जो वायुमंडल के गैस से टकराती है। वातावरण प्रधान गैस नाइट्रोजन और ऑक्सीजन अपने से सबंधित लाइन स्पेक्ट्रम एवं रंगो के उत्सर्जन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार होते है।ऑक्सीजन परमाणु हरा (557.7 mn के तरंगदैर्घ्य) और लाल (630.0 mn के तरंगदैर्घ्य) रंगो के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है।नाइट्रोजन नीले और गहरे लाल (600-700 mn के तरंगदैर्घ्य) रंग उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है।यह एक प्रकार का उत्सर्जित रंगो का स्पेक्टम है जो की पृथ्वी के ऊपरी वातावरण में दृष्टिगोचर होता है।ज्यादातर ध्रुवीय ज्योति का रंग हरा और पीलापन लिए होता है लेकिन कभी-कभी सौर लपटे की लंबी किरणे इसे लाल रंग में भी बदल देती है जो की किनारो और ऊपरी सतहों पर दिखाई पड़ती है। बहुत दुर्लभ अवसरो (लगभग 10 साल में एक बार) पर जब सूर्य लपटे ज्यादा तूफानी होती है तो ध्रुवीय ज्योति का रंग गहरा लाल होता है जो की निचली वातावरण में दिखाई देती है इस समय गुलाबी रंग भी निचले क्षेत्रो में देखा गया है।इस प्रकार ध्रुवीय ज्योति का रंग उत्सर्जित प्रकाश की तरंगदैर्घ्य पर निर्भर करता है साथ साथ ऊँचाई भी ध्रुवीय ज्योति के रंग को प्रभावित करती है। ज्यादातर हरा रंग 120 किमी से लेकर 180 किमी की ऊँचाई पर निकलते है लाल रंग 180 किमी से अधिक ऊँचाई पर उत्सर्जित होते है जबकि नीले और बैगनी रंग 120 किमी से नीचे बनते है।जब सौर लपटे ज्यादा तूफानी होती है तब लाल रंग 90 किमी से लेकर 100 किमी के ऊँचाई पर देखे गए है। पूर्ण रूप से लाल रंग कभी-कभी ही उत्तरी ध्रुवो पर देखे जाते है वो भी विशेषकर कम अक्षांशों पर। अलग-अलग ऊँचाईयो पर ध्रुवीय ज्योति का अलग-अलग रंग का उत्सर्जन करना पृथ्वी के वायुमंडलीय संरचना,उसके घनत्व और ऑक्सीजन एवं नाइट्रोजन के सापेक्ष अनुपात पर भी निर्भर करता है। इस प्रकार एक अत्यंत अदभुत रंगो की छटा दिखाई देने लगती है मानो सारा आकाश रौशनी से जगमगा उठता है और एक अविश्वसनीय आतिशबाजी का दृश्य दिखाई देता है।

भौतिकी मे इस घटना को उत्तर ध्रुवीय ज्योति(Northern Lights or Aurora Borealis) या दक्षिण ध्रुवीय ज्योति (Southern Lights or Aurora Australis)कहा जाता है। यह प्राकृतिक आतिशबाजी का दृश्य रात्रि मे ही देखा जा सकता है सूर्य की उपस्थिति मे इसे आप देख नही सकते। सूर्यास्त के बाद पृथ्वी के ध्रुवीय क्षेत्रों मे(अलास्का,उत्तरी कनाडा,आइसलैंड,नॉर्वे)आप इस प्राकृतिक आतिशबाजी का आनंद ले सकते है।

aurora

स्रोत::NCERT(12-1-P139)Lucent’s Physics(12-1-P43)
लेख : पल्लवी कुमारी

लेखिका परिचय

पलल्वी  कुमारी, बी एस सी प्रथम वर्ष की छात्रा है। वर्तमान  मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

पल्लवी कुमारी

पल्लवी कुमारी


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पिक्सेल (Pixel) क्या होते है?

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pixel1आजकल हम आधुनिक परिवेश में रहते है और अति आधुनिक उपकरणों का उपयोग करते है कुछ उपकरण आजकल हमारे जीवन का अभिन्नय अंग बन गए है खासकर मोबाइल फ़ोन ,कंप्यूटर,LED Tv, प्लाज्मा Tv इत्यादि।बहुत सारे उपकरण बाजार में उपलब्ध है पर स्मार्टफोन की बात ही कुछ अलग है और हो भी क्यों नही आज स्मार्टफोन का जमाना है आज अच्छे से अच्छे स्मार्टफोन रखना हमलोगों की पहली प्राथमिकता जो हो गयी है वैसे तो स्मार्टफोन में बहुत सारे उपकरण लगे होते है परंतु कैमरा और स्क्रीन(Display)उसके महत्वपूर्ण भाग है।जब बात कैमरा या डिस्प्ले की होती है तो कुछ शब्द हमे खास आकर्षित करते है वो है पिक्सेल,मेगा पिक्सेल,रेसोलुशन,एक्सपोज़र वैल्यू,ISO इत्यादि।

पिक्सेल(Pixel): पिक्सेल शब्द वास्तव् में picture(Pix)और Element(Ex)से मिलकर बना है।पिक्सेल वो छोटे-छोटे बिंदु (Dots)और एलिमेंट्स है जिससे मिलाकर स्क्रीन (डिस्प्ले) बनी होती है। पिक्सेल तस्वीर का एक छोटा सा नियंत्रण किया जा सकने वाला हिस्सा( controllable एलिमेंट) है जो उसे स्क्रीन पर चित्रित(represent)करता है। हर एक पिक्सेल की प्रबलता(intencity)अलग अलग होती है। रंगीन डिस्पले में एक पिक्सेल 3 या 4 रंगों का का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे की लाल,हरा नीला(RGB)और हरिनील (cyan), मैजेंटा(magenta), पीला(yellow) और काला(black) (CMYB)। स्क्रीन ऐसी ही लाखो या करोड़ो पिक्सल को प्रति इंच में जोड़कर बनायी जाती है।ज्यादातर डिस्प्ले में 3 या 4 रंगों की बहुत छोटी(Smallest)LED(light emitting diode)लगायी जाती है जो जरूरत के मुताबिक अपनी रौशनी को कम या ज्यादा करके किसी भी छवि को प्रदर्शित करता है। डिस्प्ले में पिक्सेल का प्रवंधन (arrangement)पर इंच के हिसाब से होता है प्रति इंच में जितने ज्यादा पिक्सेल होंगे पिक्चर क्वालिटी उतनी ही अच्छी होगी जिसे हम PPI(pixel per inch)या DPI(Dot per inch)भी कहते है।

pixel

मेगापिक्सेल(megapixel):मेगापिक्सेल का छोटा रूप MP है 1MP=1Million Pixel(दस लाख पिक्सेल)।कैमरो की क्षमता की माप मेगापिक्सेल से की जाती है अर्थात किसी डिजिटल या स्मार्टफोन कैमेरे की रेसोलुशन को मेगापिक्सेल में ही अंकन किया जाता है।जैसे-(3246×2448)

रेसोलुशन(Resolution): प्रति इकाई क्षेत्रफल में पिक्सेल की संख्या रेसोलुशन कहलाती है।रेसोलुशन हमे यह बताता है कि किसी तस्वीर में कितने पिक्सेल है जिससे हमें उसकी क्वालिटी का पता चल सके।आपने देखा ही होगा तस्वीरों या डिस्प्ले के आकार को क्रमशः (3246×2448,2560×1920)या(1280×1024,640×480)दर्शाया जाता है।इसका अर्थ है 3264×2448=7990272 पिक्सेल लगभग 8MP के समतुल्य है मतलब 8MP कैमेरे से ली गयी तस्वीर है।इस प्रकार आप किसी भी तस्वीर की रेसोलुशन को देख कर यह बता सकते है कि यह तस्वीर कितने मेगापिक्सेल के कैमेरे से ली गयी है।

डिस्प्ले में यदि दर्शाया गया हो(640×480)मतलब 640 पिक्सेल सामानांतर,480 पिक्सेल लम्बवत लगे है।

एक्सपोज़र वैल्यू(Ev)::एक्सपोज़र वैल्यू वह है जो कैमरा की शटर स्पीड और f-नंबर के सम्बन्ध को प्रदर्शित करती है साथ ही लगातार तस्वीरे लेने पर दो इमेजो के बीच के अंतराल को नियंत्रित करती है और कैमेरे में प्रकाश का नियंत्रित करना भी EV का एक कार्य है।

ISO: यह एक प्रकार का सेंसर है।यह प्रकाश के प्रति कैमरा की संवेदनशीलता की क्षमता का मापदंड है और यह प्रकाश को नियंत्रित करने का सबसे महत्वपूर्ण सेंसर भी है।प्रकाश की संवेदनशीलता को ISO:100,200,400,800 इस प्रकार अंकन करता है।यदि आप किसी तस्वीर को दिन के उजाले में कैप्चर करते है तो ISO का मान कम होता है लेकिन जब तस्वीर रात में ली जाय तो ISO का मान ज्यादा हो जाता है वशर्ते आप ISO को स्वचालित(automatic mode)रखे हो तो।

सभी कैमरो में तस्वीर लेने के लिए इमेज सेंसर लगे होते है ये सेंसर भी पिक्सेल प्रणाली के जैसे ही कार्य करते है।ये सेंसर इमेज कैप्चर करते समय कैमरा के लेंस में जो पिक्चर दिखता है उसे RGB(red, green, blue)कलर में से फिल्टर करके कैप्चर करते है।ये सेंसर हर प्रकार के प्राथमिक कलर की प्रवलता(intencity)को RGB कलर के हिसाब से रेकॉर्ड करते है जिससे तस्वीर की क़्वालिटी अच्छी होती है।इस तरह इमेज सेंसर हर एक Element को रिकॉर्ड करके पुरे फ्रेम में तस्वीर को तैयार करता है।मोबाइल फोन और डिजिटल कैमेरे में CMOS (Complementary Metal-Oxide Semiconductor)इमेज सेंसर का उपयोग किया जाता है।

यदि आप आकर्षक और स्पष्ट तस्वीर लेने के शौक़ीन है तो आपके लिए हमारी सलाह है कि आप ज्यादा मेगापिक्सेल कैमरा से लैस स्मार्टफोन को चुने पर अपने बजट का भी पूरा ध्यान रखे।


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सर आइजैक न्यूटन : आधुनिक भौतिकी की नींव

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isaacnewton-168925 दिसंबर 1642 (ग्रेगोरियन कैलेंडर से 4 जनवरी 1643) को धरती पर एक ऐसे अद्भुत व्यक्ति का जन्म हुआ जिसने विज्ञान की परिभाषा को एक नया रूप दिया। विज्ञान के ऐसे तथ्य प्रस्तुत किये जो आज तक चल रहे हैं। हम बात कर रहे हैं :- आइज़क न्यूटन (Isaac Newton) की।

विश्व को गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत देने वाले सर आईजैक न्युटन शुरुआती दिनों में ठीक प्रकार से बोल भी नहीं पाते थे। वे स्वभाव से काफी गुस्सैल थे और लोगों से कम ही वास्ता रखते थे। उनके इसी व्यवहार के कारण उनके मित्र भी न के बराबर थे। न्यूटन अपने विचार भी सही ढंग से व्यक्त नहीं कर पाते थे ,वह अपने उपलब्धियों या खोज को बताने में संकोच करते कि कहीं वह हंसी के पात्र न बन जाएं। शुरुआती दिनों में न्यूटन कई प्रकार के प्रयोग करते रहते थे। न्यूटन के व्यवहार के कारण उन्हें सनकी और पागल समझा गया पर लोगों की परवाह किये बगैर वे अपने शोध में लगे रहे और अंततः एक महान वैज्ञानिक बनकर उभरे।

संक्षिप्त जीवन परिचय

उनके पिता एक समृद्ध किसान थे, न्यूटन का जन्म उनके पिता की मृत्यु के तीन माह बाद हुआ था। उनके पिता का नाम भी आइज़क न्यूटन था। न्यूटन निश्चित समय से पहले पैदा होने वाला(Premature) वह एक छोटा बालक था; उनकी माता हन्ना ऐस्क्फ़(Hannah Ayscough) के अनुसार वह इतना छोटा था कि एक चौथाई गैलन जैसे छोटे से मग में समा सकता था।

न्यूटन की मां ने रेवरंड बर्नाबुस स्मिथ (Reverend Barnabas Smith) के साथ दूसरी शादी कर ली और उन्हीं के साथ रहने चली गयीं। अपने 3 वर्षीय पुत्र को अपनी नानी मर्गेरी ऐस्क्फ़(Margery Ayscough) के पास देखभाल के लिए छोड दिया। आइज़क न्यूटन अपनी माँ के दुबारा शादी करने के कारण ना अपने पिता को पसंद करता थे न ही अपनी माँ को।

किंग्स स्कूल, ग्रान्थम(King’s School, Grantham)में उन्होंने बारह वर्ष से सत्रह वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त की। बचपन में वह पढ़ाई में कुछ खास अच्छे नहीं थे। एक बार स्कूल में एक लड़के ने न्यूटन को पीटा मगर न्यूटन जब गुस्से में आ गए तो उस लड़के को भाग के अपनी जान बचानी पड़ी। फिर 1659 में जब उन्हें स्कूल से निकाला गया तो वे अपनी माँ के पास आ गए। जो दूसरी बार विधवा हो चुकी थी।

उनकी माँ ने जीविका चलाने के लिए न्यूटन को खेती करने के लिए कहा। वह खेती से नफरत करते थे। इसलिए उन्होंने खेती नहीं की। किंग्स स्कूल के मास्टर हेनरी स्टोक्स (Henry Stokes) ने आइज़क न्यूटन में एक प्रतिभा देखते हुए उनकी मां से उन्हें फिर से स्कूल भेजने का सुझाव दिया। जिससे वे अपनी शिक्षा को पूरा कर सकें। वहां स्कूल में एक लड़का उन्हें बार-बार नीचा दिखता था और मंदबुद्धि कहकर चिढ़ाता था। उससे बदला लेने की इच्छा से प्रेरित होने की वजह से वो पढ़ने लगे और अपनी प्रतिभा से स्कूल के सबसे मेधावी छात्र बनकर उभरे।

अपने अंकल रेव विलियम एस्क्फ (Rev William Ayscough)के कहने पर जून 1661 में उन्होंने ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज(Trinity College, Cambridge) में अध्ययन के लिए प्रवेश लिया। पढ़ाई की फीस भरने और खाना खाने के लिए आइज़क न्यूटन कॉलेज में एक कर्मचारी की तरह काम भी करते थे। उस समय कॉलेज की शिक्षाएं अरस्तु पर आधारित थीं। लेकिन न्यूटन अधिक आधुनिक दार्शनिकों(modern philosophers) के विचारों को पढ़ना चाहते थे।

1664 में इनकी प्रतिभा के कारण एक स्कॉलरशिप की व्यवस्था कॉलेज की तरफ से हो गयी, जिसकी मदद से न्यूटन अब आगे की पढ़ाई कर सकते थे। उस समय विज्ञान बहुत आगे नहीं था। फिर यहीं रहकर न्यूटन ने प्रसिद्ध “केप्लर के नियम” पढ़े।

1665 में उन्होंने सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय(Binomial Theorem) की खोज की और एक गणितीय सिद्धान्त(Mathematical concept) विकसित करना शुरू किया जो बाद में अत्यल्प कलन(Calculus) के नाम से जाना गया। न्यूटन ने इसकी जानकारी काफी समय बाद दी। इसक कारण उन्होंने ये बताया की उन्हें डर था कि न्यूटन ने कहा कि वे अपने अत्यल्प कलन(Calculus) को प्रकाशित कर कहीं उपहास के पात्र न बन जाएँ।

न्यूटन इस तथ्य पर शोध कर रहे थे कि धरती सुर्य के ईर्द-गिर्द गोल नहीं बल्कि दिर्घ वृत्ताकार परिक्रमा करती है। ऐसी और भी कई बातों पर खोज चल ही रही थी कि अचानक अगस्त 1665 में जैसे ही न्यूटन ने अपनी डिग्री प्राप्त की। उसके ठीक बाद प्लेग की भीषण महामारी पूरे शहर में फ़ैल गयी। बीमारी के भीषण रूप धारण कर लेने पर बचाव के रूप में विश्वविद्यालय को बंद कर दिया गया।

घर जाने से पहले वे एक बाग मे बैठे सोच रहे थे कि अब क्या किया जाये। अचानक उन्होने सोचा कि सारी चीजें नीचे क्यों गिरती है? फिर न्यूटन ने इस प्रश्न का उत्तर खुद ही खोजने की ठान ली। बहुत सालों तक न्यूटन इस पर शोध करते रहे और सबको ये बताया कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण बल(Gravity) नाम की एक शक्ति है।

न्युटन और लिबनिज विवाद

अधिकांश आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि न्यूटन और लीबनीज ने अत्यल्प कलन का विकास अपने अपने अद्वितीय संकेतनों का उपयोग करते हुए स्वतंत्र रूप से किया।

न्यूटन की पांडुलिपियों के अनुसार, न्यूटन ने अपनी इस विधि को लीबनीज से कई साल पहले ही विकसित कर दिया था, लेकिन उन्होंने लगभग 1693 तक अपने किसी भी कार्य को प्रकाशित नहीं किया और 1704 तक अपने कार्य का पूरा लेखा जोखा नहीं दिया। इस बीच, लीबनीज ने 1684 में अपनी विधियों का पूरा लेखा जोखा प्रकाशित करना शुरू कर दिया। इसके अलावा, लीबनीज के संकेतनों तथा “अवकलन की विधियों” को युरोप महाद्वीप पर सार्वत्रिक रूप से अपनाया गया और 1820 के बाद, ब्रिटिश साम्राज्य में भी इसे अपनाया गया। जबकि लीबनीज की पुस्तिकाएं प्रारंभिक अवस्थाओं से परिपक्वता तक विचारों के आधुनिकीकरण को दर्शाती हैं, न्यूटन के ज्ञात नोट्स में केवल अंतिम परिणाम ही है।

न्यूटन ने कहा कि वे अपने कलन को प्रकाशित नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था वे उपहास का पात्र बन जायेंगे।

न्यूटन का स्विस गणितज्ञ निकोलस फतियो डे दुइलिअर के साथ बहुत करीबी रिश्ता था, जो प्रारम्भ से ही न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से बहुत प्रभावित थे। 1691 में दुइलिअर ने न्यूटन के फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका के एक नए संस्करण को तैयार करने की योजना बनायी, लेकिन इसे कभी पूरा नहीं कर पाए।बहरहाल, इन दोनों पुरुषों के बीच सम्बन्ध 1693 में बदल गया। इस समय, दुइलिअर ने भी लीबनीज के साथ कई पत्रों का आदान प्रदान किया था।

1699 की शुरुआत में, रोयल सोसाइटी (जिसके न्यूटन भी एक सदस्य थे) के अन्य सदस्यों ने लीबनीज पर साहित्यिक चोरी के आरोप लगाये और यह विवाद 1711 में पूर्ण रूप से सामने आया। न्यूटन की रॉयल सोसाइटी ने एक अध्ययन द्वारा घोषणा की कि न्यूटन ही सच्चे आविष्कारक थे और लीबनीज ने धोखाधड़ी की थी। यह अध्ययन संदेह के घेरे में आ गया, जब बाद पाया गया कि न्यूटन ने खुद लीबनीज पर अध्ययन के निष्कर्ष की टिप्पणी लिखी।

इस प्रकार कड़वा न्यूटन बनाम लीबनीज विवाद शुरू हो गया, जो बाद में न्यूटन और लीबनीज दोनों के जीवन में 1716 में लीबनीज की मृत्यु तक जारी रहा।

न्यूटन को आम तौर पर सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय का श्रेय दिया जाता है, जो किसी भी घात के लिए मान्य है। उन्होंने न्यूटन की सर्वसमिकाओं, न्यूटन की विधि, वर्गीकृत घन समतल वक्र (दो चरों में तीन के बहुआयामी पद) की खोज की, परिमित अंतरों के सिद्धांत में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भिन्नात्मक सूचकांक का प्रयोग किया और डायोफेनताइन समीकरणों के हल को व्युत्पन्न करने के लिए निर्देशांक ज्यामिति का उपयोग किया।

उन्होंने लघुगणक के द्वारा हरात्मक श्रेणि(Harmonic Series) के आंशिक योग(paritial sum) का सन्निकटन किया, (यूलर के समेशन सूत्र का एक पूर्वगामी) और वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आत्मविश्वास के साथ घात श्रृंखला का प्रयोग किया और घात श्रृंखला का विलोम किया।

उन्हें 1669 में गणित का ल्युकेसियन प्रोफेसर चुना गया। उन दिनों, कैंब्रिज या ऑक्सफ़ोर्ड के किसी भी सदस्य को एक निर्दिष्ट अंग्रेजी पुजारी होना आवश्यक था। हालाँकि, ल्युकेसियन प्रोफेसर के लिए जरुरी था कि वह चर्च में सक्रिय न हो।(ताकि वह विज्ञान के लिए और अधिक समय दे सके)| न्यूटन ने तर्क दिया कि समन्वय की आवश्यकता से उन्हें मुक्त रखना चाहिए और चार्ल्स द्वितीय, जिसकी अनुमति अनिवार्य थी, ने इस तर्क को स्वीकार किया। इस प्रकार से न्यूटन के धार्मिक विचारों और अंग्रेजी रूढ़ीवादियों के बीच संघर्ष टल गया।

प्रकाशिक(Optics)

न्यूटन के दूसरे परावर्ती दूरदर्शी की एक प्रतिकृति जो उन्होंने 1672 में रॉयल सोसाइटी को भेंट किया।

न्यूटन के दूसरे परावर्ती दूरदर्शी की एक प्रतिकृति जो उन्होंने 1672 में रॉयल सोसाइटी को भेंट किया।

1670 से 1672 तक, न्यूटन ने प्रकाशिकी पर व्याख्यान दिया। इस अवधि के दौरान उन्होंने प्रकाश के अपवर्तन(refraction) की खोज की, उन्होंने प्रदर्शित किया कि एक प्रिज्म श्वेत प्रकाश को रंगों के एक स्पेक्ट्रम में वियोजित कर देता है और एक लेंस और एक दूसरा प्रिज्म बहुवर्णी स्पेक्ट्रम को संयोजित कर के श्वेत प्रकाश का निर्माण करता है।

उन्होंने यह भी दिखाया कि रंगीन प्रकाश को अलग करने और भिन्न वस्तुओं पर चमकाने से रगीन प्रकाश के गुणों में कोई परिवर्तन नहीं आता है। न्यूटन ने वर्णित किया कि चाहे यह परावर्तित हो, या विकिरित हो या संचरित हो, यह समान रंग का बना रहता है।

250px-dispersive_prism_illustrationइस प्रकार से, उन्होंने देखा कि, रंग पहले से रंगीन प्रकाश के साथ वस्तु की अंतर्क्रिया का परिणाम होता है नाकि वस्तुएं खुद रंगों को उत्पन्न करती हैं।यह न्यूटन के रंग सिद्धांत के रूप में जाना जाता है।

इस कार्य से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि, किसी भी अपवर्ती दूरदर्शी का लेंस प्रकाश के रंगों में विसरण (रंगीन विपथन) का अनुभव करेगा और इस अवधारणा को सिद्ध करने के लिए उन्होंने अभिदृश्यक के रूप में एक दर्पण का उपयोग करते हुए, एक दूरदर्शी का निर्माण किया, ताकि इस समस्या को हल किया जा सके। दरअसल डिजाइन के निर्माण के अनुसार, पहला ज्ञात क्रियात्मक परावर्ती दूरदर्शी, आज एक न्यूटोनियन दूरबीन के रूप में जाना जाता है, इसमें तकनीक को आकार देना तथा एक उपयुक्त दर्पण पदार्थ की समस्या को हल करना शामिल है। न्यूटन ने अत्यधिक परावर्तक वीक्षक धातु के एक कस्टम संगठन से, अपने दर्पण को आधार दिया, इसके लिए उनके दूरदर्शी हेतु प्रकाशिकी कि गुणवत्ता की जाँच के लिए न्यूटन के छल्लों का प्रयोग किया गया।

फरवरी 1669 तक वे रंगीन विपथन के बिना एक उपकरण का उत्पादन करने में सक्षम हो गए। 1671 में रॉयल सोसाइटी ने उन्हें उनके परावर्ती दूरदर्शी को प्रर्दशित करने के लिए कहा। उन लोगों की रूचि ने उन्हें अपनी टिप्पणियों “ओन कलर” के प्रकाशन हेतु प्रोत्साहित किया, जिसे बाद में उन्होंने अपनी “ऑप्टिक्स” के रूप में विस्तृत कर दिया।

जब रॉबर्ट हुक ने न्युटन के कुछ विचारों की आलोचना की, न्यूटन इतना नाराज हुए कि वे सार्वजनिक बहस से बाहर हो गए। हुक की मृत्यु तक दोनों दुश्मन बने रहे।

न्यूटन ने तर्क दिया कि प्रकाश कणों या अतिसूक्षम कणों से बना है, जो सघन माध्यम की और जाते समय अपवर्तित हो जाते हैं, लेकिन प्रकाश के विवर्तन को स्पष्ट करने के लिए इसे तरंगों के साथ सम्बंधित करना जरुरी था। बाद में भौतिकविदों ने प्रकाश के विवर्तन के लिए शुद्ध तरंग जैसे स्पष्टीकरण का समर्थन किया। आज की क्वाण्टम यांत्रिकी, फोटोन और तरंग-कण युग्मता के विचार, न्यूटन की प्रकाश के बारे में समझ के साथ बहुत कम समानता रखते हैं।

1675 की उनकी प्रकाश की परिकल्पना में न्यूटन ने कणों के बीच बल के स्थानान्तरण हेतु, ईथर की उपस्थिति को मंजूर किया।

हेनरी मोर के संपर्क में आने से रसायन विद्या में उनकी रुचि पुनर्जीवित हो गयी। उन्होंने ईथर को कणों के बीच आकर्षण और प्रतिकर्षण के वायुरुद्ध विचारों पर आधारित गुप्त बलों से प्रतिस्थापित कर दिया। जॉन मेनार्ड केनेज, जिन्होंने रसायन विद्या पर न्यूटन के कई लेखों को स्वीकार किया, कहते हैं कि

“न्युटन कारण के युग के पहले व्यक्ति नहीं थे: वे जादूगरों में आखिरी नंबर पर थे। Newton was not the first of the age of reason: He was the last of the magicians”

रसायन विद्या में न्यूटन की रूचि उनके विज्ञान में योगदान से अलग नहीं की जा सकती है। (यह उस समय हुआ जब रसायन विद्या और विज्ञान के बीच कोई स्पष्ट भेद नहीं था।)

यदि उन्होंने एक निर्वात में से होकर एक दूरी पर क्रिया के गुप्त विचार पर भरोसा नहीं किया होता तो वे गुरुत्व का अपना सिद्धांत विकसित नहीं कर पाते।

1704 में न्यूटन ने आप्टिक्स को प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने अपने प्रकाश के अतिसूक्ष्म कणों के सिद्धांत की विस्तार से व्याख्या की।उन्होंने प्रकाश को बहुत ही सूक्ष्म कणों से बना हुआ माना, जबकि साधारण द्रव्य बड़े कणों से बना होता है और उन्होंने कहा कि एक प्रकार के रासायनिक रूपांतरण के माध्यम से “सकल निकाय और प्रकाश एक दूसरे में रूपांतरित नहीं हो सकते हैं,और निकाय, प्रकाश के कणों से अपनी गतिविधि के अधिकांश भाग को प्राप्त नहीं कर सकते, जो उनके संगठन में प्रवेश करती है?” न्यूटन ने एक कांच के ग्लोब का प्रयोग करते हुए, एक घर्षण विद्युत स्थैतिक जनरेटर के एक आद्य रूप का निर्माण किया।

न्यूटन का सेब

न्यूटन अक्सर खुद एक कहानी कहते थे कि एक पेड़ से एक गिरते हुए सेब को देख कर वे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत बनाने के लिए प्रेरित हो पाए।

बाद में व्यंग्य करने के लिए ऐसे कार्टून बनाये गए जिनमें सेब को न्यूटन के सर पर गिरते हुए बताया गया और यह दर्शाया गया कि इसी के प्रभाव ने किसी तरह से न्यूटन को गुरुत्व के बल से परिचित कराया। उनकी पुस्तिकाओं से ज्ञात हुआ कि 1660 के अंतिम समय में न्यूटन का यह विचार था कि स्थलीय गुरुत्व का विस्तार होता है, यह दूरी के वर्ग व्युत्क्रमानुपाती होता है; हालाँकि पूर्ण सिद्धांत को विकसित करने में उन्हें दो दशक का समय लगा। जॉन कनदयुइत, जो रॉयल टकसाल में न्यूटन के सहयोगी थे और न्यूटन की भतीजी के पति भी थे, ने इस घटना का वर्णन किया जब उन्होंने न्यूटन के जीवन के बारे में लिखा:

1666 में वे कैम्ब्रिज से फिर से सेवानिवृत्त हो गए और अपनी मां के पास लिंकनशायर चले गए। जब वे एक बाग़ में घूम रहे थे तब उन्हें एक विचार आया कि गुरुत्व की शक्ति धरती से एक निश्चित दूरी तक सीमित नहीं है, (यह विचार उनके दिमाग में पेड़ से नीचे की और गिरते हुए एक सेब को देख कर आया) लेकिन यह शक्ति उससे कहीं ज्यादा आगे विस्तृत हो सकती है जितना कि पहले आम तौर पर सोचा जाता था। उन्होंने अपने आप से कहा कि क्या ऐसा उतना ऊपर भी होगा जितना ऊपर चाँद है और यदि ऐसा है तो, यह उसकी गति को प्रभावित करेगा और संभवतया उसे उसकी कक्षा में बनाये रखेगा, वे गणना कर रहे थे कि इस प्रभाव की मात्रा कितनी होगी।

प्रश्न गुरुत्व के अस्तित्व का नहीं था बल्कि यह था कि क्या यह बल इतना विस्तृत है कि यह चाँद को अपनी कक्षा में बनाये रखने के लिए उत्तरदायी है। न्यूटन ने दर्शाया कि यदि बल दूरी के वर्ग व्युत्क्रम में कम होता है तो, चंद्रमा की कक्षीय अवधि की गणना की जा सकती है और सटिक परिणाम प्राप्त हो सकता है। उन्होंने अनुमान लगाया कि यही बल अन्य कक्षीय गति के लिए जिम्मेदार है और इसीलिए इसे सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नाम दे दिया। जो हर चीज़ को अपनी ओर खींचती है और इसी बल के कारण चन्द्रमा पृथ्वी का चक्कर लगाता है और पृथ्वी सूर्य का। आइज़क न्यूटन ने बताया कि ये बल(Force) दूरी बढ़ने के साथ साथ घटता जाता है। गुरुत्वाकर्षण बल को पृथ्वी के केंद्र में माना जाता है, इसीलिए पृथ्वी हर चीज़ को सीधा अपनी ओर खींचती है। पृथ्वी किसी वस्तु को कितनी शक्ति से खींचेगी इसका मान(Value) उस वस्तु के द्रव्यमान(Mass) पर निर्भर करता है।

एक समकालीन लेखक, विलियम स्तुकेले, सर आइजैक न्यूटन की ज़िंदगी को अपने स्मरण में रिकोर्ड करते हैं, वे 15 अप्रैल 1726 को केनसिंगटन में न्यूटन के साथ हुई बातचीत को याद करते हैं, जब न्यूटन ने जिक्र किया कि “उनके दिमाग में गुरुत्व का विचार पहले कब आया।

जब वह ध्यान की मुद्रा में बैठे थे उसी समय एक सेब के गिरने के कारण ऐसा हुआ। क्यों यह सेब हमेशा भूमि के सापेक्ष लम्बवत में ही क्यों गिरता है? ऐसा उन्होंने अपने आप में सोचा। यह बगल में या ऊपर की ओर क्यों नहीं जाता है, बल्कि हमेशा पृथ्वी के केंद्र की ओर ही गिरता है।”

इसी प्रकार के शब्दों में, वोल्टेर महाकाव्य कविता पर निबंध (1727) में लिखा,

“सर आइजैक न्यूटन का अपने बागानों में घूम रहे थे, पेड़ से गिरते हुए एक सेब को देख कर, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण की प्रणाली के बारे में पहली बार सोचा।

न्यूटन के गति नियम

न्यूटन के गति नियम तीन भौतिक नियम हैं जो चिरसम्मत यांत्रिकी(Classical Mechanics) के आधार हैं। ये नियम किसी वस्तु पर लगने वाले बल और उससे उत्पन्न उस वस्तु की गति के बीच सम्बन्ध बताते हैं। इन्हें तीन सदियों में अनेक प्रकार से व्यक्त किया गया है। न्यूटन के गति के तीनों नियम, पारम्परिक रूप से, संक्षेप में निम्नलिखित हैं –

  1. प्रथम नियम: प्रत्येक पिंड तब तक अपनी विरामावस्था अथवा सरल रेखा में एकसमान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने के लिए विवश नहीं करता। इसे जड़त्व का नियम भी कहा जाता है।
  2. द्वितीय नियम: किसी भी पिंड की संवेग परिवर्तन की दर लगाये गये बल के समानुपाती होती है और उसकी (संवेग परिवर्तन की) दिशा वही होती है जो बल की होती है।
  3. तृतीय नियम: प्रत्येक क्रिया की सदैव बराबर एवं विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है।

 

सबसे पहले न्यूटन ने इन्हे अपने ग्रन्थ फिलासफी नेचुरालिस प्रिंसिपिआ मैथेमेटिका (सन 1687 मे संकलित किया था। न्यूटन ने अनेक स्थानों पर भौतिक वस्तुओं की गति से सम्बन्धित समस्याओं की व्याख्या में इनका प्रयोग किया था।

अपने ग्रन्थ के तृतीय भाग में न्यूटन ने दर्शाया कि गति के ये तीनों नियम और उनके सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नियम सम्मिलित रूप से केप्लर के आकाशीय पिण्डों की गति से सम्बन्धित नियम की व्याख्या करने में समर्थ हैं।

इसके आलावा आइज़क न्यूटन ने “भार”(Weight) और “द्रव्यमान”(Mass) के अंतर को भी समझाया। साथ ही साथ प्रकाश के क्षेत्र में काम करते हुए न्यूटन ने बताया कि सफ़ेद प्रकाश दरअसल कई रंगों के प्रकाश का मिश्रण होता है।

मृत्यु

ये माना जाता है कि न्यूटन ने आजीवन विवाह नहीं किया था। 20 मार्च 1727 को लन्दन शहर में न्यूटन की सोते समय मृत्यु हो गयी थी। उन्हें वेस्टमिंस्टर एब्बे में दफनाया गया था। न्यूटन, जिनके कोई बच्चे नहीं थे, उनके अंतिम वर्षों में उनके रिश्तदारों ने उनकी अधिकांश संपत्ति पर अधिकार कर लिया और निर्वसीयत ही उनकी मृत्यु हो गई।

न्यूटन अपने वैज्ञानिक कामों में इतने रम चुके थे की उनकी मृत्यु के बाद, उनके शरीर में भारी मात्रा में पारा पाया जाना, जो शायद उनके रासायनिक व्यवसाय का परिणाम था। पारे की विषाक्तता न्यूटन के अंतिम जीवन में उनके सनकीपन को स्पष्ट करती है।

फ्रेंच गणितज्ञ जोसेफ लुईस लाग्रेंज अक्सर कहते थे कि न्यूटन महानतम प्रतिभाशाली था और एक बार उन्होंने कहा कि वह

“सबसे ज्यादा भाग्यशाली भी था क्योंकि हम दुनिया की प्रणाली को एक से ज्यादा बार स्थापित नहीं कर सकते।”

अंग्रेजी कवि अलेक्जेंडर पोप ने न्यूटन की उपलब्धियों के द्वारा प्रभावित होकर प्रसिद्ध स्मृति-लेख लिखा:

Nature and nature’s laws lay hid in night;
God said “Let Newton be” and all was light।

न्यूटन अपनी उपलब्धियों का बताने में खुद संकोच करते थे, फरवरी 1676 में उन्होंने रॉबर्ट हुक को एक पत्र में लिखा:

If I have seen further it is by standing on ye shoulders of Giants

हालांकि आमतौर पर इतिहासकारों का मानना है कि उपरोक्त पंक्तियां, नम्रता के साथ कहे गए एक कथन के अलावा या बजाय , हुक पर एक हमला थीं (जो कम ऊंचाई का और कुबडा था)। उस समय प्रकाशिकीय खोजों को लेकर दोनों के बीच एक विवाद चल रहा था। बाद की व्याख्या उसकी खोजों पर कई अन्य विवादों के साथ भी उपयुक्त है, जैसा कि यह प्रश्न कि कलन(Calculus) की खोज किसने की, जैसा कि ऊपर बताया गया है।

बाद में एक इतिहास में, न्यूटन ने लिखा:

मैं नहीं जानता कि में दुनिया को किस रूप में दिखाई दूंगा लेकिन अपने आप के लिए में एक ऐसा लड़का हूँ जो समुद्र के किनारे पर खेल रहा है और अपने ध्यान को अब और तब में लगा रहा है, एक अधिक चिकना पत्थर या एक अधिक सुन्दर खोल ढूँढने की कोशिश कर रहा है, सच्चाई का यह इतना बड़ा समुद्र मेरे सामने अब तक खोजा नहीं गया है।

स्मारक

वेस्ट्मिनिस्टर एबे मे न्यूटन की कब्र

वेस्ट्मिनिस्टर एबे मे न्यूटन की कब्र

न्यूटन का स्मारक (1731) वेस्टमिंस्टर एब्बे में देखा जा सकता है।


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नोबेल पुरस्कार 2017: अमेरिका के तीन वैज्ञानिकों को मिला भौतिकी का नोबेल पुरस्कार

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बैरी बैरिश(Barry C. Barish), किप थोर्ने (Kip S. Thorne) और रेनर वेस (Rainer Weiss)

बैरी बैरिश(Barry C. Barish), किप थोर्ने (Kip S. Thorne) और रेनर वेस (Rainer Weiss)

अमेरिकी खगोलविज्ञानियों बैरी बैरिश(Barry C. Barish), किप थोर्ने (Kip S. Thorne) और रेनर वेस (Rainer Weiss),   को गुरत्व तरंगों की खोज के लिए इस साल का भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है। उनकी यह खोज गहन ब्रह्मांड के दरवाजे खोलती है। अलबर्ट आइंस्टीन ने करीब एक सदी पहले अपनी सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत के तहत गुरत्व तरंगों का अनुमान लगाया था लेकिन 2015 में ही इस बात का पता लगा कि ये तरंगे अंतरिक्ष-समय में विद्यमान हैं।

तीनों वैज्ञानिकों ने लेजर इंर्टफेरोमीटर ग्रैविटेशनल-वेव ऑब्जर्वेटरी (लिगो) डिटेक्‍टर और गुरुत्‍वाकर्षण तरंगों के अध्‍ययन के लिए संयुक्त रूप से यह सम्‍मान दिया जाएगा। पुरस्कार की घोषणा के वक्त नोबेल कमेटी के प्रतिनिधि ने बताया कि इस साल यह पुरस्कार उस खोज के लिए दिया गया है, जिसने पूरी दुनिया को चौंका दिया।

ब्लैक होल के टकराने या तारों के केंद्र के विखंडन से यह प्रक्रिया होती है। नोबेल पुरस्कार विजेताओं का चयन करने वाली स्वीडिश रॉयल अकेडमी ऑफ साइंसेज के प्रमुख जी के हनसॉन ने कहा, उनकी खोज ने दुनिया को हिला दिया। उन्होंने सितंबर 2015 में यह खोज की थी और फरवरी 2016 में इसकी घोषणा की थी।

दशकों के वैज्ञानिक अनुसंधान के बाद यह ऐतिहासिक खोज हुई है। तभी से तीनों वैज्ञानिक खगोलशास्त्र के क्षेत्र में मिलने वाले सभी बड़े पुरस्कार अपने नाम करते आ रहे हैं। थोर्ने और वेस ने प्रतिष्ठित कैलिफॉर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी में संयुक्त रूप से लेजर इंटरफियरोमीटर ग्रेविटेशनल-वेब ऑब्जर्वेटरी (लीगो) बनाया था। इसके बाद बैरिश ने परियोजना को अंतिम रूप प्रदान किया। इस संस्थान को 1901 में नोबेल पुरस्कारों की शुरुआत के बाद से 18 बार ये प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुका है। करीब 1.3 अरब प्रकाशवर्ष दूर हुए घटनाक्रम के परिणामस्वरुप पहली बार गुरत्व तरंगों का प्रत्यक्ष प्रमाण मिला था।

अकादमी ने कहा, पृथ्वी पर जब सिग्नल पहुंचा तो बहुत कमजोर था लेकिन खगोलविज्ञान में यह बहुत महत्वपूर्ण क्रांति है। गुरत्व तरंगें अंतरिक्ष में सबसे प्रचंड घटनाक्रमों पर नजर रखने और हमारे ज्ञान की सीमाओं को परखने का पूरी तरह नया तरीका हैं। ब्लैक होल से कोई प्रकाश नहीं निकलता इसलिए उनका पता केवल गुरत्व तरंगों से चल सकता है। पुरस्कार में 90 लाख स्वीडिश क्रोनर यानी करीब 11 लाख डॉलर (करीब 7.20 करोड़ रुपये) की राशि प्रदान की जाएगी।

लगभग सौ वर्ष पहले 1915 मे अलबर्ट आइंस्टाइन (Albert Einstein)ने साधारण सापेक्षतावाद का सिद्धांत(Theory of General Relativity) प्रस्तुत किया था। इस सिद्धांत के अनेक पुर्वानुमानो मे से अनुमान एक काल-अंतराल(space-time) को भी विकृत(मोड़) कर सकने वाली गुरुत्वाकर्षण तरंगो की उपस्थिति भी था। गुरुत्वाकर्षण तरंगो की उपस्थिति को प्रमाणित करने मे एक सदी लग गयी और 11 फ़रवरी 2016 को लीगो ऑब्ज़र्वेटरी के शोधकर्ताओं ने कहा है कि उन्होंने दो श्याम विवरों (Black Holes)की टक्कर से निकलने वाली गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता लगाया है।

लिगो (LIGO / Laser Interferometer Gravitational-Wave Observatory) भौतिकी का एक विशाल प्रयोग है जिसका उद्देश्य गुरुत्वीय तरंगों का सीधे पता लगाना है। यह एमआईटी(MIT), काल्टेक(Caltech) तथा बहुत से अन्य संस्थानों का सम्मिलित परियोजना है। यह अमेरिका के नेशनल साइंस फाउण्डेशन (NSF) द्वारा प्रायोजित है।

मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फ़ॉर ग्रेविटेशनल फ़िज़िक्स और लेबनीज़ यूनिवर्सिटी के प्रॉफ़ेसर कार्स्टन डान्ज़मैन ने इस शोध को डीएनए के ढांचे की समझ विकसित करने और हिग्स पार्टिकल की खोज जितना ही महत्वपूर्ण मानते है। वे कहते है कि इस खोज मे नोबेल पुरस्कार छिपा है। इस खोज के महत्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इन्हें शताब्दि की सबसे बड़ी खोज माना जा रहा है। दशकों से वैज्ञानिक इस बात का पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि क्या गुरुत्वाकर्षण तरंगें वाकई दिखती हैं। इसकी खोज करने के लिए यूरोपियन स्पेस एजेंसी(ESA) ने “लीज पाथफाइंडर” नाम का अंतरिक्ष यान भी अंतरिक्ष में भेजा था।

आज से करीब सवा अरब साल पहले ब्रह्मांड में 2 श्याम विवरों (ब्लैक होल) में टक्कर हुई थी और यह टक्कर इतनी भयंकर थी कि अंतरिक्ष में उनके आसपास मौजूद जगह(अंतरिक्ष) और समय, दोनों विकृत हो गए। आइंस्टाइन ने 100 साल पहले कहा था कि इस टक्कर के बाद अंतरिक्ष में हुआ बदलाव सिर्फ टकराव वाली जगह पर सीमित नहीं रहेगा। उन्होंने कहा था कि इस टकराव के बाद अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण तरंगें उत्पन्न हुईं और ये तरंगें किसी तालाब में पैदा हुई तरंगों की तरह आगे बढ़ती हैं।

अब विश्व भर के वैज्ञानिकों को आइंस्टाइन की सापेक्षता के सिद्धांत (थिअरी ऑफ रिलेटिविटी) के प्रमाण मिल गए हैं। इसे अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ी सफलता माना जा रहा है। गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज से खगोल विज्ञान और भौतिक विज्ञान में खोज के नए दरवाजे खुलेंगे।

ध्यान रहे कि इसके पहले युग्म श्याम विवरों(Binary Black Holes) की उपस्थिति के प्रमाण थे, लेकिन इस खोज से उनकी उपस्थिति पुख्ता रूप से प्रमाणित हो गयी है और यह भी प्रमाणित हो गया है कि अतंत: वे टकराकर एक दूसरे मे विलिन हो जाते है।

इन दोनो श्याम विवरो का विलय से पहले द्रव्यमान 36 तथा 29 सौर द्रव्यमान के बराबर था। उनके विलय के पश्चात बने श्याम विवर का द्रव्यमान 62 सौर द्रव्यमान है। आप ध्यान दे तो पता चलेगा कि नये श्याम विवर का द्रव्यमान दोनो श्याम विवर के द्रव्यमान से कम है और 3 सौर द्रव्यमान के तुल्य द्रव्यमान कम है। ये द्रव्यमान गायब नही हुआ है, यह द्रव्यमान ऊर्जा के रूप मे परिवर्तित हो गया है और इसी ऊर्जा से गुरुत्वाकर्षण तरंगे उत्पन्न हुयी है। इस ऊर्जा की मात्रा अत्याधिक अधिक है, इतनी अधिक की सूर्य को इतनी ऊर्जा उत्सर्जित करने मे 150 खरब वर्ष लगेंगे। (नोट : 1 सौर द्रव्यमान – सूर्य का द्रव्यमान)।

लिगो (LIGO) ने गुरुत्वाकर्षण तरंगो को कैसे खोजा?

गुरुत्वाकर्षण तरंग बहुत से आकार और प्रकार मे आती है। लेकिन वे सभी की सभी अंतरिक्ष के आकार को न्युनाधिक मात्रा मे विकृत करती है। इसके कारण दो पिंडो के मध्य अंतरिक्ष मे आयी विकृति से दूरी कम ज्यादा होती है। इस दूरी के परिवर्तन को मापा कैसे जाये ? यह दो पिंडो के मध्य किसी पैमाने से उनकी दूरी मे आने वाले परिवर्तनो को मापने जैसा आसान नही है।

जिस जगह पर ये दोनो सुरंगे जुड़ी हुयी है उसके उपर एक शक्तिशाली लेजर उपकरण लगा हुआ है। यह लेजर उपकरण लेजर किरण को एक विशेष दर्पण पर डालता है और यह दर्पण इस लेजर किरण को विभाजित कर सूरंग के दोनो ओर भेजता है। सूरंग के दोनो सीरो के दर्पण से परावर्तित किरणो का अंत मे एक जांच उपकरण वापिस जोड़कर मापता है।

 

अधिक जानकारी के लिये निम्नलिखित लेख पढें

  1. गुरुत्वाकर्षण तरंग की खोज : LIGO की सफ़लता
  2. LIGO ने दूसरी बार गुरुत्वाकर्षण तरंग देखने मे सफ़लता पायी

 


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एक ब्रह्माण्ड या अनेक ब्रह्माण्ड(Universe or Multiverse)

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अनेक ब्रह्माण्ड(Multiverse)

अनेक ब्रह्माण्ड(Multiverse)

आज हम उस स्थिति में हैं कि अपने ब्रह्मांड की विशालता का मोटे तौर पर आकलन कर सकते हैं। हमारी विराट पृथ्वी सौरमंडल का एक साधारण आकार का ग्रह है, जो सूर्य नामक तारे के इर्दगिर्द परिक्रमा कर रही है। सौरमंडल का स्वामी होने के बावजूद सूर्य भी विशाल आकाशगंगा-दुग्धमेखला नाम की मंदाकिनी का एक साधारण और औसत आकार व आयु का तारा है। इस विराट ब्रह्मांड में हमारी आकाशगंगा की तरह लाखों अन्य आकाशगंगाएं भी हैं। अत: हमारा ब्रह्मांड आकाशगंगाओं का एक विशाल समूह है। आजकल के वैज्ञानिक यहाँ तक मानते हैं कि ब्रह्मांड एक नहीं बल्कि अनेक हैं। इसके पीछे उनका यह तर्क है कि दिक् (अंतरिक्ष) का कोई भी ओर-छोर नहीं है, इसलिए एक से अधिक ब्रह्मांड होने की सम्भावना है।

आख़िर हम यह कैसे कह सकते हैं कि हमारा ब्रह्मांड अनेक ब्रह्मांडों में से एक है?

निकोलस कोपरनिकस

निकोलस कोपरनिकस

अनेक ब्रह्मांड होने की संकल्पना में हमारी सदियों से दिलचस्पी रही है। निकोलस कोपरनिकस ने सर्वप्रथम यह बताया कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है तथा पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र में नहीं है। आगे ज्योदार्न ब्रूनो ने यह बताया कि सूर्य एक तारा है और ब्रह्मांड में अनगिनत तारे हैं। उन्होंने यहाँ तक कहा कि आकाश अनंत है, तथा हमारे सौरमंडल की तरह अनेक और भी सौरमंडल इस ब्रह्मांड में अस्तित्वमान हैं। 18वी सदी आते-आते दूसरे सौरमंडलों के होने की ब्रूनों की कल्पना को सामान्य रूप से अपना लिया गया। इसलिए सूर्य की ब्रह्माण्ड में विशिष्ट स्थिति पर खतरा मंडराने लगा, यह तब और भी स्पष्ट हो गया जब यह पता चला कि सूर्य भी हमारी आकाशगंगा के अरबों तारों में से एक है और यह वहां भी केंद्र में नहीं है। जब आधुनिक काल में ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बिग बैंग सिद्धांत की खोज हुई तब लोगों को यह लगा कि हो न हो हमारी आकाशगंगा ही ब्रह्मांड के केंद्र में है, जो एक महा-विस्फोट का केंद्र बनी। परन्तु ऐसा भी नहीं था, अगर हम सोचें कि किसी अन्य आकाशगंगा से हमारा ब्रह्मांड कैसा दिखाई देगा? उत्तर है कि हमारे इस नए प्रेक्षण स्थल से भी सभी आकाशगंगाएं दूर भागती दिखाई देंगी। अत: आज पूर्व-कोपरनिकस निष्कर्षों का कोई औचित्य नहीं रह गया है। वास्तव में कोपरनिकस के सूर्यकेंद्री सिद्धांत ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में ऐसी मांग उठाई, जैसी कभी उठाने की कल्पना भी नहीं की गयी थी! इसलिए वैज्ञानिकों को लगने लगा कि अनंत अंतरिक्ष में यह आवश्यक नहीं है कि एक ही ब्रह्मांड हो। इस सामान्य तर्क से एक से अधिक ब्रह्मांड होने की संकल्पना को बल मिला।

एक से अधिक ब्रह्मांड होने की अवधारणा के बारे में अक्सर यह दावा किया जाता है कि इसकी संकल्पना तो हमारे वेदों में भी है। मगर वेदों में वर्णित इस संकल्पना का कोई गणितीय आधार नहीं है, इसलिए ये तथ्यात्मक भी नहीं हैं। वहीं वर्तमान में जो वैज्ञानिक अनेक ब्रह्मांड होने का दावा करते हैं, प्रमाणस्वरूप उनके पास गणितीय आधार अवश्य होता है। इसलिए अनेक ब्रह्मांड होने की आधुनिक संकल्पना से प्राचीन भारतीय साहित्य की विशेषकर वेदों से समानता सतही मात्र है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक से अधिक ब्रह्मांड होने की बात सबसे पहले अमेरिकी दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने वर्ष 1895 में कही उन्होंने बहु-ब्रह्मांड के लिए सर्वप्रथम मल्टीवर्स शब्द का उपयोग भी किया, मगर आज की अनेक ब्रह्मांड की संकल्पना विलियम जेम्स के कल्पना से कहीं अधिक तथ्यगत है।
बिग बैंग समय रेखा

बिग बैंग समय रेखा

अनेक ब्रह्मांड होने की सम्भावनाओं पर बीसवी सदी में और इधर शुरू के वर्षों में काफी कार्य हुआ है। हमारे ब्रह्मांड के बारे में ऐसा कहा जाता है कि इसकी उत्पत्ति आज से तेरह अरब सत्तर करोड़ वर्ष पहले बिग बैंग नाम के महाविस्फोट से हुआ था। कहा जाता है कि हमारा संपूर्ण ब्रह्मांड एक अति-सूक्ष्म बिंदु में समाहित था। किसी अज्ञात कारण से इसी सूक्ष्म बिंदु से एक तीव्र विस्फोट हुआ तथा समस्त द्रव्य इधर-उधर छिटक गया। इस स्थिति में किसी अज्ञात कारण से अचानक ब्रह्मांड का विस्तार शुरू हुआ और यह भौतिक विज्ञानी ऐलन गुथ के अनुसार महास्फीति (महाविस्तार) की स्थिति से भी गुजरा। महास्फीति से अभिप्राय यह है कि ब्रह्मांड का यह विस्तार वर्तमान विस्तार दर की तुलना में अकल्पनीय तौर पर बहुत ही तीव्र गति से हुआ था। इस महाविस्तार को अभी तक ब्रह्मांड विज्ञान समझाने में पूर्णतया समर्थ नहीं है, परंतु वैज्ञानिकों का यह मानना है कि शुरुवाती ब्रह्मांड में अलग-अलग क्षेत्रों की विस्तारण दरें भी भिन्न-भिन्न रही होंगी और वे अपने अलग-अलग ब्रह्मांड भी बनाएं होंगे, जिनमें भौतिकी के नियम भी अलग-अलग रहे होंगे। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि इन क्षेत्रीय ब्रह्मांडों के बीच का अंतरिक्ष इतनी तीव्र गति से विस्तृत हो रहा है कि इन ब्रह्मांडों में से किन्हीं दो ब्रह्मांडों का सम्पर्क संभव नहीं है, यहाँ तक कि संदेश प्रकाश की गति से भी भेजा जाए तो भी नहीं! वैज्ञानिक कहते हैं कि भले ही ब्रह्मांड अलग-अलग हों, किंतु वे सदैव ऐसा नहीं रहेंगे। भविष्य में एक समय ऐसा भी आएगा कि जब वो एक-दूसरे के नजदीक आएंगे, और एक-दूसरे में विलीन हो जाएंगे। स्ट्रिंग सिद्धांत, जो दस आयामों की बात करता है को जब महाविस्तार सिद्धांत से मिलाया जाता है, तो वह यह भी बताता प्रतीत होता है कि एक महाब्रह्मांड में अनेकानेक शिशु ब्रह्मांड भी उपस्थित हो सकते हैं।

वैसे अनेक ब्रह्मांड होने की संकल्पना आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान के दो अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर भी देती प्रतीत होती है-
  • पहला यह कि बिग बैंग से पहले क्या था? तथा
  • दूसरा यह कि भौतिकी के नियम ऐसे ही क्यों हैं, जैसाकि हम जानते हैं?
पहले का उत्तर है कि इसके अनुसार असीमित बार बिग बैंग हुआ होगा, जिससे नया ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ होगा। तथा इसलिए (दूसरे का उत्तर) भौतिकी के नियमों की असीमित सम्भावनाएं बनी होंगी, और हमारे ब्रह्मांड के भौतिकी के ये नियम असीमित नियमों में से एक हैं। यदि हम मान लें कि वास्तव में ऐसे ब्रह्मांडों का अस्तित्व है तो हो सकता है कि वहां पर जीवन भी हो। यह दिलकश ख्याल ही हमे अपने जैसों को ढूढ़ने के लिए विचलित कर देता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने अनेक ब्रह्माण्ड होने की संभावना को लेकर कई प्रकार के सिद्धांत विकसित किये हैं, जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों का वर्णन हम आगे करेंगे।

समांतर ब्रह्मांड सिद्धांत

जब भी ट्रिगर दबाया जाता है, दोनो संभव परिणामो को समाविष्ट करने ब्रह्माण्ड का विभाजन हो जाता है और दो समांतर ब्रह्माण्ड बन जाते है।

जब भी ट्रिगर दबाया जाता है, दोनो संभव परिणामो को समाविष्ट करने ब्रह्माण्ड का विभाजन हो जाता है और दो समांतर ब्रह्माण्ड बन जाते है।

समांतर ब्रह्मांड की अवधारणा का विचार सर्वप्रथम वर्ष 1954 में प्रिंसटन विश्वविद्यालय के शोध छात्र हुग एवेरेट ने दिया था। उन्होंने कहा था कि हमारे अपने ब्रह्माण्ड की ही तरह दूसरे कई समांतर ब्रह्माण्ड मौजूद हो सकते हैं और वे सभी ब्रह्माण्ड हमारे ब्रह्माण्ड से संबंधित हो सकते हैं। एवेरेट की इस अवधारणा का वर्षों तक मजाक उड़ाया जाता रहा, लेकिन जब सैद्धांतिक वैज्ञानिक मैक्स टैगमार्क ने क्वांटम आत्महत्या नामक वैचारिक प्रयोग को प्रस्तावित किया, तभी से इसको गम्भीरता से लिया जाने लगा है। सामान्य भाषा में इस वैचारिक प्रयोग के अनुसार एक व्यक्ति अपने सिर पर बंदूक ताने बैठा रहता है। वह व्यक्ति घबराहट में बंदूक का ट्रिगर दबाता है। ट्रिगर दबाते ही ब्रह्मांड का विभाजन दो परिणामों के अनुसार हो जाता है। एक ब्रह्मांड में गोली चल जाती है और वह व्यक्ति मर जाता है, तो दूसरे ब्रह्मांड में गोली नहीं चलेगी और व्यक्ति जीवित रहेगा।

समांतर ब्रह्मांड सिद्धांत के अनुसार किसी भी क्रिया के सभी संभव परिणामों के अनुसार ब्रह्मांड का उतने ही भागों में विभाजन हो जाता है। प्रत्येक ब्रह्मांड मूल ब्रह्मांड का ही प्रतिरूप होता है, लेकिन किसी भी क्रिया का परिणाम हरेक ब्रह्मांड में अलग-अलग होता है। इसका अर्थ यह है कि जब आप कोई लाटरी निकालते हैं और यदि हम अपने इस ब्रह्मांड में हार जायेंगे तो किसी अन्य ब्रह्मांड में हम जीत भी जायेंगे। इसी प्रकार से किसी अन्य ब्रह्मांड में महात्मा गाँधी और अल्बर्ट आइन्स्टाइन जीवित होंगे, हिरोशिमा और नागासाकी को परमाणु बम की त्रासदी नहीं झेलनी पड़ी होगी, चाँद पर सर्वप्रथम जाने की रेस में सोवियत संघ विजयी हो गया होगा वगैरह-वैगरह। यह सब दिमाग को चकरा देने वाला है, क्योंकि इस हिसाब से हमारे ब्रह्मांड के भौतिकी के नियम उसके समांतर दूसरे ब्रह्मांड के नियमों से पूर्णतया अलग होंगे! दरअसल इस परीकल्पना के अनुसार किसी क्रिया के परिणाम केवल दो ब्रह्मांडीय भागों में ही नहीं विभाजित होते हैं, बल्कि अनंत ब्रह्मांडों में विभाजित होते हैं। जैसे अभी आप इस ब्रह्मांड में यह लेख पढ़ रहें हैं, हो सकता है कि किसी ब्रह्मांड में आपने यह लेख न पढ़ रहें हो, यह भी हो सकता है कि किसी ब्रह्मांड में आप यह लेख पढ़ चुके हों और किसी अन्य क्रियाकलाप में व्यस्त हों। इस प्रकार से अनंत सम्भावनाएं सृजित होती है इसलिए इस ब्रह्मांड में (जिसमे हम इस लेख को पढ़ रहे हैं) एक सम्भावना सच होती है, तो किसी अन्य ब्रह्मांड में इससे पूर्णतया भिन्न घटित घटनाएँ उस ब्रह्मांड की सच्चाई बन जाती हैं।
वर्तमान में समांतर ब्रह्मांड की अवधारणा के पक्ष में ब्रायन ग्रीन, मिचिओं काकू, स्टीफेन हाकिंग आदि जाने-माने भौतिक विज्ञानी खड़े हैं। इनमे से भी सबसे बड़े पक्षधर ब्रायन ग्रीन माने जाते हैं। हमें ब्रायन ग्रीन के अनेक ब्रह्मांड के सिद्धांत पर उनके कार्यों के बारे जानकारी उनकी पुस्तक ‘हिडन रियालिटी, पैरलल यूनिवर्सिज ऐंड द डीप लॉ ऑफ द कॉस्मोस’ से प्राप्त होती है। ग्रीन के अनुसार परंपरा से हमारा ब्रह्मांड हमारे लिए उस सब कुछ का जोड़ रहा है, जो कुछ उपस्थित है, लेकिन पिछले दशकों के शोध और अनुसंधान से पता चलता है कि सभी तारों, आकाशगंगाओं और सभी कुछ का यह जोड़, कहीं अधिक बड़े, ऐसे अस्तित्व का एक भाग है, जिसमे अनेक ब्रह्मांड सम्मिलित हो सकते हैं। इससे एक महा-ब्रह्मांड की संकल्पना का उदय होता है, जिसके अनुसार सभी ब्रह्मांड इस महा-ब्रह्मांड के अंदर समाहित हैं!
हुग एवेरेट को यह नहीं पता था कि समांतर ब्रह्मांड कहाँ हैं? और न ही आज के वैज्ञानिक इस विषय में ज्यादा जानते हैं। वैज्ञानिक डेलस एडम्स ने व्यंग्य करते हुए यह कहा था कि जब आप समांतर ब्रह्मांड की अवधारणा पर काम कर रहे होतें हैं तो दो बातें याद रखें- पहला यह कि ये ब्रह्मांड समांतर नहीं है और दूसरा यह कि ये वस्तुतः ब्रह्मांड हैं ही नहीं!

शिशु ब्रह्मांड सिद्धांत

शिशु ब्रह्माण्ड(baby universe)

शिशु ब्रह्माण्ड(baby universe)

क्वांटम भौतिकी के सिद्धांत, जो व्यष्टि ब्रह्मांड के अध्ययन से संबंधित है, निश्चित परिणामों की बजाय सम्भावनाओं के सन्दर्भ में ब्रह्मांड का वर्णन करते है। और इस सिद्धांत का गणित यह सुझाव देता प्रतीत होता है कि किसी भी स्थिति के सभी सम्भव परिणाम होते हैं – अपने अलग-अलग ब्रह्मांड में। उदाहरण के लिए आप एक चौराहे पर पहुंचतें हैं, जहाँ पर आप सही या बाएं रास्ते पर जा सकते हैं। तो वर्तमान ब्रह्मांड दो शिशु ब्रह्मांडों की वृद्धि करता है : एक वह जिसमे आप सही रास्ते पर जाते हैं, तो दूसरा वह जिसमे आप गलत रास्ते पर जाते हैं। यह अवधारणा मूलतः समांतर ब्रह्मांड की अवधारणा से संबंधित है। इस सिद्धांत के अनुसार शिशु ब्रह्मांडों की उत्पत्ति उसके अभिवावक महा-ब्रह्मांड से हुई है।

बुलबुला ब्रह्मांड सिद्धांत

बुलबुला ब्रह्मांड

बुलबुला ब्रह्मांड

ब्रह्मांड विज्ञान में महास्फिति नामक एक अवधारणा है, जिसके अनुसार बिग बैंग से ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बाद यह तेजी से विस्तारित हुआ। प्रभाव में यह एक गुब्बारे की तरह बढ़ रहा है, अर्थात् जब हम हम गुब्बारे को फुलाते हैं तो उसके बिंदियो के बीच दूरियों को बढ़ते हुए देखते हैं। टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक अलेक्ज़ेंडर विलनेकिन द्वारा प्रस्तावित आदिम महास्फिति से पता चलता है कि अन्तरिक्ष असंतुलित अर्थव्यवस्था की भांति अराजकता की स्थिति में तीव्र गति से विस्तृत हो रही है, और बुलबुलों की उत्पत्ति हो रही है। यह विस्तार ही बुलबुलों को जन्म दे रहा है, जोकि नए ब्रह्मांडों की उत्पत्ति का कारण है। इस प्रकार हमारे स्वयं के ब्रह्मांड में जहाँ महास्फिति समाप्त हो गयी है, जिसके फलस्वरूप तारों और आकाशगंगाओं का निर्माण हुआ और हो रहा है। ब्रह्मांड के विस्तार ने ब्रह्मांड को एक बुलबुला बना दिया और इस बुलबुले से नये ब्रह्मांडों की उत्पत्ति हुई, जिनमें न कोई आपसी जुड़ाव था और न ही उनके भौतिकी के नियम-कानून एक हैं। आसान शब्दों में कहें तो प्रत्येक बिग बैंग से एक फैलते बुलबुले का जन्म हुआ होगा और हमारा ब्रह्मांड उनमें से एक विस्फोट की उपज है।

अनेक ब्रह्मांड के बारे में वर्तमान में प्रचलित कुछ प्रमुख सिद्धांतों की ऊपर हमने चर्चा की है। मुश्किल यह है कि इसमें से किसी भी सिद्धांत को सत्य की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता है, क्योंकि यदि दूसरे ब्रह्मांड अस्तित्व में हों भी तो वर्तमान विज्ञान उनसे सम्पर्क करने में असमर्थ है। बहरहाल, हम वर्तमान बहु-ब्रह्मांडीय सिद्धांतों को बौद्धिक विलसिता या कोरी कल्पना नहीं कह सकते हैं क्योंकि गणितीय समीकरण हमें यह अजीबोगरीब संकेत देते नज़र आ रहें हैं कि एकाधिक ब्रह्मांड हो सकते हैं! हालाँकि इन सिद्धांतों को हम तब तक नहीं स्वीकार करेंगे, जब तक कि वैज्ञानिक विधि के अनुसार प्रयोगों द्वारा इसके पक्ष में प्रभावी साक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाते हैं। फिलहाल अनेक ब्रह्मांड होने की संकल्पना पर वैज्ञानिक गम्भीरतापूर्वक काम कर रहे हैं। और वे उस बुनियादी सिद्धांत (थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग) को ढूढने का प्रयास कर रहें हैं, जो प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक स्थिति में लागू हों। तबतक के लिए आप ब्रायन ग्रीन की तरह दैनिक जीवन की सामान्यता से बाहर निकलर ब्रह्मांड को उसके विशालतम रूप (महाब्रह्मांड रूप) को गणितीय समीकरणों के अधीन देखकर आनन्दित महसूस कीजिये।

लेखक के बारे मे

प्रदीप

प्रदीप

श्री प्रदीप कुमार यूं तो अभी  विद्यार्थी हैं, किन्तु विज्ञान संचार को लेकर उनके भीतर अपार उत्साह है। आपकी ब्रह्मांड विज्ञान में गहरी रूचि है और भविष्य में विज्ञान की इसी शाखा में कार्य करना चाहते हैं। वे इस छोटी सी उम्र में न सिर्फ ‘विज्ञान के अद्भुत चमत्कार‘ नामक ब्लॉग का संचालन कर रहे हैं, वरन फेसबुक पर भी इसी नाम का सक्रिय समूह संचालित कर रहे हैं।


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हम तारों की धूल है : बिग बैंग से लेकर अब तक की सृजन गाथा

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मान लीजिये आपको एक कार बनानी है तो आपको क्या क्या सामग्री चाहिये होगी ? एक इंजन , कार का फ्रेम , पहिये , कुछ इलेक्ट्रॉनिक्स , सीट्स, ट्रांसमिशन सिस्टम , स्क्रूज , ईंधन और भी बहुत सारा सामान। और अब अगर मैं कहु की आपको एक इंजन बनाना है तब आपको चहियेगा बहुत सी धातुएँ जिनसे आप इंजन बनाएंगे पर अगर आपको धातु ही बनानी हो तब?

या सोचिये की धरती पर इतने सारे तत्व है ये सब कहाँ बनते है या बने होंगे? जब कभी बिग बैंग की घटना घटी होगी तब ब्रह्माण्ड में केवल इलेक्ट्रान , प्रोटोन और न्यूट्रॉन रहे होंगे अगर स्ट्रिंग थ्योरी को माने तो शायद इनसे पहले भी कुछ रहा होगा पर फिलहाल के लिए इलेक्ट्रान , प्रोटोन और न्यूट्रॉन की मौज़ूदगी ही मान लेते है और ये तीनो भी अलग अलग रहे होंगे। इसके अलावा बहुत ज्यादा तापमान और बेहिसाब ऊर्जा। तब और कुछ नहीं था न ही पृथ्वी न ही सूरज , न ही कोई मन्दाकिनी न ही सितारे कुछ नहीं बस केवल ये तीनो कण इलेक्ट्रान , प्रोटोन और न्यूट्रॉन बहुत तेजी से इधर उधर घूमते हुए। इनके अलावा कोई और कण रहे होंगे तो फिलहाल उन्हें नजरअंदाज करते है।

प्रश्न ये आता है कि उस स्थिति से ये सब कैसे बना जो आज है ?

कैसे बने चाँद , सूरज और सितारे और ये पृथ्वी ?

परमाणु केण्द्रक

परमाणु केण्द्रक

इसे समझने के लिए सबसे पहले इस बात को समझ लीजिये कि सभी तत्वों में इलेक्ट्रान, प्रोटोन और न्यूट्रॉन एक से ही है केवल परमाणु केंद्रक मे इनकी अलग अलग संख्याओं के अनुसार अलग अलग तत्व बनते है। किसी तत्व के गुणधर्म इस बात से तय होते है कि उसका परमाणु कैसा है और परमाणु के दो आधारभूत गुणधर्म परमाणु संख्या और परमाणु भार इस बात पर निर्भर करते है कि उसमे इलेक्ट्रान, प्रोटोन और न्यूट्रॉन की संख्या कितनी है। इसका मतलब ये है की आप के अंदर भी वही इलेक्ट्रान. प्रोटोन और न्यूट्रॉन है जो मेरे अंदर है या जो दूर किसी सितारे के अंदर है या वह किसी ग्रह पर रहने वाले एलियन के अंदर।

कहने का त्तात्पर्य यह है की हम सबका सृजन एक है स्रोत से हुआ है। सभी तत्व एक ही स्रोत से बने है।

हायड्रोजन संलयन से हिलियम तथा ऊर्जा का निर्माण

हायड्रोजन संलयन से हिलियम तथा ऊर्जा का निर्माण

हाइड्रोजन ब्रह्माण्ड का सबसे साधारण तत्व है। जो एक इलेक्ट्रान और एक प्रोटोन से बना है। हाइड्रोजन का बनना भी ब्रह्माण्ड के काफी ठंडा होने के बाद ही संभव हो पाया होगा। लेकिन फिर भी ये भारी तत्वों के बनने की विधि से अपेक्षाकृत आसान रहा होगा। हीलियम का निर्माण भी उसी दौर में शुरू हुआ था।

बिग बैंग के करीब चालीस करोड़ साल बाद पहले सितारे बने होंगे ये सितारे हाइड्रोजन के बड़े बड़े गोले रहे होंगे और इनमे लगभग हाइड्रोजन और हीलियम रही होगी। इसके बाद के तत्व लिथियम, बेरेलियम, बाॅरान, कार्बन, आक्सीजन, नाइट्रोजन आदि का निर्माण इन सितारों के केन्द्र में शुरू हुआ था। आपके मोबाइल की लिथियम आयन बैटरी का लिथियम क्या पता कब बना होगा। सितारों के केन्द्र में उत्पन्न अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा और दाब ही इन हल्के परमाणुओं को मिलाकर भारी परमाणुओं में बदलते हैं और इससे उत्पन्न ऊर्जा प्रकाश, ऊष्मा आदि के रूप में बाहर निकलती हैं। इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहा जाता है।

किसी तारें में नाभिकीय संलयन शुरू होने के लिए उसका द्रव्यमान इतना होना चाहिए कि केन्द्र में इतना दाब उत्पन्न हो सके जो दो हाइड्रोजन के परमाणुओं को संलयित करा कर हीलियम में बदल सके और इसके बाद और भारी तत्वों के परमाणु बनाये जा सके ।

अगर मैं आपको दो हाइड्रोजन के परमाणु देकर कहु की इन्हे मिलकर हीलियम बना दीजिये तो ये आसान काम नहीं रहेगा। चलिए कुछ और आसान काम देता हूँ। आप ऐसा करिये अपने पास रखी किसी चीज को छू कर दिखाइए। ये आसान काम था? – नहीं। बल्कि ये हाइड्रोजन के दो परमाणुओं को मिला कर हीलियम में बदल देने से भी मुश्किल काम है। असलियत में आपने उस चीज को छुआ ही नहीं और आप किसी चीज को छू भी नहीं सकते। जब दो वस्तुए परस्पर संपर्क में रखी जाती है तो सबसे पहले उनका इलेक्ट्रान क्लाउड संपर्क में आते है अब क्योंकि इलेक्ट्रान क्लाउड ऋणात्मक आवेशित होते है तो एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते है और बीच में कुछ कुछ न जगह बच ही जाती है। कोई परमाणु भी अपने आप में बहुत खाली जगह लिए होता है। अब अगर दो परमाणुओ को आपस में मिलाना चाहते है तो उन्हें परमाण्विक दूरी (10 -15 मीटर ) तक पास लाना पड़ता है और ऐसा करने के लिए बहुत अधिक दाब और ताप चाहिए होता है क्यूंकि इस दूरी पर नाभिकीय बल काम करना शुरू कर देते है और नाभिकीय बल कुदरत के सबसे शक्तिशाली बल है। जो लिए चाहिए ये ऊर्जा या तो किसी नाभिकीय भट्टी में बनाई जा सकती है या किसी सितारे के पेट में होती है। ( सितारे के पेट मतलब उसकी कोर से है। ) क्योंकि इतना दाब और ताप किसी तारे के केंद्र में ही संभव हो पाता है जहाँ तारे की समस्त गैसों का दाब गुरुत्वाकर्षण के कारण इतना ताप और दाब उत्पन्न कर देता है।

परमाणु जितने भारी तत्व के होंगे उन्हें मिलाकर नया तत्व बनाना उतना ही मुश्किल होगा। इसीलिए हाइड्रोजन के दो परमाणुओं को मिलाना किसी वस्तु को छू सकने से अपेक्षाकृत आसान काम है।

तारों मे नाभिकिय संलयन द्वारा हल्के तत्वों का निर्माण

तारों मे नाभिकिय संलयन द्वारा हल्के तत्वों का निर्माण

तारें अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करते हैं परन्तु फिर भी किसी तारे की भी एक सीमा होती है। इसे आप ऐसे समझ सकते हैं। हाइड्रोजन का संलयन करने के लिए किसी तारे का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान का केवल 1/100 भाग होना चाहिए। इतना द्रव्यमान होने पर उस तारे के केन्द्र में हाइड्रोजन का संलयन शुरू हो जायेगा। वही नियॉन का संलयन शुरू करने के लिए उसका द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान का कम से आठ गुना ज्यादा होना चाहिए। सूर्य का द्रव्यमान जितना है इसमें अधिक मात्रा में हाइड्रोजन ही हीलियम में बदल रही है। इसे प्रोटोन प्रोटोन साइकिल कहा जाता है। सूर्य से उत्पन्न ऊर्जा का 99 प्रतिशत इसी क्रिया से बनता है। इसके बाद की जो क्रिया है जिसमें हीलियम के तीन नाभिक संलयित होकर कार्बन में बदल जाते हैं उस प्रक्रिया का सूर्य में होना संभव नहीं है। परंतु फिर भी सूर्य की कुल ऊर्जा का करीब 0.8 प्रतिशत CNO साइकिल से आता है जिसमें कुछ भारी तत्व कार्बन, नाइट्रोजन और आक्सीजन का प्रोटोन के साथ संलयन होता है।

परंतु जब कोई तारा अपने अंतिम समय में पहुंचता है तो इसकी कोर सिकुडना शुरू कर देती है और तापमान बढ़ने लगता है। जबकि इसकी सतह फैलती है। यह बात तारे के द्रव्यमान पर निर्भर करती है कि उसका अंत सुपरनोवा बनकर होगा या नहीं। सूर्य सुपरनोवा विस्फोट नहीं कर पायेगा। इसकी कोर हीलियम में बदल जायेगी और फिर कार्बन में तथा इसके अलावा नाइट्रोजन, आक्सीजन आदि तत्व भी इसकी कोर में बन पायेंगे।

सुपरनोवा के अवशेष

सुपरनोवा के अवशेष

जो तारे सूर्य से कई गुना ज्यादा द्रव्यमान के हैं उनकी कोर अंत में लोहे में बदल जाती है। लोहे  के बाद के तत्व तारें के केन्द्र में नहीं बन पाते हैं इन्हें बनने के अधिक ऊर्जा चाहिए होती है। ये ऊर्जा किसी सुपरनोवा विस्फोट में उत्पन्न होती है। भारी तत्व किसी सुपरनोवा के दौरान ही बन पाता है और इसी विस्फोट से ये तत्व सुदूरवर्ती अंतरिक्ष में फेंक दिये जाते हैं। वही से ये तत्व पृथ्वी जैसे ग्रह पर पहुंच पाते हैं। इनके बनने की क्रिया काफी तीव्र गति से होती है और बहुत भारी तारे ही एक अच्छे खासे सुपरनोवा विस्फोट को कर पाते हैं।

इसके अलावा भी एक और विधि रहती हैं भारी तत्व के बनने की, इस विधि में किसी न्यूट्रान पर दूसरा न्यूट्रान आकर जुड़ जाता है और तब तक और न्यूट्रान जुड़ते रहते जब यह जुड़ाव स्थायी बना रहता है जैसे ही यह जुड़ाव अस्थाई होता है तभी इससे बीटा क्षय होता है और एक न्यूट्रान बीटा कण का त्याग कर प्रोटोन में बदल जाता है। इससे नाभिक में फिर से ‌‌सि्थरता आ जाती है। परन्तु यह क्रिया बड़ी धीमी गति से होती है। इस विधि में भी अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा चाहिए होती है परन्तु धीमी दर से और इसीलिए साधारण से कुछ बड़े तारें भी कुछ मात्रा में भारी तत्वों का निर्माण कर पाते हैं लेकिन यह मात्रा बहुत कम होती है । इसीलिए ब्रह्मांड में इन तत्वों की बहुत कम मात्रा पायी जाती है। अधिकतर भारी तत्व इसी तरह से बने हैं। चांदी, आयोडीन, जेनाॅन , इरीडियम, प्लेटिनम, गोल्ड, बिस्मिथ आदि तत्व इसी तरह बने हुए हैं। यह क्रिया सूर्य पर तब और तेजी से होगी जब यह रक्तदानव की अवस्था में पहुंच जायेगा।

“तो इस तरीके से हम सब सितारों की कोर में जन्मे थे। जैसा कि कार्ल सेगन ने कहा है।”

लेखक : भारत मित्तल


आधुनिक खगोलशास्त्र के पितामह : एडवीन हबल

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एडवीन हबल( Edwin Hubble)

एडवीन हबल( Edwin Hubble)

एडविन हबल ब्रह्मांड के विस्तार सिद्धांत के प्रवर्तक और आधुनिक खगोल विज्ञान के पितामह थे । हबल बीसवीं सदी के अग्रणी खगोलविदों में से एक थे । उन पर ही हबल अंतरिक्ष टेलीस्कोप का नामकरण हुआ था । 1920 के दशक में हमारी अपनी मंदाकिनी(milky way) आकाशगंगा के परे अनगिनत आकाशगंगाओं की उनकी खोज ने ब्रह्मांड की और उसके भीतर हमारे वजूद की समझ में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया था ।

एडविन हबल (1889-1953) का जन्म मार्सफिल्ड, मिसौरी में हुआ । अपने पहले जन्मदिन से पहले उन्हें व्हीटॉन, इलिनोइस ले जाया गया । उन्होंने शिकागो के विश्वविद्यालय में गणित और खगोल विज्ञान का अध्ययन किया और 1910 में विज्ञान की स्नातक डिग्री अर्जित की । वें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के पहले रोड्स विद्वानों में से एक थे, जहां उन्होंने कानून का अध्ययन किया । प्रथम विश्व युद्ध में संक्षेप सेवा के बाद, वह शिकागो विश्वविद्यालय लौट आए और 1917 में अपनी डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित की । माउंट विल्सन वेधशाला में एक पूरे लंबे कैरियर के बाद 28 सितंबर,1953 को सैन मैरिनो, कैलिफोर्निया में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई ।

हबल ट्यूनिंग फोर्क डायग्राम (Hubble, Tuning Fork)

हबल ट्यूनिंग फोर्क डायग्राम (Hubble, Tuning Fork)

हबल के समय के ज्यादातर खगोलविदों की सोच थी कि ग्रहों, अनगिनत सितारों और नीहारिकाओं से भरापूरा समूचा ब्रह्मांड मंदाकिनी(मिल्की वे) आकाशगंगा के भीतर समाहित है । हमारी आकाशगंगा ही समस्त ब्रह्मांड का पर्याय बन गई थी । 1923 में हबल ने एंड्रोमेडा(देव्यानी) निहारिका नामक आकाश के एक धुंधले पट्टे पर हूकर दूरबीन का प्रशिक्षण किया । उन्होंने पाया कि एंड्रोमेडा भी हमारी आकाशगंगा की ही तरह सितारों से भरी हुई है, लेकिन केवल मंद तारों से । उन्होंने वहां एक सितारा देखा जो सेफिड चर(cepheid variable) का था जो कि परिवर्ती चमक के तारों का एक प्रकार है, जिसका इस्तेमाल दूरी को मापने के लिए किया जा सकता है । इसकी सहायता से हबल ने निष्कर्ष निकाला कि एंड्रोमेडा निहारिका कोई नजदीकी तारा समूह नहीं बल्कि एक अन्य समूची आकाशगंगा है जिसे अब एंड्रोमेडा आकाशगंगा कहा जाता है । बाद के वर्षों में उन्होंने अन्य नीहारिकाओं के साथ इसी तरह की खोजें की । 1920 के दशक के अंत तक, अधिकाँश खगोलविद आश्वस्त थे कि हमारी मंदाकिनी आकाशगंगा( मिल्की वे) अकेली नहीं वरन ब्रह्मांड की लाखों आकाशगंगाओं में एक थी । यह खोज ब्रम्हांड की समझ की हमारी सोच में बदलाव का एक अहम् मोड़ साबित हुई ।

हबल तो एक कदम आगे चले गए । उस दशक के अंत तक उन्होंने परस्पर तुलना करने लायक पर्याप्त आकाशगंगाओं की खोज कर ली। उन्होंने आकाशगंगाओं को अण्डाकार, सर्पिल और पट्टीदार सर्पिल में वर्गीकृत करने के लिए एक प्रणाली बनाई । इस प्रणाली को हबल ट्यूनिंग फोर्क डायग्राम कहा जाता है जिसके एक विकसित रूप का आज प्रयोग किया जाता है ।

लेकिन सबसे आश्चर्यजनक खोज 46 आकाशगंगाओं के स्पेक्ट्रा के हबल के अपने अध्ययन के परिणामस्वरूप हुई और विशेष रूप से उन आकाशगंगाओं की हमारी अपनी मिल्की वे आकाशगंगा के सापेक्ष डॉप्लर वेग से । हबल ने पाया कि एक दूसरे से अलग आकाशगंगाएं जितनी ज्यादा दूर है वह उतनी ही तेजी से एक दूसरे से दूर जा रही है । इस अवलोकन के आधार पर हबल ने निष्कर्ष निकाला कि ब्रह्मांड समान रूप से फैल रहा है । कई वैज्ञानिकों ने भी आइंस्टीन के सामान्य सापेक्षता के आधार पर इस सिद्धांत को पेश किया था । लेकिन 1929 में प्रकाशित हबल डेटा ने वैज्ञानिक समुदाय को आश्वत करने में मदद की ।

हबल और माउंट विल्सन पर उनके सहयोगी मिल्टन हमसन ने ब्रह्मांड के विस्तार की दर 500 किलोमीटर प्रति सेकंड प्रति मेगापारसेक होने का अनुमान लगाया ( एक मेगापारसेक, या दस लाख पारसेक की एक दूरी लगभग 32.6 लाख प्रकाश वर्ष के बराबर है, तो एक मेगापारसेक दूर की आकाशगंगा की तुलना में दो मेगापारसेक दूर की आकाशगंगा की हमसे दूर होने की गति दोगुनी होगी )। यह अनुमान हबल नियतांक कहलाता है ।

बिग बैंग थ्योरी और एडविन हबल

1929 मे एडवीन हबल ने एक आश्चर्यजनक खोज की, उन्होंने पाया की अंतरिक्ष में आप किसी भी दिशा मे देखें आकाशगंगाएं और अन्य आकाशीय पिंड तेजी से एक दूसरे से दूर हो रहे हैं। दूसरे शब्दो मे ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है। इसका मतलब यह है कि इतिहास मे ब्रह्मांड के सभी पदार्थ आज की तुलना में एक दूसरे से और भी पास रहे होंगे। और एक समय ऐसा रहा होगा जब सभी आकाशीय पिंड एक ही स्थान पर रहे होंगे। खगोलशास्त्रियों ने उन परिस्थितियों का विश्लेषण करने का प्रयास किया है कि कैसे ब्रह्मांडिय पदार्थ एक दूसरे से एकदम पास होने की स्थिती से एकदम दूर होते जा रहे हैं। इतिहास में किसी समय , शायद 10 से 20 खरब साल पूर्व, ब्रम्हांड के सभी कण एक दूसरे से एकदम पास-पास थे। वे इतने पास-पास थे कि वे सभी एक ही जगह थे, एक ही बिन्दु पर। सारा ब्रह्मांड एक ही बिन्दु की शक्ल में था। यह बिन्दु अत्याधिक घनत्व का, अत्यंत छोटा बिन्दु था। ब्रम्हांड का यह बिन्दु रूप अपने अत्यधिक घनत्व के कारण अत्यंत गर्म रहा होगा। इस स्थिती में भौतिकी, गणित या विज्ञान का कोई भी नियम काम नहीं करता है। यह वह स्थिती है जब मनुष्य किसी प्रकार अनुमान या विश्लेषण करने मे असमर्थ है। काल या समय भी इस स्थिती मे रुक जाता है, दूसरे शब्दों में काल और समय के कोई मायने नहीं रखते हैं। इस स्थिती मे किसी अज्ञात कारण से अचानक ब्रम्हांड का विस्तार होना शुरू हुआ। एक महाविस्फोट के साथ ब्रह्मांड का जन्म हुआ और ब्रह्मांड में पदार्थ ने एक दूसरे से दूर जाना शुरू कर दिया। इस सिद्धांत को बिग बैंग थ्योरी का नाम दिया गया, जोकि ब्रह्माण्ड के जन्म संबधित सबसे अधिक मान्य सिद्धांत है।

यह चित्र ब्रह्मांड की समय रेखा दर्शाता है, जिसमे बायें वर्तमान दर्शाया गया है जबकी दायें अब से 13.8 अरब वर्ष पुराने बिग बैंग की स्थिति है।

यह चित्र ब्रह्मांड की समय रेखा दर्शाता है, जिसमे बायें वर्तमान दर्शाया गया है जबकी दायें अब से 13.8 अरब वर्ष पुराने बिग बैंग की स्थिति है।

हबल अंतरिक्ष दूरबीन

HST, Hubble

हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला

हबल अंतरिक्ष टेलीस्कोप को 1990 में शुरू किया गया था, उसके प्रमुख लक्ष्यो में एक हबल नियतांक की सही व्याख्या करनी है । 2001 में, एक टीम ने भूमि आधारित ऑप्टिकल दूरबीनों के साथ साथ, हबल के साथ सुपरनोवा का अध्ययन कर 72 ± 8 किमी / सेकण्ड/ मेगापारसेक की एक दर स्थापित की । 2006 में, नासा के WMAP उपग्रह के साथ ब्रह्मांडीय सुक्ष्मतरंग पृष्ठभूमि का अध्ययन कर रही एक टीम ने इस माप को सुधार कर 70 किमी / सेकण्ड/ मेगापारसेक किया । हबल दूरबीन की सहायता से यह भी पता चला कि न केवल ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है, विस्तार में तेजी भी है । इस त्वरण के लिए उत्तरदायी रहस्यमय बल को अदृश्य ऊर्जा करार दिया है ।

हबल दूरबीन ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी परिवर्तन लाते हुए ब्रह्मांड के बारे में हमारी समझ को बदल डाला है। सृष्टि के आरंभ और उम्र के बारे में हबल ने अनेक नए तथ्यों से हमें अवगत कराया है। इसकी नवीनतम उपलब्धि ब्रह्मांड की उम्र के बारे में सबूत जुटाने की है।

हबल के सहारे खगोलविदों की एक टोली ने 7000 प्रकाश वर्ष दूर ऊर्जाहीन अवस्था की ओर बढ़ते प्राचीनतम माने जाने वाले तारों के एक समूह को खोज निकाला है। इन तारों के बुझते जाने की रफ़्तार के आधार पर ब्रह्मांड की उम्र 13 से 14 अरब वर्ष के बीच आँकी गई है। इसके अतिरिक्त पिछले 12 वर्षों के दौरान इस दूरबीन ने सुदूरवर्ती अंतरिक्षीय पिंडों के हज़ारों आकर्षक चित्र भी उपलब्ध कराए हैं।

क़रीब सौ साल पहले अमरीका में खगोलविदों ने परावर्तक(रिफ़्लेक्टरों) पर आधारित विशाल दूरबीनों का निर्माण आरंभ किया। उन दूरबीनों में से एक का माउंट विल्सन रिफ़्लेक्टर 100 ईंच आकार का था, जिसे उस समय की सबसे बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियों में से माना जा रहा था। उस विशाल दूरबीन को एडविन हबल नामक खगोलविद ने स्थापित किया था, जिनके सम्मान में पहली अंतरिक्ष दूरबीन को हबल दूरबीन कहा गया। अपनी दूरबीन के सहारे एडविन हबल ने साबित किया कि ब्रह्मांड का लगातार फैलाव हो रहा है। उनकी इस खोज को खगोल विज्ञान में हबल के नियम के नाम से जाना जाता है।

बाद में ब्रह्मांड की उम्र जानने की जिज्ञासा ने खगोलविदों को और बड़ी दूरबीनों के निर्माण के लिए प्रेरित किया और 200 ईंच आकार की रिफ़्लेक्टर युक्त दूरबीनें भी बनीं। लेकिन उन्हें एक ऐसी दूरबीन चाहिए थी जो धरती के वायुमंडल के व्यवधानों से अप्रभावित रहा और इस तरह अंतरिक्ष दूरबीन की बात सामने आई। लेकिन खगोलविदों का यह सपना 1990 में साकार हो सका, जब डिस्कवरी शटल ने हबल दूरबीन को अंतरिक्ष में पहुँचाया गया।

हालांकि खगोलविद एडविन हबल के सपनों को साकार करने वाली इस दूरबीन पर अमरीका में 1970 के दशक में ही काम शुरू हो चुका था। बाल्टिमोर, अमरीका के स्पेस टेलीस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट में हबल दूरबीन का विकास किया गया। अमरीकी अंतरिक्ष शटल चैलेंजर की दुर्घटना के बाद कुछ वर्षों के लिए थमे अंतरिक्ष ट्रैफ़िक ने हबल परियोजना को बाधित किया। हबल अंतरिक्ष दूरबीन के कहीं विशाल आकार की परिकल्पना की गई थी, लेकिन अंतत: यह मात्र 96 ईंच आकार की परावर्तक सतह वाली दूरबीन साबित हुई। लेकिन वायुमंडल से दूर अंतरिक्ष में होने के कारण हबल दूरबीन धरती पर उपलब्ध कहीं बड़ी दूरबीनों ज़्यादा प्रभावी साबित हो रही है।

इसकी नियमित रूप से सर्विसिंग की जाती रही है। इसके लिए अमरीकी अंतरिक्ष संस्था नासा के अंतरिक्ष यानों के सहारे अंतरिक्षयात्रियों को हबल तक पहुँचाया जाता है।

तकनीकी तथ्य

  • नासा ने हबल दूरबीन को अंतरिक्ष में स्थापित करने में क़रीब ढाई अरब डॉलर ख़र्च किए हैं। इसकी एक सर्विसिंग पर लगभग 50 करोड़ डॉलर की लागत आती है।
  • धरती की सतह से 600 किलोमीटर ऊपर चक्कर लगा रही हबल 11 टन वज़न की है। धरती का एक चक्कर लगाने में इस क़रीब 100 मिनट लगते हैं।
  • इसकी लंबाई 13.2 मीटर और अधिकतम व्यास 4.2 मीटर है।
  • हबल दूरबीन प्रतिदिन 10 से 15 गिगाबाइट आँकड़े जुटाती है।
  • वर्ष 2009 में संपन्न पिछले सर्विसिंग मिशन के बाद उम्मीद है कि यह वर्ष 2030-40 तक काम करता रहेगा|

अंत में, एडविन हबल ने एक दूरबीन के साथ अपने नाम को सार्थक किया और ब्रह्मांड के विषय में हमारी समझ को बदल कर रख दिया । हबल अंतरिक्ष टेलीस्कोप के रूप में खोज की उनकी भावना आज भी जीवित है ।

कुछ हबल चित्रों को स्वयं देखने के लिए, हबल चित्र गैलरी पर जाएं ।

हबल दूरदर्शी पर कुछ लेख

  1. भाग 1 :हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला चित्र कैसे लेती है?
  2. भाग 2 : हब्बल दूरबीन द्वारा प्रकाश और फिल्टरो का प्रयोग
  3. भाग 3 : प्राकृतिक, प्रतिनिधि तथा उन्नत रंग
  4. 25 अप्रैल को हबल अंतरिक्ष वेधशाला के 25 वर्ष पूरे होने पर विशेष
  5. हबल दूरबीन के शानदार 25 वर्ष पूरे
  6. हबल अंतरिक्ष दूरबीन : जब 1.6 अरब डॉलर के प्रोजेक्ट को बर्बाद होने से बचाया गया!

भौतिक विज्ञान को अनिश्चित कर देने वाले वर्नेर हाइजेनबर्ग

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वर्नेर हाइजेनबर्ग(Werner Heisenberg)

वर्नेर हाइजेनबर्ग(Werner Heisenberg)

गणित में बेहद रूचि रखने वाले वर्नर हाइजेनबर्ग (Werner Heisenberg) भौतिकी की ओर अपने स्कूल के अंतिम दिनों में आकृष्ट हुए और फिर ऐसा कर गये जिसने प्रचलित भौतिकी की चूलें हिला दीं। वे कितने प्रतिभाशाली रहे होंगे और उनके कार्य का स्तर क्या रहा होगा, इसका अंदाज इस बात से लगता है कि जिस क्वांटम यांत्रिकी को उन्होंने मात्र 23 की उम्र में गढ़ा, उसके लिये उन्हें मात्र 31 वर्ष की उम्र में ही नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

अपने मौलिक चिंतन से हाइजेनबर्ग ने ने अनिश्चितता का सिद्धांत(Uncertainty principle) प्र्स्तुत किया।इस सिद्धांत को उन्होंने इस प्रकार बताया:

यह पता कैसे चलेगा कि कोई कण (पार्टिकल) कहाँ है? उसे देखने के लिए हमें उसपर प्रकाश फेंकना पड़ेगा अर्थात हमें उसपर फ़ोटॉन डालने होंगे। जब फ़ोटॉन उस पार्टिकल से टकरायेंगे तब उस टक्कर के परिणामस्वरूप कण(पार्टिकल) की स्थिति परिवर्तित हो जायेगी। इस तरह हम उसकी स्तिथि को नहीं जान पाएंगे क्योंकि स्थिति को जानने के क्रम में हमने स्तिथि में परिवर्तन कर दिया।

पांसे

ईश्वर पासे नहीं फेंकता !(God doesn’t play dice!)

तकनीकी स्तर पर यह सिद्धांत कहता है कि हम कण(पार्टिकल) की स्तिथि और उसके संवेग(momentum) को एक साथ नहीं जान सकते। यह पूरा तो नहीं पर कुछ-कुछ उस ‘ऑब्ज़र्वर’ प्रभाव की भांति है जहाँ कुछ प्रयोग ऐसे होते हैं जिनमें परीक्षण का परिणाम प्रेक्षक (ऑब्ज़र्वर) की स्तिथि में बदलाव होने से बदल जाता है। इस प्रकार अणुओं और परमाणुओं की सौरमंडलीय व्यवस्था ध्वस्त हो गयी। अब इलेक्ट्रौन को पार्टिकल के रूप में नहीं बल्कि संभाव्यता प्रकार्य (प्रॉबेबिलिटी फंक्शन्स) के रूप में देखा जाता है। हम उनके कहीं होने की संभावना की गणना कर सकते हैं पर यह नहीं बता सकते कि वे कहाँ हैं। वे कहीं और भी हो सकते हैं।

हाइजेनबर्ग ने जब इस सिद्धांत की घोषणा की तब बहुत विवाद भी हुए। आइन्स्टीन ने अपना प्रसिद्द उद्धरण भी कहा, “ईश्वर पासे नहीं फेंकता”। और इसके साथ ही भौतिकी भी दो भागों में बाँट गयी। एक में तो विस्तार और विहंगमता का अध्ययन किया जाने लगा और दूसरी में अतिसूक्ष्म पदार्थ का। इन दोनों का एकीकरण अभी तक नहीं हो पाया है।

बचपन

वर्नर हाइजेनबर्ग का जन्म 5 दिसम्बर 1901 को वुर्ज़बर्ग (Würzburg) में हुआ था। वारेन ने अपनी पढ़ाई की शुरुआत वुर्ज़बर्ग के स्कूल मेक्सीमिलियन जिम्नेशियम (Maximilians Gymnasium, Munich) से की। जब वे पैदा हुए थे तब उनके पिता आगस्ट हाइजेनबर्ग (August Heisenberg) क्लासिकल लेंग्वेज के शिक्षक थे, जो आगे चलकर सन् 1909 में वे म्युनिक विश्वविद्यालय में ग्रीक भाषा के प्रोफेसर बने। कुछ महिनों के बाद वर्नर भी परिवार के साथ वुर्ज़बर्ग से म्यूनिक आ गये।

सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया जो सन् 1919 तक चला। सन् 1918 में जर्मनी में क्रांति हुई। इस कारण म्यूनिक में भी बहुत आपदाएं आईं। वर्नर ने इस क्रांति में भाग लिया। रात को ड्यूटी रहती लेकिन जब सुबह-सुबह काम नहीं रहता तब उनका पुस्तकें पढ़ने का शौक पूरा होता। एक बार महान दार्शनिक प्लेटो की ग्रीक भाषा में लिखी प्रसिद्ध पुस्तक ‘थिमेअस’ (Timaeus) उनके हाथ लग गई। चूँकि ग्रीक भाषा का अध्ययन वर्नर के पाठ्यक्रम का हिस्सा था, अतः यह पुस्तक उनके लिये उपयोगी थी। इस पुस्तक में प्राचीन यूनान के परमाणु संबंधी सिद्धांत का वर्णन था। अतः इस पुस्तक को पढ़ते समय उनके मन में परमाणु के रहस्यों को गहराई से जानने की इच्छा पैदा हो गई। अब उनका मन गणित के साथ ही भौतिकी के अध्ययन की ओर भी होने लगा। आगे चलकर उन्होंने सन् 1932 में परमाणु के नाभिक के लिये ‘न्यूट्रॉन-प्रोटॉन मॉडल’ प्रस्तुत किया। उनका ग्रीक प्रेम आगे भी नजर आया जब युकावा ने सशक्त नाभिकीय बल के सिद्धांत को विकसित करने के लिये जिस कण को ‘मिसॉट्रॉन’ के नाम से प्रतिपादित किया था, उसे हाइजेनबर्ग के सुझाव पर ‘मिसॉन(Meson)’ के रूप में मान्य किया गया।

जर्मनी में क्रांति के दिनों में, जब जर्मनी के हालत बिगड़ने लगे और उनके परिवार के पास खाने तक का संकट था, तब वर्नर को कुछ दिनों के लिये स्कूल छोड़कर कुछ महीनों के लिये म्यूनिक से करीब 50 मील दूर स्थित खेत पर मजदूरी के लिये जाना पड़ा। खेत पर उन्हें अक्सर साढ़े तीन बजे सुबह उठना पड़ता और फिर रात को करीब दस बजे तक काम करना होता था। कई बार उन्हें दिन में घास काटने जैसा थका देने वाला परिश्रम भी करना पड़ता। लेकिन वर्नर ने इस काम को मजबूरी में करने की बजाय ‘शिक्षा देने वाले काम’ के रूप में लिया। बाद में उन्होंने महसूस किया कि इस दौरान उन्हें वह शिक्षा मिली जो स्कूलों में रहकर कभी नहीं मिल सकती थी।

धीरे-धीरे जर्मनी के हालात सुधरे और फिर वर्नर अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद सन् 1920 में सोमेरफेल्ड के मार्गदर्शन में भौतिकी पढ़ने के लिये म्यूनिक विश्वविद्यालय में आ गये। यहाँ वीन, प्रिंगशेम और रोजेंथल जैसे प्रतिष्ठित भौतिकविद् भी थे। म्यूनिक में उनकी मुलाकात सोमरफेल्ड के तीक्ष्ण बुद्धि वाले और बहुत सशक्त व्यक्तित्व के धनी छात्र वुल्फगैंग पॉली (जो आगे चलकर 1945 के भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए) से हुई। हाइजेनबर्ग उनसे बहुत गहराई तक प्रभावित हुए। पॉली शोध करने और इस दौरान प्रस्तुत किये जाने वाले सिद्धांतों में गलतियों को खोजने में माहिर थे।

सोमरफेल्ड अपने विद्यार्थियों से बहुत प्यार करते थे। उन्हें पता चल चुका था कि वर्नर हाइजेनबर्ग को ‘परमाणु के चितेरे’ नोबेल पुरस्कार से सम्मानित नील्स बोहर के परमाणु भौतिकी के काम में बहुत रूचि है। इसीलिये एक बार जब गोटिंजन में ‘बोहर फेस्टिवल’ का आयोजन हुआ तो वे हाइजेनबर्ग को भी अपने साथ ले गये। इस फेस्टिवल में बोहर के व्याख्यानों की एक शृंखला आयोजित थी। यहीं वे पहली बार बोहर से मिले और उनके गहरे प्रभाव में आ गये।

शोधकार्य

सन् 1922-23 के शीतकालीन अवकाश के दौरान हाइजेनबर्ग मैक्स बॉर्न, जेम्स फ्रेंक और डेविड हिलबर्ट के पास अपनी पीएचड़ी के लिये एक परियोजना पर कार्य करने के लिये गॉटिंगन गये। पी.एचडी. प्राप्त करने के बाद उन्हें गॉटिंगन विश्वविद्यालय में मैक्स बॉर्न के सहायक के रूप में कार्य करने का अवसर मिल गया। उन दिनों गॉटिंगन विश्वविद्यालय मैक्स बॉर्न के नैतृत्व में भौतिकी के बहुत बड़े केंद्र के रूप में विश्व में अपनी विशिष्ट पहचान रखता था। मैक्स बॉर्न को उनके क्वांटम यांत्रिकी की सांख्यिकीय व्याख्या के लिये 1954 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला।

इसके पश्चात 17 सितम्बर 1924 से 1 मई 1925 के बीच वे ‘रॉकफेलर ग्रांट’ प्राप्त कर कोपनहेगन विश्वविद्यालय में नील्स बोहर के साथ काम करने के लिये गये। उस समय क्वांटम दुनिया से उठ रही समस्याएं वैज्ञानिकों के सम्मुख चुनौतियाँ प्रस्तुत कर रही थीं। बोहर इस क्षेत्र के अग्रणी वैज्ञानिक थे। उन्हें परमाणविक संरचना की खोज के लिये सन् 1922 का नोबेल पुरस्कार मिल चुका था। कोपनहेगन के चैतन्य और प्रेरक वातावरण से निकल कर जब वे लौटे तो क्वांटम जगत से उठ रही समस्याओं से निपटने के लिये उनके मस्तिष्क में सर्वथा नये विचार घुमड़ने लगे और उन्होंने सर्वथा नये तरीके से सोचना आरंभ किया।

वे बोहर मॉडल को लेकर सोचने लगे कि हम नहीं जानते कि इलेक्ट्रॉन परमाणु में कब, कहाँ हैं। हम अवशोषण या उत्सर्जन से इतना जान सकते हैं कि इलेक्ट्रॉन ने अवस्था परिवर्तन(State change) किया है। लेकिन इसने किस कक्षा से किस कक्षा में जाने के लिये किस रास्ते को तय किया है, यह कभी नहीं जाना जा सकता है। कक्षाओं के अस्तित्व को किसी भी तरीके से सत्यापित नहीं किया जा सकता है। अतः हम कैसे मान सकते हैं कि बोहर के ये आर्बिट वास्तविक आर्बिट हैं। अगर ये वास्तविक नहीं हैं तो फिर क्यों नहीं इनको छोड़कर आगे बढ़ने के लिये कोई अन्य वैकल्पिक रास्ता निकाला जाना चाहिये। वे सोचने लगे कि किसी भी सिद्धांत को ‘यथार्थ’ पर आधारित होना चाहिये न कि कल्पनाओं पर आधारित मॉडल्स पर। चूँकि हम संक्रमण (transition) के माध्यम से परमाणु को एक अवस्था से दूसरी में जाते हुए देखते हैं, अतः ‘संक्रमण’ को आधार बनाकर आगे बढ़ना उन्हें श्रेयस्कर लगा।

क्वांटम जगत में प्रवेश के लिये हाइजेनबर्ग के ये विचार बीज एक नई दिशा की ओर संकेत कर रहे थे। वे इस बात के पक्षधर थे कि वैज्ञानिक पड़तालों को सिर्फ निरिक्षणो (observables) पर ही निर्भर होना चाहिए, और जहां तक परमाणु की बात है, हम सिर्फ स्प्रेक्ट्रल रेखाओं को ही देखते हैं, अतः इसी के इर्द-गिर्द हमारे सिद्धांत खड़े होना चाहिए। स्पेक्ट्रल रेखाओं के माध्यम से हम परमाणु द्वारा अवशोषित या उत्सर्जित विद्युतचुम्बकीय ऊर्जा से संबद्ध तरंगदैर्ध्य, आवृति और तीव्रता को संज्ञान में लेते हैं। यानि, ये ही वे राशियां होनी चाहिए जिनको आधार बनाकर हमें आगे बढ़ना चाहिए। अब उनकी प्रतिभा और अधिक रंग दिखाने लगी। कोई भी स्पेक्ट्रल रेखा तभी उदित होती है जब इलेक्ट्रॉन एक अवस्था से दूसरी में जाता है। चूंकि परमाणु में इलेक्ट्रॉन की अवस्था की पहचान उसकी स्थिति से नहीं बल्कि उससे संबद्ध क्वांटम संख्या से होती है, अतः स्पेट्रल रेखा का संबंध क्वांटम संख्याओं के विभिन्न जोड़ों से होना चाहिए।

विचारों के बीजारोपण के इस दौर में उन्हें हे-फीवर हो गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘फिजिक्स एण्ड बीयांड’ में लिखा कि हे-फीवर के कारण जब वे हवा परिवर्तन के लिये हेलीगोलैण्ड गये तब उनकी घंटी बजी।’ बुखार के कारण शारीरिक कमजोरी के बावजूद उनका मस्तिष्क इन विचारों को दिशा देने के लिये बहुत उत्तेजित और सक्रिय था। अपनी तार्किक यात्रा के इसी दौर में उन्हें लगा कि वे परमाणविक घटनाओं के नीचे एक अनोखे खूबसूरत संसार को देख रहे हैं। वे हतप्रभ रह गये इस विचार से कि अब उन्हें प्रकृति द्वारा बड़ी ही उदारता से बिखेरी इस गणितीय संरचना को उजागर करना है।

अब हाइजेनबर्ग के सामने सब कुछ साफ हो गया। परमाणविक घटनाओं के नीचे छिपी इस गणितीय संरचना में परमाणु में इलेक्ट्रॉन की स्थिति, वेग, संवेग आदि साधारण संख्याओं के रूप में उपस्थित नहीं रहते। इसके लिये उनके अनुसार पंक्ति (row) और कॉलम (column) में जमे संख्याओं के टेबिल की जरूरत होगी। इसमें प्रमुख अंतर इस बात को लेकर है कि जहाँ संख्याओं के गुणा में क्रम बदलने से गुणनफल नहीं बदलता वहीं टेबिलों के गुणा में ऐसा जरूरी नहीं होता। जब हाइजेनबर्ग ने अपने काम के बारे में बॉर्न को बताया तो उन्हें याद आया कि ऐसा ‘मेट्रिक्स’ के गुणनफल के दौरान होता है। अपने विद्यार्थी जीवन में बॉर्न का इससे परिचय हुआ था। अतः यह टेबिल तथा उससे जुड़ी विशिष्टता वाली बात गणितीय दुनिया में पहले से ही ज्ञात होने के कारण अब हाइजेनबर्ग के गणित के लिये कार्यकारी नियमों को खोजने की आवश्यकता नहीं थी।

हाइजेनबर्ग ने गॉटिंगन लौटने के बाद मैक्स बॉर्न, पॉस्कल जॉर्डन के साथ मात्र 6 महिनों में ही क्वांटम मेकेनिक्स का पहला संस्करण मैट्रिक्स मेकेनिक्स के रूप में गढ़कर दुनिया के सामने रख दिया। हाइजेनबर्ग ने जिस क्वांटम मेकेनिक्स का विकास किया था उसमें बाहर से क्वांटम संख्याओं को ठूंसने की जरूरत नहीं थी। वे तो अपने आप समस्या के अनुसार से प्रकट होते थे। उनके इस कार्य ने सबको हैरत में डाल दिया। और, उन वैज्ञानिकों को तो मुश्किल में ही डाल दिया जिनकी जड़ें चिर-सम्मत भौतिकी में थी और वे अपने चिर-परिचित अंदाज में क्वांटम सिद्धांत को विकसित करने में लगे थे। इस तरह बड़े ही मौलिक अंदाज में उन्होंने क्वांटम समस्याओं को हल करने के लिये एक सर्वथा नई यांत्रिकी का विकास कर दिया।

हालांकि हाइजेनबर्ग की क्वांटम मेकेनिक्स को किसी साधारण आदमी तो ठीक, वैज्ञानिकों के लिये भी समझना आसान नहीं है। लोगों की नजर में यह आईंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत से भी कठिन प्रतीत होता है क्योंकि उनकी यांत्रिकी का आधार और विकास की किसी तरह से भी चित्रात्मक अभिव्यक्ति में नहीं हो सकती। उनकी यांत्रिकी में मात्र शब्द और चिन्ह हैं तथा उनकी भाषा विशुद्ध गणितीय है। और यह बात सर्वविदित है कि सामान्य आदमी के लिये बिना चित्र की सहायता के किसी सिद्धांत को समझना आसान नहीं होता। हाइजेनबर्ग का विश्व-भौतिकी के क्षितीज पर उदय हो चुका था और वे रातों रात एक सैलिब्रेटी कर चुके थे। इस समय वे मात्र 24 वर्ष के थे।

बुलंद होंसलों से उड़ने वालों को भला कौन रोक सका है? अपनी इस सफलता के बाद मई 1926 में उन्हें कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में सैद्वांतिक भौतिकी में व्याख्याता के पद पर नियुक्ति मिली। इस कारण अब उन्हें नील्स बोहर का सतत सानिध्य मिलने लगा। यहाँ के बोहर द्वारा सृजित अकादमिक वातावरण में उनके मस्तिष्क में बहुत कुछ नया और नया ही आ रहा था। प्रकृति को देखने और समझने के लिये उनका अपना एक विशिष्ट नजरिया था। वे अपने तरीके से क्वांटम दुनिया को जानने और समझने को बेताब थे।

हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत

हाइजेनबर्ग अनिश्चितता सिद्धांत : इलेक्ट्रान की स्तिथि को देखने के प्रयास मे हम उसकी स्तिथि बदल देते है।

हाइजेनबर्ग अनिश्चितता सिद्धांत : इलेक्ट्रान की स्तिथि को देखने के प्रयास मे हम उसकी स्तिथि बदल देते है।

कोपनहेगन में एक दिन हाइजेनबर्ग को स्पष्ट महसूस हुआ कि भौतिक ज्ञान को जानने की हमारी अपनी सीमा है। इलेक्ट्रॉन की स्थिति को जानने के लिये हम अत्यधिक आवृत्ति के फोटॉन का इस्तेमाल करना पड़ता है जो देखे जाने वाले इलेक्ट्रॉन को प्रभावित करता है। इससे भले ही हमें उसकी स्थिति का पता चल जाये लेकिन उसका संवेग को सही-सही नहीं जाना जा सकेगा। प्रभाव को कम करने के लिये कम ऊर्जा वाले फोटॉन से संवेग को सही-सही भले ही जाना जा सके लेकिन अब स्थिति के बारे में निश्चिततापूर्वक जान पाना संभव नहीं होता है। इस तरह एक विचित्र स्थिति का निर्माण हो जाता है। हाइजेनबर्ग ने सोचा कि भले ही यह हमारी दुनिया में न हो लेकिन कम से कम परमाणविक दुनिया के बारे में तो निश्चित ही यह सही है। एक हद से नीचे हम वास्तविकता को जान ही नहीं सकते क्योंकि अवलोकन की प्रक्रिया देखी जाने वाली वास्तविकता को बदल देती है। अवलोकन के पूर्व हम नहीं कर सकते कि वास्तविकता क्या है। वास्तविकता का संबंध देखने की प्रक्रिया से है। इस अनुभूति ने हाइजेनबर्ग को परेशान कर दिया। आखिर उनके इस विचार से ब्रह्माण्ड के घड़ी की तरह चलने और वास्तविकता के बारे ने प्रचलित चिर-सम्मविचार बाहर होने जा रहा था।

चिर-सम्मत भौतिकी(classical physics) भौतिक राशियों के एक साथ त्रुटिहीन मापन की कोई सीमा नहीं मानती। लेकिन हाइजेनबर्ग के अनुसार यह सिर्फ एक राशि के लिये ही हो सकता है। उनके अनुसार एक गतिमान कण की स्थिति और संवेग को एक साथ ठीक-ठीक कभी नहीं जाना जा सकता है। अगर दोनों को एक साथ मापना है तो उनके मापन में अनिश्चितता का गुणनफल किसी भी हालत में एक निश्चित मान से कम नहीं हो सकता जिसका संबंध प्लांक के नियतांक से है। यह नियतांक प्लांक को तब मिला था जब वे कृष्णिका वस्तुओं के स्पेक्ट्रम की समस्या को हल करने के लिये एक सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे थे। अतः हाइजेनबर्ग के अनुसार इस दुनिया के बारे में जानने का गणित और संभाव्यता ही एक मात्र सहारा है।

अनिश्चितता सिद्धान्त (Uncertainty principle) की व्युत्पत्ति हाइजनबर्ग ने क्वाण्टम यान्त्रिकी के व्यापक नियमों से सन् 1927 ई। में दी थी। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी गतिमान कण की स्थिति और संवेग को एक साथ एकदम ठीक-ठीक नहीं मापा जा सकता। यदि एक राशि अधिक शुद्धता से मापी जाएगी तो दूसरी के मापन में उतनी ही अशुद्धता बढ़ जाएगी, चाहे इसे मापने में कितनी ही कुशलता क्यों न बरती जाए। इन राशियों की अशुद्धियों का गुणनफल प्लांक नियतांक (h) से कम नहीं हो सकता।

यदि किसी गतिमान कण के स्थिति निर्दशांक x के मापन में {\displaystyle \Delta x}, की त्रुटि (या अनिश्चितता) और x-अक्ष की दिशा में उसके संवेग p के मापने में {\displaystyle \Delta p}, की त्रुटि हो तो इस सिद्धांत के अनुसार –

{\displaystyle \Delta x\Delta p\geqslant {\frac {\hbar }{2}}},

जहाँ, {\displaystyle \hbar =h/2\pi }h प्लांक नियतांक है।

इससे प्रकट होता है कि किसी कण का कोई निर्दशांक और उसके संवेग का तत्संगन संघटक दोनों एक साथ यथार्थतापूर्वक नहीं जाने जा सकते और यदि इन दोनों संयुग्मी राशियों में से एक की अनिश्चितता बहुत कम हो तो दूसरी की बहुत अधिक होती है।

हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत विज्ञान और गणित की उन समस्याओं में से एक है जो अज्ञेय हैं। क्वांटम भौतिकी का यह सिद्धांत कहता है कि हम किसी पार्टिकल की स्थिति और उसकी गति/दिशा को एक साथ नहीं जान सकते।

इसके बारे में सोचने पर बहुत मानसिक उथलपुथल होती है। इसने ब्रह्माण्ड को देखने और समझने के हमारे नज़रिए में बड़ा फेरबदल कर दिया। अभी भी हमारे स्कूलों में परमाणु की संरचना को सौरमंडल जैसी व्यवस्था के रूप में दिखाया जाता है जिसमें केंद्र में नाभिक में प्रोटोन और न्यूट्रौन रहते हैं और बाहर इलेक्ट्रौन उपग्रहों की भांति उनकी परिक्रमा करते हैं। लेकिन परमाणु का ऐसा चित्रण भ्रामक है। नील्स बोर के ज़माने तक सभी लोग परमाणु के ऐसे ही भ्रामक चित्रण को सही मानते थे लेकिन वर्नर हाइजेनबर्ग ने अपने अनिश्चितता के सिद्धांत से इसमें भारी उलटफेर कर दिया।

 

क्वांटम मेकेनिक्स

अनिश्चितता के सिद्धांत को पचाने में वैज्ञानिकों को आरंभ में दिक्कत आ रही थी। अतः बड़े ही संघर्ष के बाद बोहर ने पूरकता का सिद्धांत प्रतिपादित किया। और, कहा कि क्वांटम दुनिया में दोहरी प्रकृति काम करती है। लेकिन एक समय में हमें इसकी एक ही प्रकृति के बारे में सही सही जानकारी मिल सकती है।

दोनों सिद्धांत को एक साथ रखने पर क्वांटम मेकेनिक्स की जो व्याख्या उभर कर आती है, उसे कोपेनहेगन व्याख्या के नाम से जाना जाता है। और इसे ही क्वांटम सिद्धांत के आधार के रूप में मान्य किया गया है। इसके निहितार्थ बड़े ही चौंकाने वाले रहे। इस गणित में इलेक्ट्रॉन और परमाणु वास्तविक वस्तु नहीं हैं जिन्हें हम अपनी इंद्रियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीकों से खोज सकते हैं। नये गणित में घटना प्रमुख है, न कि वस्तु। ऊर्जा ज्यादा महत्वपूर्ण है न कि पदार्थ। अब तक के हमारे सारे परमाणु के मॉडल और चित्र हमें भ्रम में डालने लगे। क्रिकेट की बॉल की तरह इलेक्ट्रॉन के बारे में सोचा नहीं जा सकता। बावजूद इस गणितीय चित्रण के हम भरोसे के साथ कहते हैं कि दुनिया इन्हीं परमाणुओं से बनी है। इसने निर्वात की नई परिभाषा दी कि निर्वात वास्तव में आकाश वास्तव में कभी खाली नहीं रहता। निर्वात वास्तव में निर्वात नहीं होता वहाँ क्वांटम प्रक्रियाएं निरंतर चलती रहने के का वर्चुअल पार्टिकल-एण्टी-पार्टिकल भरे रहते हैं लेकिन वे प्रकट और लुप्त होते रहते हैं।

क्या प्रकृति सच में इतनी बेतुकी (absurd) हो सकती है?

क्या प्रकृति सच में इतनी बेतुकी (absurd) हो सकती है?

इस तरह हाइजेनबर्ग के ऊर्वरक मस्तिष्क में ऐसा कुछ चला जिसने प्रकृति के जिस गूढ़ रहस्य को उजागर किया उसने भौतिकी की नींव को ही हिला दिया। हालांकि इस यथार्थ को जानने के बाद भी वे अचंभित थे और सोचते थे कि क्या प्रकृति सच में इतनी बेतुकी (absurd) हो सकती है?

 

हाइजेनबर्ग का यह कार्य आईंस्टीन के कार्यों के बाद भौतिकी में एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी बदलाव लेकर आया। नई भौतिकी ने न सिर्फ चिर-सम्मत भौतिकी(classical physics) को बदलने के लिये मजबूर किया वरन् इसने विज्ञान की कई अन्य शाखाओं समेत आर्ट और दर्शन को भी अपने प्रभाव में लिया।

बोहर के साथ कोपनहेगन अत्यंत सृजनात्मक समय में बिताने के पश्चात् सन् 1927 में वे लिपझीग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बन गये। उस समय उनकी उम्र मात्र 26 वर्ष थी। उनके समय में लिपझीग में फेलिक्स ब्लॉच, फ्रेड्रिक हुण्ड, जॉन सी. स्लेटर एडवर्ड टेलर आदि जैसे कई प्रतिभाशाली शोध छात्र थे, जिन्होंने आगे चलकर भौतिकी के विकास में अपना अतुलनीय योगदान दिया। यहां रहते हुए सबसे पहले हाइजेनबर्ग ने अपने मित्र पॉली द्वारा प्रतिपादित अपवर्जन नियम(Pauli Exclusion Principle ) (इसके अनुसार किसी भी एक क्वांटम कक्षा में एक से अधिक इलेक्ट्रॉन नहीं रह सकता) का अनुप्रयोग करते हुए पदार्थों में फैरोमेग्नेटिक गुणों के उदय होने की गुत्थी सुलझाई। इसके बाद यहां बीतने वाला प्रत्येक क्षण उनके लिये बहुत उर्वरक साबित हो रहा था।

प्रतिपदार्थ(Anti Matter)

निल्स बोह्र(Niels Bohr), वर्नेर हाइजेनबर(Werner Heisenberg),तथा ओल्फ़्गांग पाली(Wolfgang Pauli)

निल्स बोह्र(Niels Bohr), वर्नेर हाइजेनबर(Werner Heisenberg),तथा ओल्फ़्गांग पाली(Wolfgang Pauli)

1925 में पी.ए.एम. डिरॉक को कैम्ब्रिज में हाइजेनबर्ग को सुनने का अवसर मिला। वे इंजीनियरिंग से आये थे। अतः हाइजेनबर्ग के व्याख्यान के लिये भौतिकी के लिये सर्वथा नये, अनुभवहीन और अनजाने थे। लेकिन अप्लाइड गणित में रुचि के कारण उनके ध्यान में हाइजेनबर्ग की एक बात जहाँ संख्याओं के गुणा में क्रम बदलने से गुणनफल नहीं बदलता वहीं टेबिलों के गुणा में ऐसा जरूरी नहीं होता’ आई। अब उनकी रुचि भौतिकी में जागी और वे क्वांटम दुनिया में प्रवेश के लिये नये तरीकों से सोचने लगेे। इसके पूर्व सन् 1925 में श्रोडिंगर ने डिब्रॉगली के पदार्थ तरंग को ध्यान में रखकर एक समीकरण प्रस्तुत किया था जिसे वेव-मेकेनिक्स के नाम से जाना गया, जो हाइजेनबर्ग की मैट्रिक्स मेकेनिक्स के तुल्य ही निकली। सन् 1928 में डिरॉक ने चिर-सम्मत भौतिकी की तर्ज पर ‘ऑपरेटर एलजेब्रा’ विकसित कर क्वांटम मेकेनिक्स की आधारशिला रखी। इसके बाद इलेक्ट्रॉन के अध्ययन के लिये उन्होंने सापेक्षीय तरंग-समीकरण प्रस्तुत किया जिससे इलेक्ट्रॉन के चक्रण संबंधी गुण के सापेक्षीय प्रभाव के रूप में प्रकट होने की जानकारी मिली। इसी सिद्धांत में से धनात्मक इलेक्ट्रॉन के अस्तित्त्व में होने की बात भी सामने आई, जिससे प्रकृति में प्रति पदार्थ की अवधारणा आई। इसे धनात्मक इलेक्ट्रॉन को पॉजीट्रॉन कहा गया।

सन् 1932 में ‘पॉजीट्रॉन’ नामक उपर्युक्त कण को ‘कॉस्मिक किरणों’ के अध्ययन के दौरान ‘क्लाउड चैम्बर’ में खोजा गया। 1933 में हाइजेनबर्ग ने पॉजीट्रॉन का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत में तथा 1934 तथा 1936 के अपने आगे के शोध पत्रों में उन्होंने डिरॉक के समीकरण की क्वांटाइजेशन की शर्तों का पालन करने वाली इलेक्ट्रॉन के समान व्यवहार करने वाले ‘स्पिन-हाफ’ कणों के लिये चिर-सम्मत फिल्ड इक्वेशन के रूप में पुनः व्याख्या की। इससे यह ‘क्वांटम फील्ड इक्वेशन’ बन गई, जो इलेक्ट्रॉन को एकदम सही तरीके से अभिव्यक्त करती है। ऐसा करके हाइजेनबर्ग ने पदार्थ को विद्युतचुम्बकत्व के साथ खड़ाकर दिया। अब, पदार्थ और विद्युतचुम्बकत्व, दोनों ही रिलेटिविस्टिक क्वांटम फील्ड समीकरण से अभिव्यक्त किये जा सकते हैं। इससे आईंस्टीन के ऊर्जा-द्रव्यमान समीकरण का निहितार्थ स्पष्ट होकर क्वांटम यांत्रिकी का हिस्सा बन गया। अब पार्टिकल के सृजन और विनाश यानि कणों के विद्युतचुम्बकीय ऊर्जा बनने और विद्युतचुम्बकीय ऊर्जा के कणों में रूपांतरित होने की संभावना को जानने के लिये यांत्रिकी सामने आ गई।

1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हुआ। सन् 1938 में ऑटो हान और स्ट्रॉसमन (Otto Hahn and Fritz Strassmann ) के द्वारा नाभिकीय विखंडन की खोज के बाद जर्मनी ने परमाणु बम बनाने के लिये यूरेनियम क्लब गठित किया इसमें हाइजेनबर्ग नैतृत्व करने वाले वैज्ञानिकों में प्रमुख थे। 1942 में जब उन्होंने 1945 के पहले बम बन सकने की संभावना से इंकार किया, तब वे इससे अलग कर दिये गये।

सन् 1941 में वे लिपझीग से बर्लिन विश्वविश्वविद्यालय चले गये और वहीं ‘कैसर विल्हेम इंस्टीट्यूट ऑफ फिजिक्स’ के निदेशक बन गये।

अब उन्होंने अपना ध्यान पुनः भौतिकी की ओर लगाया तथा मूल कणों के व्यवहार और प्रक्रियाओं को समझने के लिये 1925 की ही तर्ज पर एस मैट्रिक्स सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसमें भी टक्कर की प्रक्रिया में प्रेक्षितों के रूप में आपतित और निर्गम कणों पर विचार किया गया। इसमें बीच की प्रक्रिया का कोई जिक्र नहीं है।

वर्नर हाइजेनबर्ग (Werner Heisenberg) ने अपने बारे में लिखा कि उन्होंने सोमरफेल्ड से सकारात्मकता और भौतिकी बोहर से सीखी। जहाँ तक गणित की बात है, वह उन्होंने गोटिंजन में रहते हुए सीखा।

सम्मान और पुरस्कार

  • आर्डर आफ़ मेरीअ ओफ़ बेवेरिआ(Order of Merit of Bavaria)
  • रोमानो गार्डीनी पुरस्कार(Romano Guardini Prize)
  • ग्रेंड क्रास फ़ार फ़ेडरल सर्वीस विथ स्टार(Grand Cross for Federal Service with Star)
  • नाईट आफ़ आर्डर आफ़ मेरीट (नागरी श्रेणी) Knight of the Order of Merit (Civil Class)
  • चयनीत रायल सोसायटी के सदस्य(Elected a Foreign Member of the Royal Society (ForMemRS) in 1955)
  • 1932– भौतिकी नोबेल पुरस्कार
  • 1933–मैक्स प्लैंक मेडल

1 फरवरी 1976 को हाइजेनबर्ग ने दुनिया को अलविदा कहा।

 

स्रोत :

  1. मूल लेख : http://mpinfo.org/mpinfostatic/rojgar/2013/1811/other04.asp
  2. विकिपीडीया

 

राबर्ट बायल : रायल सोसायटी के संस्थापक

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रॉबर्ट बॉयल

रॉबर्ट बॉयल

राबर्ट बॉयल (Robert Boyle ; 25 जनवरी 1627 – 31 दिसंबर1691ई.) आधुनिक रसायनशास्त्र का प्रवर्तक, अपने युग के महान वैज्ञानिकों में से एक, लंदन की प्रसिद्ध रॉयल सोसायटी के संस्थापक तथा कॉर्क के अर्ल की 14वीं संतान थे।

वे एक एंग्लो-आयरिश प्राकृतिक दार्शनिक, केमिस्ट, भौतिक विज्ञानी और आविष्कारक थे। उन्होंने वैक्यूम पंप का निर्माण किया। शब्द की गति, वर्ग-भंगिमा के तथा वर्णों के मूल कारण और स्फटिकों की रचना के संबंध में उन्होंने अनेक अनुसंधान किए।

बचपन

बॉयल का जन्म आयरलैंड के मुंस्टर प्रदेश के लिसमोर कांसेल में हुआ था। घर पर इन्होंने लैटिन और फ्रेंच भाषाएँ सीखीं और ईटन में तीन वर्ष अध्ययन किया।  वे अपने माता-पिता के 14 संतानो में 10वे नम्बर पर थे। 8 साल की उम्र में वह ईटं कॉइल में दाखिल हुए। तीन साल बाद उनका स्कूल छुड़वा दिया गया, ताकि वे महाद्वीप यूरोप की यात्रा कर आएं। इंग्लैंड का एक श्रेष्ठ नागरिक बनने के लिए यह यात्रा उस युग में आवश्यक समझी जाती थी। तब विद्यार्थी के लिए एक प्रकार से यह ‘दीक्षांत’ हुआ करता था।

किंतु उसके लिए 11 साल की उम्र आमतौर पर काफी नहीं होती।  1638 ई. में इन्होंने फ्रांस की यात्रा की और लगभग एक वर्ष जेनेवा में भी अध्ययन किया। फ्लोरेंस में इन्होंने गैलिलियों के ग्रंथों का अध्ययन किया। 1641 में 14 साल के रोबर्ट इटली पहुंचे और वहां वह प्रख्यात वैज्ञानिक गैलीलियो  के संपर्क में आए। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब वह अपना जीवन विज्ञान के अध्ययन को ही अर्पित कर देंगे।

1644 ई. में जब ये इंग्लैंड पहुँचे, तो इनकी मित्रता कई वैज्ञानिकों से हो गई। ये लोग एक छोटी सी गोष्ठी के रूप में और बाद को ऑक्सफोर्ड में, विचार-विनियम किया करते थे। यह गोष्ठी ही आज की जगत्प्रसिद्ध रॉयल सोसायटी है। 1646 ई. से बॉयल का सारा समय वैज्ञानिक प्रयोगों में बीतने लगा। 1654 ई. के बाद ये ऑक्सफोर्ड में रहे और यहँ इनका परिचय अनेक विचारकों एवं विद्वानों से हुआ। 14 वर्ष ऑक्सफोर्ड में रहकर इन्होंने वायु पंपों पर विविध प्रयोग किए और वायु के गुणों का अच्छा अध्ययन किया। वायु में ध्वनि की गति पर भी काम किया। बॉयल के लेखों में इन प्रयोगों का विस्तृत वर्णन है।

कार्य

रॉबर्ट बॉयल की सर्वप्रथम प्रकाशित वैज्ञानिक पुस्तक न्यू एक्सपेरिमेंट्स, फ़िज़िको मिकैनिकल, टचिंग द स्प्रिंग ऑव एयर ऐंड इट्स एफेक्ट्स, वायु के संकोच और प्रसार के संबंध में है। 1663 ई. में रॉयल सोसायटी की विधिपूर्वक स्थापना हुई। बॉयल इस समय इस संस्था के सदस्य मात्र थे। बॉयल ने इस संस्था से प्रकाशिल शोधपत्रिका “फिलोसॉफिकल ट्रैंजैक्शन्स” में अनेक लेख लिखे और 1680 ई. में ये इस संस्था के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। पर शपथसंबंधी कुछ मतभेद के कारण इन्होंने यह पद ग्रहण करना अस्वीकार किया। कुछ दिनों बॉयल की रुचि कीमियागिरी में भी रही और अधम धातुओं को उत्तम धातुओं में परिवर्त्तित करने के संबंध में भी इन्होंने कुछ प्रयोग किए। चतुर्थ हेनरी ने कीमियागिरी के विरुद्ध कुछ कानून बना रखे थे। बॉयल के यत्न से ये कानून 1689 ई. में उठा लिए गए।

बॉयल ने तत्वों की प्रथम वैज्ञानिक परिभाषा दी और बताया कि अरस्तू के बताए गए तत्वों, अथवा क़ीमियाईगरों के तत्वों (पारा, गंधक और लवण) में से कोई भी वस्तु तत्व नहीं है, क्योंकि जिन पिंडों में (जैसे धातुओं में) इनका होना बताया जाता है उनमें से ये निकाले नहीं जा सकते। तत्वों के संबंध में 1661 ई. में बॉयल ने एक महत्वपूर्ण पुस्तिका लिखी “दी स्केप्टिकल केमिस्ट”। रसायन प्रयोगशाला में प्रचलित कई विधियों का बॉयल ने आविष्कार किया, जैसे कम दाब पर आसवन। बॉयल के गैस संबंधी नियम, उसके दहन संबंधी प्रयोग, हवा में धातुओं के जलने पर प्रयोग, पदार्थों पर ऊष्मा का प्रभाव, अम्ल और क्षारों के लक्षण और उनके संबंध में प्रयोग, ये सब युगप्रवर्तक प्रयोग थे जिन्होंने आधुनिक रसायन को जन्म दिया। बॉयल ने द्रव्य के कणवाद का प्रचलन किया, जिसकी अभिव्यक्ति डाल्टन के परमाणुवाद में हुई। उनके अन्य कार्य मिश्रधातु, फॉस्फोरस, मेथिल ऐलकोहल (वुड स्पिरिट), फॉस्फोरिक अम्ल, चाँदी के लवणों पर प्रकाश का प्रभाव आदि विषयक हैं।

आदर्श गैस स्थिरांक

सत्रहवी शताब्दी मे वैज्ञानिको पदार्थ की तीन अवस्थायें ही ज्ञात थी, ठोस,द्रव तथा गैस(चौथी अवस्था प्लाज्मा की खोज इसके सदीयों पश्चात हुयी है)। उस समय ठोस और द्रव के साथ प्रयोग करना गैस की तुलना मे कठिन था क्योंकि ठोस/द्रव मे किसी भी परिवर्तन को उस समय के उपकरणो से मापना आसान नही था। इसलिये अधिकतर प्रायोगिक वैज्ञानिक मूलभूत भौतिकी नियमो को खोजने के लिये प्रयोगो मे गैस का प्रयोग करते थे।

राबर्ट बायल(Robert Boyle) शायद ऐसे पहले महान प्रायोगिक वैज्ञानिक थे और वे वर्तमान प्रायोगिक विधि की आधारशीला रखने वालो मे से है जिसमे किसी भी प्रयोग मे एक या एकाधिक ही कारक मे परिवर्तन कर अन्य कारको पर परिवर्तन का मापन किया जाता है। पुनरावलोकन मे यह प्रत्यक्ष दिखायी देता है लेकिन यह एक दूरदर्शिता भरा कदम था।

राबर्ट बायल ने गैस के दबाव और आयतन के मध्य संबध को खोजा था, इसकी एक सदी बाद जैक्स चार्ल्स(Jacques Charles) तथा जोसेफ गे लुसाक(Joseph Gay-Lussac ) ने आयतन और तापमान के मध्य संबध खोजा था। यह खोज सफ़ेद जैकेट पहनकर किसी वातावनुकुलित प्रयोगशाला मे आधुनिक उपकरणो के प्रयोग से नही हुयी थी। इस प्रयोग के लिये गे-लुसाक एक गर्म हवा के गुब्बारे मे 23,000 फ़ीट की ऊंचाई पर गये थे, जोकि उस समय का विश्व रिकार्ड था।

बायल, चार्ल्स तथा गे-लुसाक के प्रयोगो के परिणामो को एक साथ सम्मिलित करने पर कहा जा सकता है कि किसी गैस की निश्चित मात्रा मे तापमान, दबाव तथा आयतन के गुणनफल के अनुपात मे होता है। इस अनुपात के स्थिरांक को आदर्श गैस स्थिरांक कहा जाता है।

R=8.3144621(75) J/ K/ mol

बॉयल का नियम

बॉयल की ख्याति विज्ञान में एक परीक्षण-प्रिय वैज्ञानिक के रूप में ही है, ‘बॉयल्ज लॉ’ के जनक के रूप में। बॉयल का नियम विज्ञान का वह नियम है जिसके द्वारा हम बता सकते हैं कि दबाव के घटने-बढ़ने से हवा की हालत में क्या अंतर आ जाता है। इस नियम का आविष्कार परीक्षणों द्वारा हुआ था और बहुत देर बाद ही जाकर कहीं उसे भौतिक-विज्ञान के एक सूत्र का रुप मिल सका था।

बॉयल के सिद्धांत को आज भातिकी में हर वैज्ञानिक प्रतिदिन प्रयुक्त करता है — गैस का परिणाम, दबाव के अनुसार, विपरीत अनुपात में आदलता-बदलता रहता है। बॉयल के नियम की ही यही सूत्रात्मक परिभाषा है। अगली पीढ़ी के वैज्ञानिक ने विशेषत: जैकीज चार्ली ने, इसमें इतना और जोड़ दिया कि ‘यदि तापमान में परिवर्तन न आए. तब’।

बॉयल के नियम का चलित प्रदर्शन (एनिमेशन)

बॉयल के नियम का चलित प्रदर्शन (एनिमेशन)

बॉयल का नियम आदर्श गैस का दाब और आयतन में सम्बंध बताता है। इसके अनुसार, नियत ताप पर गैस का आयतन दाब के व्यूत्क्रमानुपाती होता है।

गणित में इसे निम्नलिखित रूप में अभिव्यक्त कर सकते हैं=-

{\displaystyle P\propto {\frac {1}{V}}}

या,

{\displaystyle PV=k}

जहाँ P गैस का दाब है , V गैस का आयतन है, और k एक नियतांक है।

इसी को इस तरह से भी कह सकते हैं-

{\displaystyle P_{1}V_{1}=P_{2}V_{2}.}

 

महत्वपूर्ण कार्य

  • 1660 – New Experiments Physico-Mechanical: Touching the Spring of the Air and their Effects
  • 1661 – The Sceptical Chymist
  • 1662 – Whereunto is Added a Defence of the Authors Explication of the Experiments, Against the Obiections of Franciscus Linus and Thomas Hobbes (a book-length addendum to the second edition of New Experiments Physico-Mechanical)
  • 1663 – Considerations touching the Usefulness of Experimental Natural Philosophy (followed by a second part in 1671)
  • 1664 – Experiments and Considerations Touching Colours, with Observations on a Diamond that Shines in the Dark
  • 1665 – New Experiments and Observations upon Cold
  • 1666 – Hydrostatical Paradoxes[35]
  • 1666 – Origin of Forms and Qualities according to the Corpuscular Philosophy. (A continuation of his work on the spring of air demonstrated that a reduction in ambient pressure could lead to bubble formation in living tissue. This description of a viper in a vacuum was the first recorded description of decompression sickness.)[36]
  • 1669 – A Continuation of New Experiments Physico-mechanical, Touching the Spring and Weight of the Air, and Their Effects
  • 1670 – Tracts about the Cosmical Qualities of Things, the Temperature of the Subterraneal and Submarine Regions, the Bottom of the Sea, &tc. with an Introduction to the History of Particular Qualities
  • 1672 – Origin and Virtues of Gems
  • 1673 – Essays of the Strange Subtilty, Great Efficacy, Determinate Nature of Effluviums
  • 1674 – Two volumes of tracts on the Saltiness of the Sea, Suspicions about the Hidden Realities of the Air, Cold, Celestial Magnets
  • 1674 – Animadversions upon Mr. Hobbes’s Problemata de Vacuo
  • 1676 – Experiments and Notes about the Mechanical Origin or Production of Particular Qualities, including some notes on electricity and magnetism
  • 1678 – Observations upon an artificial Substance that Shines without any Preceding Illustration
  • 1680 – The Aerial Noctiluca
  • 1682 – New Experiments and Observations upon the Icy Noctiluca (a further continuation of his work on the air)
  • 1684 – Memoirs for the Natural History of the Human Blood
  • 1685 – Short Memoirs for the Natural Experimental History of Mineral Waters
  • 1686 – A Free Enquiry into the Vulgarly Received Notion of Nature
  • 1690 – Medicina Hydrostatica
  • 1691 – Experimentae et Observationes Physicae

अन्य कार्य

शब्द की गति, वर्ण-भंगिमा के तथा वर्णों के मूल कारण तथा स्फटिकों की रचना के संबंध में उन्होंने अनुसंधान किए। जिसे आदमी चला सके ऐसे एक वैक्यूम पंप का निर्माण भी किया, और साबित कर दिखाया की हवा से महरूम जगह में कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता, यह भी की वायु से शून्य स्थान में गंधक जलेगी नहीं। ‘रसायनिक तत्व’ का एक लक्षण भी, कहते हैं इसे बॉयल ने सुझाया था और जो हमारी वर्तमान ‘रसायन दृष्टि’ से कोई बहुत भिन्न नहीं। ‘वह द्रव जिसे छिन्न-भिन्न नहीं किया जा सकता,’ किंतु एक सच्चे वैज्ञानिक की भांति उन्होंने इसका जैसे संशोधन भी साथ ही कर दिया था कि — ‘किसी भी अघावधि ज्ञात तरीके से (तोडा-फोड़ा) नहीं जा सकता)।’ किन्तु आजकल की परीक्षणशालाओ में इन तत्वों की आंतरिक-रचना में भी परिवर्तन लाया जा चूका है।

बॉयल का एक उदार हृदय व्यक्ति थे और यदि उन्होंने ‘बॉयलाज लॉ’ का आविष्कार नहीं भी किया होता तब भी इतिहास के अमर पुरुषों में उनका नाम सदा स्मरण किया ही जाता क्योंकि न्यूटन के ‘प्रिन्सिपिया’ के प्रकाशन की व्यवस्था उन्होंने ही पहले-पहल की थी

बॉयल जीवन भर अविवाहित रहे। बेकन के तत्वदर्शन में उन्हें बड़ी आस्था थी। अमर वैज्ञानिकों में उनकी आज तक गणना होती है। 1660 ई. के बाद में उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, किंतु रसायन संबंधी कार्य इस समय भी बंद न हुआ। 1661 ई. में उनका देहांत हो गया।

स्टीफन विलियम हॉकिंग : ब्लैक होल को चुनौती देता वैज्ञानिक

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विश्व प्रसिद्ध महान वैज्ञानिक और बेस्टसेलर रही किताब ‘अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ के लेखक स्टीफन हॉकिंग ने शारीरिक अक्षमताओं को पीछे छोड़ते हु्ए यह साबित किया कि अगर इच्छा शक्ति हो तो व्यक्ति कुछ भी कर सकता है।

हमेशा व्हील चेयर पर रहने वाले हॉकिंग किसी भी आम मानव से इतर दिखते हैं। कम्प्यूटर और विभिन्न उपकरणों के ज़रिए अपने शब्दों को व्यक्त कर उन्होंने भौतिकी के बहुत से सफल प्रयोग भी किए हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ केम्ब्रिज में गणित और सैद्धांतिक भौतिकी के प्रेफ़ेसर रहे स्टीफ़न हॉकिंग की गिनती आईंस्टीन के बाद सबसे बढ़े भौतकशास्त्रियों में होती है।

 

स्टीफन विलियम हॉकिंग (जन्म 8 जनवरी 1942), एक विश्व प्रसिद्ध ब्रितानी भौतिक विज्ञानी, ब्रह्माण्ड विज्ञानी, लेखक और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में सैद्धांतिक ब्रह्मांड विज्ञान केन्द्र (Centre for Theoretical Cosmology) के शोध निर्देशक थे।

स्टीफ़न हॉकिंग का जन्म 8 जनवरी 1942 को फ्रेंक और इसाबेल हॉकिंग के घर में हुआ। परिवार वित्तीय बाधाओं के बावजूद, माता पिता दोनों की शिक्षा ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में हुई जहाँ फ्रेंक ने आयुर्विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की और इसाबेल ने दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। वो दोनों द्वितीय विश्व युद्ध के आरम्भ होने के तुरन्त बाद एक चिकित्सा अनुसंधान संस्थान में मिले जहाँ इसाबेल सचिव के रूप में कार्यरत थी और फ्रेंक चिकित्सा अनुसंधानकर्ता के रूप में कार्यरत थे।

 

महत्वपूर्ण पड़ाव

  1. वर्ष 1942 में 8 जनवरी को स्टीफ़न का जन्म इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड में हुआ था
  2. वर्ष 1959 में वो नेचुरल साइंस की पढ़ाई करने ऑक्सफ़ोर्ड पहुंचे और इसके बाद कैम्ब्रिज में पीएचडी के लिए गए
  3. वर्ष 1963 में पता चला कि वो मोटर न्यूरॉन बीमारी से पीड़ित हैं और ऐसा कहा गया कि वो महज़ दो वर्ष जी पाएंगे
  4. वर्ष 1988 में उनकी किताब ए ब्रीफ़ हिस्टरी ऑफ़ टाइम आई जिसकी एक करोड़ से ज़्यादा प्रतियां बिकीं
  5. वर्ष 2014 में उनके जीवन पर द थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग बनी जिसमें एडी रेडमैन ने हॉकिंग का किरदार अदा किया था
  6. वर्ष 2018 मृत्यु

स्टीफ़न हॉकिंग का विज्ञान जगत को योगदान

हॉकिंग भौतिक विज्ञान के कई अलग-अलग लेकिन समान रूप से मूलभूत क्षेत्र जैसे गुरुत्वाकर्षण, ब्रह्मांड विज्ञान, क्वांटम थ्योरी, सूचना सिद्धांत और थर्मोडायनमिक्स को एक साथ ले आए थे।

ब्लैकहोल और बिग बैंग

हॉकिंग का सबसे उल्लेखनीय काम ब्लैक होल के क्षेत्र में है। जब 1959 में हॉकिंग ने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में स्नातक की पढ़ाई शुरू की थी उस दौर में वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल के सिद्धांत को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था।

न्यू जर्सी स्थित प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के जॉन व्हीलर ने इस पर बेहद बारीकी से काम करते हुए कथित रूप से ब्लैक होल के नाम तक रख दिए थे। ब्रिटेन को रोजर पेनरोज़ और सोवियत यूनियन के याकोफ़ जेलदोविच भी इसी विषय पर काम कर रहे थे।

भौतिक विज्ञान में अपनी डिग्री हासिल करने के बाद हॉकिंग ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैंब्रिज कोस्मोलॉजिस्ट डेनिस स्काइमा के निर्देशन में पीएचडी शुरू की।

सामान्य सापेक्षता (जेनरल रिलेटिविटी) और ब्लैक होल में फिर से पैदा हुई वैज्ञानिकों की दिलचस्पी ने उनका भी ध्यान खींचा। यही वो समय था जब उनकी असाधारण मानसिक क्षमता सामने आने लगी।

और इसी दौरान उन्हें मोटर न्यूरॉन (एम्योट्रोफ़िक लेटरल सिलेरोसिस) जैसी गंभीर बीमारी से पीड़ित होने के बारे में पता भी चला। इसी बीमारी की वजह से उनका शरीर लकवाग्रस्त हो गया था।

स्काइमा के दिशानिर्देशन में ही हॉकिंग ने बिग बैंग थ्योरी के बारे में सोचना शुरू किया था। आज उनके ब्रह्मांड के इस निर्माण के सिद्धांत को बहुत हद तक वैज्ञानिकों ने स्वीकार कर लिया है।

हॉकिंग को अहसास हुआ कि बिग बैंग दरअसल ब्लैक होल का उलटा पतन ही है। स्टीफ़न हॉकिंग ने पेनरोज़ के साथ मिलकर इस विचार को और विकसित किया और दोनों ने 1970 में एक शोधपत्र प्रकाशित किया और दर्शाया कि सामान्य सापेक्षता का अर्थ ये है कि ब्रह्मांड ब्लैक होल के केंद्र (सिंगुलैरिटी) से ही शुरु हुआ होगा।

इसी दौरान हॉकिंग की बीमारी बेहद बढ़ गई थी और वो बैसाखी के सहारे से भी चल नहीं पा रहे थे। 1970 के ही दशक में जब वो बिस्तर से बंध से गए थे उन्हें अचानक ब्लैक होल के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ।

इसके बाद ब्लेक होल के बारे में कई तरह की खोजें हुईं।

  • हॉकिंग ने बताया था कि ब्लेक होल का आकार सिर्फ़ बढ़ सकता है और ये कभी भी घटता नहीं है।
  • ये बात सामान्य प्रकट होती है। क्योंकि ब्लेक होल के पास जाने वाली कोई भी चीज़ उससे बच नहीं सकती और उसमें समा जाती है और इससे ब्लेक होल का भार बढ़ेगा ही।
  • ब्लेक होल का भार ही उसका आकार निर्धारित करता है जिसे उसके केंद्र की त्रिज्या से नापा जाता है। ये केंद्र (घटना क्षितिज) ही वो बिंदू होता है जिससे कुछ भी नहीं बच सकता।
  • इसकी सीमा किसी फूलते हुए ग़ुब्बारे की तरह बढ़ती रहती है।
  • लेकिन हॉकिंग ने आगे बढ़कर बताया था कि ब्लेक होल को छोटे ब्लेक होल में विभाजित नहीं किया जा सकता।
  • उन्होंने कहा था कि दो ब्लेक होल के टकराने पर भी ऐसा नहीं होगा। हॉकिंग ने ही मिनी ब्लैक होल का सिद्धांत भी दिया था।

क्वांटम थ्योरी और जनरल रिलेटीविटी का मिलन

हॉकिंग ने भौतिक विज्ञान उन दो क्षेत्रों को एक साथ ले आए जिन्हें अभी तक कोई भी वैज्ञानिक एक साथ नहीं ला पाया था। ये हैं क्वांटम थ्योरी और जनरल रिलेटीविटी।

क्वांटम थ्यौरी के ज़रिए बेहद सूक्ष्म चीज़ों जैसे की परमाणु का विवरण दिया जाता है जबकि जनरल रिलेटीविटी (सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत) के ज़रिए ब्रह्मांडीय पैमाने पर तारों और आकाशगंगाओं जैसे पदार्थों का विवरण दिया जाता है।

मूल रूप में ये दोनों सिद्धांत एक दूसरे से असंगत लगते हैं। सापेक्षता का सिद्धांत मानता है कि अंतरिक्ष किसी काग़ज़ के पन्ने की तरह चिकना और निरंतर है।

लेकिन क्वांटम थ्योरी कहती है कि ब्रह्मांड की हर चीज़ सबसे छोटे पैमाने पर दानेदार है और असतत ढेरों से बनी है।

थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग

हाकिंग रेडीयेशन

हाकिंग रेडीयेशन

दुनियाभर के भौतिक वैज्ञानिक दशकों से इन दो सिद्धांतों को एक करने में जुटे थे जिससे कि ‘द थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग‘ या हर चीज़ के सिद्धांत तक पहुंचा जा सके। इस तरह का सिद्धांत आधुनिक भौतिक विज्ञान के लिए किसी पवित्र बंधन की तरह होता।

अपने करियर के शुरुआती दौर में स्टीफ़न हॉकिंग ने इसी थ्योरी में दिलचस्पी दिखाई लेकिन ब्लेक होल का उनका विश्लेषण इस तक नहीं पहुंच सका।

हालांकि ब्लेक होल की क्वांटम एनेलिसिस में उन्होंने पहले से मौजूद इन दोनों सिद्धांतों में पैबंद लगाने का काम किया।

क्वांटम थ्योरी के मुताबिक कथित तौर पर रिक्त स्थान वास्तव में शून्य से दूर हैं क्योंकि अंतरिक्ष सभी पैमानों पर सुचारू रूप से बिलकुल रिक्त नहीं हो सकता। इसके बजाए यहां गतिविधियां हो रही हैं और ये जीवित है।

अंतरिक्ष में कण लगातार उतपन्न हो रहे हैं और एक दूसरे से टकरा रहे हैं। इनमें एक कण है और एक प्रतिकण। इनमें से एक कण पर धनात्मक( पॉज़ीटिव) ऊर्जा है और दूसरे पर ऋणात्मक( नेगेटिव) ऐसे में कोई नई ऊर्जा उतपन्न नहीं हो रही है।

ये दोनों कण एक दूसरे को इतनी जल्दी ख़त्म कर देते हैं कि इन्हें देखा( डिटेक्ट) नहीं किया जा सकता। नतीजतन इन्हें आभासी कण( वर्चुअल पार्टिकल) कहा जाता है।

लेकिन हॉकिंग ने सुझाया था कि ये वर्चुअल कण वास्विक हो सकते हैं यदि इनका निर्माण ठीक ब्लैक होल के पास  होता है। हॉकिंग ने संभावना जताई थी कि इन दो कणों में से एक ब्लैक होल के भीतर चला जाएगा और दूसरा अकेला रह जाएगा।

ये अकेला रह गया कण अंतरिक्ष में बाहर निकलेगा। यदि ब्लैक होल में ऋणात्मक( नेगेटिव ऊर्जा) वाला कण समाया है तो ब्लैक होल की कुल ऊर्जा कम हो जाएगी और इससे उसका भार भी कम हो जाएगा और दूसरा कण  धनात्मक(पॉज़ीटिव) ऊर्जा लेकर अंतरिक्ष में चला जाएगा।

इसका नतीजा ये होगा कि ब्लैक होल से ऊर्जा निकलेगी। इसी ऊर्जा को अब हॉकिंग विकिरण(रेडिएशन) कहा जाता है। हालांकि ये रेडिएशन लगातार कम होती रहती है। अपने इस सिद्धांत ने हॉकिंग ने अपने आप को ही ग़लत साबित कर दिया था।

यानी ब्लैक होल का आकार कम हो सकता है। इसका ये अर्थ भी हो सकता है कि धीरे धीरे ब्लैक होल लुप्त हो जाएगा और अगर ऐसा हुआ तो फिर वो ब्लैक होल होगा ही नहीं। यह संकुचन आवश्यक रूप से क्रमिक और शांत नहीं होगा।

हॉकिंग ने अपनी थ्यौरी ऑफ़ एवरीथिंग से सुझाया था कि ब्रह्मांड का निर्माण स्पष्ट रूप से परिभाषित सिद्धांतों के आधार पर हुआ है।

उन्होंने कहा था,

“ये सिद्धांत हमें इस सवाल का जवाब देने के लिए काफ़ी हैं कि ब्रह्मांड का निर्माण कैसे हुआ, ये कहां जा रहा है और क्या इसका अंत होगा और अगर होगा तो कैसे होगा? अगर हमें इन सवालों का जवाब मिल गया तो हम ईश्वर के दिमाग़ को समझ पाएंगे।”

फ़िल्मो, टीवी धारावाहिको मे स्टीफ़न हाकिंग

लोकप्रिय टीवी धारावाहिक बिग बैंग थ्योरी मे

लोकप्रिय टीवी धारावाहिक बिग बैंग थ्योरी मे

स्टीफ़न हॉकिंग शायद आधुनिक दौर के सबसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक हैं. लेकिन अशक्त बना देने वाली बीमारी के ख़िलाफ़ संघर्ष और, तुंरत पहचान में आने वाली अपनी रोबोट जैसी आवाज़ और स्टार ट्रेक, द सिंपसन जैसे शो में दिखाई दिये है।

उनके जीवन के इन्हीं रहस्यों से पर्दा उठाती, इस मशहूर ब्रिटिश वैज्ञानिक के जीवन पर आधारित एक फ़िल्म बन चुकी है। अपने जीवन पर बनी इस फ़िल्म के बारे में पूछने पर हॉकिंग कहते हैं

”यह फ़िल्म विज्ञान पर केंद्रित है, और शारीरिक अक्षमता से जूझ रहे लोगों को एक उम्मीद जगाती है। 21 वर्ष की उम्र में डॉक्टरों ने मुझे बता दिया था कि मुझे मोटर न्यूरोन नामक लाइलाज बीमारी है और मेरे पास जीने के लिए सिर्फ दो या तीन साल हैं। इसमें शरीर की नसों पर लगातार हमला होता है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में इस बीमारी से लड़ने के बारे में मैने बहुत कुछ सीखा”।

स्टीफन हाकिंग के जीवन पर बनी फ़िल्म " थ्योरी आफ़ एवरीथींग "

स्टीफन हाकिंग के जीवन पर बनी फ़िल्म ” थ्योरी आफ़ एवरीथींग “

हॉकिंग का मानना है कि हमें वह सब करना चाहिए जो हम कर सकते हैं, लेकिन हमें उन चीजों के लिए पछताना नहीं चाहिए जो हमारे वश में नहीं है।

‘परिवार और दोस्तों के बिना कुछ नहीं’

यह पूछने पर कि क्या अपनी शारीरिक अक्षमताओं की वजह से वह दुनिया के सबसे बेहतरीन वैज्ञानिक बन पाए, हॉकिंग कहते हैं,

”मैं यह स्वीकार करता हूँ मैं अपनी बीमारी के कारण ही सबसे उम्दा वैज्ञानिक बन पाया, मेरी अक्षमताओं की वजह से ही मुझे ब्रह्माण्ड पर किए गए मेरे शोध के बारे में सोचने का समय मिला। भौतिकी पर किए गए मेरे अध्ययन ने यह साबित कर दिखाया कि दुनिया में कोई भी विकलांग नहीं है।”

हॉकिंग को अपनी कौन सी उपलब्धि पर सबसे ज्यादा गर्व है? हॉकिंग जवाब देते हैं

”मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की है कि मैंने ब्रह्माण्ड को समझने में अपनी भूमिका निभाई। इसके रहस्य लोगों के लिए खोले और इस पर किए गए शोध में अपना योगदान दे पाया। मुझे गर्व होता है जब लोगों की भीड़ मेरे काम को जानना चाहती है।”

हॉकिंग के मुताबिक यह सब उनके परिवार और दोस्तों की मदद के बिना संभव नहीं था। यह पूछने पर कि क्या वे अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं हॉकिंग कहते हैं,

”लगभग सभी मांसपेशियों से मेरा नियंत्रण खो चुका है और अब मैं अपने गाल की मांसपेशी के जरिए, अपने चश्मे पर लगे सेंसर को कम्प्यूटर से जोड़कर ही बातचीत करता हूँ।”

मरने के अधिकार जैसे विवादास्पद मुद्दे पर हॉकिंग बीबीसी से कहते हैं,

”मुझे लगता है कि कोई भी व्यक्ति जो किसी लाइलाज बीमारी से पीड़ित है और बहुत ज्यादा दर्द में है उसे अपने जीवन को खत्म करने का अधिकार होना चाहिए और उसकी मदद करने वाले व्यक्ति को किसी भी तरह की मुकदमेबाजी से मुक्त होना चाहिए।”

स्टीफन हॉकिंग आज भी नियमित रूप से पढ़ाने के लिए विश्वविद्यालय जाते हैं, और उनका दिमाग आज भी ठीक ढंग से काम करता है। ब्लैक होल और बिग बैंग थ्योरी को समझने में उन्होंने अहम योगदान दिया है। उनके पास 12 मानद डिग्रियाँ हैं और अमेरिका का सबसे उच्च नागरिक सम्मान उन्हें दिया गया है।

2014 की उनकी एक वार्ता के अंश

“इस ब्रह्माण्ड से अधिक बड़ा या पुराना कुछ नहीं है। मैं जिन प्रश्नों की बाबत बात करना चाहूँगा वे हैं: पहला, हम कहाँ से आये? ब्रह्माण्ड अस्तित्व में कैसे आया? क्या हम इस ब्रह्माण्ड में अकेले हैं? क्या कहीं और भी ‘एलियन’ जीवन है? मानव जाति का भविष्य क्या है?

1920 के दशक तक हर कोई सोचता था कि ब्रह्माण्ड मूलतः स्थिर और समय के सापेक्ष अपरिवर्तनशील है। फिर यह खोज हुई कि ब्रह्माण्ड फैल रहा था। सुदूर तारामंडल हमसे और दूर जा रहे थे। इसका अर्थ यह हुआ कि पहले वे एक दूसरे के नज़दीक रहे होंगे। यदि हम पीछे इसके विस्तार में जाएं तो पाएंगे कि आज से करीब 15 बिलियन वर्ष पहले हम सब एक दूसरे के ऊपर रहे होंगे। यही ‘बिग बैंग’ था, ब्रह्माण्ड की शुरुआत।

लेकिन क्या बिग बैंग से पहले भी कुछ था? अगर नहीं था तो ब्रह्माण्ड की रचना किसने की? बिग बैंग के बाद ब्रह्माण्ड उस तरह अस्तित्व में क्यों आया जैसा वह है? हम सोचा करते थे कि ब्रह्माण्ड के सिद्धांत को दो भागों में बांटा जा सकता है। पहला यह कि कुछ नियम थे जैसे मैक्सवेल की समीकरण वगैरह और यह देखते हुए कि एक दिए गए समय में समूचे स्पेस में उसकी जो अवस्था थी उसमें सामान्य सापेक्षता ने ब्रह्माण्ड के विकास को निर्धारित किया। और दूसरा यह कि ब्रह्माण्ड की प्रारंभिक अवस्था का कोई प्रश्न ही नहीं था।

पहले हिस्से में हमने अच्छी तरक्की की है, और अब हमें केवल सबसे चरम परिस्थितियों के अलावा अन्य सभी परिस्थितियों में विकास के नियमों का ज्ञान है। लेकिन अभी हाल के समय तक हमें ब्रह्माण्ड के लिए प्रारम्भिक परिस्थितियों की बाबत बहुत कम ज्ञान था। यह और बात है कि विकास के नियमों में इस तरह का वर्गीकरण और प्रारम्भिक परिस्थितियां अलग और विशिष्ट होने के साथ ही समय और स्पेस पर निर्भर होती हैं। चरम परिस्थितियों में, सामान्य सापेक्षता और क्वांटम थ्योरी समय को स्पेस में एक अलग आयाम की तरह व्यवहार करने देती हैं। इस से समय और स्पेस के बीच का अंतर मिट जाता है, और इसका यह अर्थ हुआ कि विकास के नियम प्रारम्भिक परिस्थितियों को भी निर्धारित कर सकते हैं। ब्रह्माण्ड अपने आप को शून्य में से स्वतःस्फूर्त तरीके से रच सकता है।

इसके अलावा, हम एक प्रायिकता की गणना कर सकते हैं कि ब्रह्माण्ड अलग-अलग परिस्थितियों में अस्तित्व में आया था। ये भविष्यवाणियाँ कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड के WMAP उपग्रह के पर्यवेक्षणों, जो कि बहुत शुरुआत के ब्रह्माण्ड की एक छाप है, से बहुत ज्यादा मेल खाती हैं। हम समझते हैं कि हमने सृष्टि के रहस्य की गुत्थी को सुलझा लिया है। संभवतः हमने ब्रह्माण्ड का पेटेंट करवाकर हर किसी से उसके अस्तित्व के एवज़ में रॉयल्टी वसूलनी चाहिए।

अब मैं दूसरे बड़े सवाल से मुख़ातिब होता हूँ – क्या हम अकेले हैं या ब्रह्माण्ड में और भी कहीं जीवन है? हम विश्वास करते हैं कि धरती पर जीवन स्वतःस्फूर्त ढंग से उपजा, सो यह संभव होना चाहिए कि जीवन दूसरे उपयुक्त ग्रहों पर भी अस्तित्व में आ सके जिनकी संख्या पूरी आकाशगंगा में काफी अधिक है ।

लेकिन हम नहीं जानते कि जीवन सबसे पहले कैसे अस्तित्व में आया। हमारे पास इसके पर्यवेक्षणीय प्रमाणों के तौर पर दो टुकड़े उपलब्ध हैं। पहला तो 3।5 बिलियन वर्ष पुराने एक शैवाल के फॉसिल हैं। धरती 4.6 अरब वर्ष पहले बनी थी और शुरू के पहले आधे अरब सालों तक संभवतः बहुत अधिक गर्म थी। सो धरती पर जीवन अपने संभव हो सकने के आधे अरब वर्षों बाद अस्तित्व में आया जो कि धरती जैसे किसी गृह के दस अरब वर्षों के जीवनकाल के सापेक्ष बहुत छोटा कालखंड है। इससे यह संकेत मिलता है कि जीवन के अस्तित्व में आने की प्रायिकता काफी अधिक है। अगर यह बहुत कम होती तो आप उम्मीद कर सकते थे कि ऐसा होने में उपलब्ध पूरे दस अरब वर्ष लग सकते थे।

दूसरी तरफ, ऐसा लगता है कि अब तक हमारे गृह पर अजनबी ग्रहों के लोगों का आगमन नहीं हुआ। मैं UFO’s की रपटों को नकार रहा हूँ। वे सनकियों या अजीबोगरीब लोगों तक ही क्यों पहुँचते हैं? अगर ऐसा कोई सरकारी षडयंत्र है जो इन रपटों को दबाता है और अजनबी ग्रहवासियों द्वारा लाये गए वैज्ञानिक ज्ञान को अपने तक सीमित रखना चाहता है, तो ऐसा लगता है कि यह नीति अब तक तो पूरी तरह से असफल रही है। और इसके अलावा SETI प्रोजेक्ट के विषद शोध के बावजूद हमने किसी भी तरह के एलियन टीवी क्विज़ शोज़ के बारे में नहीं सुना है। इससे संभवतः संकेत मिलता है कि हमसे कुछ सौ प्रकाशवर्ष की परिधि में हमारे विकास की अवस्था में कहीं कोई एलियन सभ्यता नहीं है। इसके लिए सबसे मुफ़ीद उपाय यह होगा कि एलियनों द्वारा अपहृत कर लिए जाने की अवस्था के लिए बीमा पालिसी जारी की जाएं।

अब मैं सबसे आख़िरी बड़े प्रश्न पर आ पहुंचा हूँ; मानव सभ्यता का भविष्य। अगर हम पूरी आकाशगंगा में अकेले बुद्धिमान लोग हैं, तो हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारा अस्तित्व बना रहे और चलता रहे। लेकिन हम लोग अपने इतिहास के एक लगातार अधिक खतरनाक होते हुए दौर में प्रवेश कर रहे हैं। हमारी आबादी और हमारी धरती के सीमित संसाधनों का दोहन बहुत अधिक तेज़ी से बढ़ रहे हैं, साथ ही हमारी तकनीकी क्षमता भी बढ़ रही है कि हम पर्यावरण को अच्छे या बुरे दोनों के लिए बदल सकें। लेकिन हमारा आनुवांशिक कोड अब भी उन स्वार्थी और आक्रामक भावनाओं को लिए चल रहा है जो बीते हुए समय में अस्तित्व बचाए रखने के लिए लाभदायक होती थीं। अगले सौ सालों में विनाश से बच पाना मुश्किल होने जा रहा है, अगले हज़ार या दस लाख साल की बात तो छोड़ ही दीजिये।

हमारे अस्तित्व के दीर्घतर होने का इकलौता अवसर इस बात में निहित है कि हम अपनी पृथ्वी ग्रह पर ही न बने रहें, बल्कि हमें अन्तरिक्ष में फैलना चाहिए। इन बड़े सवालों के उत्तर दिखलाते हैं कि पिछले सौ सालों में हमने उल्लेखनीय तरक्की की है। लेकिन यदि हम अगले सौ वर्षों से आगे भी बने, बचे रहना चाहते हैं तो हमारा भविष्य अन्तरिक्ष में है। इसीलिये मैं हमेशा ऐसी अन्तरिक्ष यात्राओं का पक्षधर रहा हूँ जिसमें मनुष्य भी जाएँ।

अपनी पूरी ज़िन्दगी मैंने ब्रह्माण्ड को समझने और इन सवालों के उत्तर खोजने की कोशिश की है। मैं भाग्यशाली रहा हूँ कि मेरी विकलांगता गंभीर अड़चन नहीं बनी। वास्तव में इसके कारण मुझे उससे अधिक समय मिल सका जितना अधिकतर लोग ज्ञान की खोज में लगाते हैं। सबसे आधारभूत लक्ष्य है ब्रह्माण्ड के लिए एक सम्पूर्ण सिद्धांत, और हम अच्छी तरक्की कर रहे हैं।

मैं समझता हूँ कि यह बहुत संभव है कि कुछ सौ प्रकाशवर्षों के दायरे में हम इकलौती सभ्यता हों; ऐसा न होता तो हमने रेडियो तरंगें सुनी होतीं। इसका विकल्प यह है कि सभ्यताएं बहुत लम्बे समय तक नहीं बनी रह पातीं, वे खुद अपना विनाश कर लेती हैं।”

स्टीफ़न हॉकिंग को क्या बीमारी थी और वो उनसे कैसे हार गई?

21 साल का एक नौजवान जब दुनिया बदलने का ख़्वाब देख रहा था तभी कुदरत ने अचानक ऐसा झटका दिया कि वो अचानक चलते-चलते लड़खड़ा गया।  शुरुआत में लगा कि कोई मामूली दिक्कत होगी लेकिन डॉक्टरों ने जांच के बाद एक ऐसी बीमारी का नाम बताया जिसने इस युवा वैज्ञानिक के होश उड़ा दिए। ये स्टीफ़न हॉकिंग की कहानी हैं जिन्हें 21 साल की उम्र में कह दिया गया था कि वो दो-तीन साल ही जी पाएंगे।

कब पता चला बीमारी का?

हॉकिंग का पालन-पोषण लंदन और सेंट अल्बंस में हुआ और ऑक्सफ़ोर्ड से फ़िजिक्स में फ़र्स्ट क्लास डिग्री लेने के बाद वो कॉस्मोलॉजी में पोस्टग्रेजुएट रिसर्च करने के लिए कैम्ब्रिज चले गए।

साल 1963 में इसी यूनिवर्सिटी में अचानक उन्हें पता चला कि वो मोटर न्यूरॉन बीमारी से पीड़ित हैं। कॉलेज के दिनों में उन्हें घुड़सवारी और नौका चलाने का शौक़ था लेकिन इस बीमारी ने उनका शरीर का ज़्यादातर हिस्सा लकवे की चपेट में ले लिया। साल 1964 में वो जब जेन से शादी करने की तैयारी कर रहे थे तो डॉक्टरों ने उन्हें दो या ज़्यादा से ज़्यादा तीन साल का वक़्त दिया था।

लेकिन हॉकिंग की क़िस्मत ने साथ दिया और ये बीमारी धीमी रफ़्तार से बढ़ी। लेकिन ये बीमारी क्या थी और शरीर को किस तरह नुकसान पहुंचा सकती है?

बीमारी का नाम क्या?

इस बीमारी का नाम है मोटर न्यूरॉन डिसीज़ (MND)।

एनएचएस के मुताबिक ये एक असाधारण स्थिति है जो दिमाग और तंत्रिका पर असर डालती है। इससे शरीर में कमज़ोरी पैदा होती है जो वक़्त के साथ बढ़ती जाती है। ये बीमारी हमेशा जानलेवा होती है और जीवनकाल सीमित बना देती है, हालांकि कुछ लोग ज़्यादा जीने में कामयाब हो जाते हैं। हॉकिंग के मामले में ऐसा ही हुआ था। इस बीमारी का कोई इलाज मौजूद नहीं है लेकिन ऐसे इलाज मौजूद हैं जो रोज़मर्रा के जीवन पर पड़ने वाले इसके असर को सीमित बना सकते हैं।

क्या लक्षण हैं बीमारी के?

इस बीमारी के साथ दिक्कत ये भी कि ये मुमकिन है कि शुरुआत में इसके लक्षण पता ही न चलें और धीरे-धीरे सामने आएं।

इसके शुरुआती लक्षण ये हैं:

  1. एड़ी या पैर में कमज़ोरी महसूस होना। आप लड़खड़ा सकते हैं या फिर सीढ़ियां चढ़ने में दिक्कत हो सकती है
  2. बोलने में दिक्कत होने लगती है और कुछ तरह का खाना खाने में भी परेशानी होती है
  3. पकड़ कमज़़ोर हो सकती है। हाथ से चीज़ें गिर सकती हैं। डब्बों का ढक्कन खोलने या बटन लगाने में भी परेशानी हो सकती है
  4. मांसपेशियों में क्रैम्प आ सकते हैं
  5. वज़न कम होने लगता है। हाथ और पैरों की मांसपेशी वक़्त के साथ पतले होने लगते हैं।
  6. रोने और हंसने को क़ाबू करने में दिक्कत होती है

ये बीमारी किसे हो सकती है?

मोटर न्यूरॉन बीमारी असाधारण स्थिति है जो आम तौर पर 60 और 70 की उम्र में हमला करती है लेकिन ये सभी उम्र के लोगों को हो सकती है। ये बीमारी दिमाग और तंत्रिका के सेल में परेशानी पैदा होने की वजह से होती है। ये सेल वक़्त के साथ काम करना बंद कर देते हैं। लेकिन ये अब तक पता नहीं चला कि ये कैसे हुआ है।

जिन लोगों को मोटर न्यूरॉन डिसीज़ या उससे जुड़ी परेशानी फ्रंटोटेम्परल डिमेंशिया होती है, उनसे करीबी संबंध रखने वाले लोगों को भी ये हो सकती है। लेकिन ज़्यादातर मामलों में ये परिवार के ज़्यादा सदस्यों को होती नहीं दिखती।

कैसे पता चलता है बीमारी का?

शुरुआती चरणों में इस बीमारी का पता लगाना मुश्किल है। ऐसा कोई एक टेस्ट नहीं है जो इस बीमारी का पता लगा सके और ऐसी कई स्थितियां हैं जिनके चलते इसी तरह के लक्षण हो सकते हैं।

यही बीमारी है और दूसरी कोई दिक्कत नहीं है, ये पता लगाने के लिए ये सब कर सकते हैं:

  • रक्त जांच
  • दिमाग और रीढ़ की हड्डी का स्कैन
  • मांसपेशियों और तंत्रिका में विद्युत सक्रियता ( इलेक्ट्रिकल एक्टिविटी) को आंकने का टेस्ट
  • लम्पर पंक्चर जिसमें रीढ़ की हड्डी में सुई डालकर द्रव लिया जाता है
  • इलाज में क्या किया जा सकता है?

इसमें स्पेशलाइज्ड क्लीनिक या नर्स की ज़रूरत होती है जो ऑक्यूपेशनल थेरेपी अपनाते हैं ताकि रोज़मर्रा के कामकाज करने में कुछ आसानी हो सके

  • फ़िज़ियोथेरेपी और दूसरे व्यायाम ताकि ताक़त बची रहे
  • स्पीच थेरेपी और डाइट का ख़ास ख़्याल
  • रिलुज़ोल नामक दवाई जो इस बीमारी के बढ़ने की रफ़्तार कम रखती है
  • भावनात्मक सहायता

कैसे बढ़ती है ये बीमारी?

मोटन न्यूरॉन बीमारी वक़्त के साथ बिगड़ती जाती है। समय के साथ चलने-फिरने, खाना निगलने, सांस लेने में मुश्किल होती जाती है। खाने वाली ट्यूब या मास्क के साथ सांस लेने की ज़रूरत पड़ती है।

ये बीमारी आख़िरकार मौत तक ले जाती है लेकिन किसी को अंतिम पड़ाव तक पहुंचने में कितना समय लगता है, ये अलग-अलग हो सकता है।

हॉकिंग ने बीमारी को कैसे छ्काया?

न्यूरॉन मोटर बीमारी को एमीट्रोफ़िक लैटरल स्क्लेरोसिस (ALS) भी कहते हैं। ये डिसऑर्डर किसी को भी हो सकता है। ये पहले मांसपेशियों को कमज़ोर बनाता है, फिर लकवा आता है और कुछ ही वक़्त में बोलने या निगलने की क्षमता जाती रहती है।

इंडिपेंडेंट के मुताबिक ALS एसोसिएशन के मुताबिक इस बीमारी के ग्रस्त मरीज़ों का औसत जीवनकाल आम तौर पर दो से पांच साल के बीच होता है। बीमारी से जूझने वाले पांच फ़ीसदी से भी कम लोग दो दशक से ज़्यादा जी पाते हैं। और हॉकिंग ने ऐसी ही एक रहे।

किंग्स कॉलेज लंदन के प्रोफ़ेसर निगल लेग़ ने कहा था,

”मैं ALS से पीड़ित ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानता जो इतने साल जिया हो।”

फिर क्या हॉकिंग कैसे अलग हैं? क्या वो सिर्फ़ क़िस्मत के धनी हैं या फिर कोई और बात है? इस सवाल का जवाब कोई साफ़ तौर पर नहीं दे सकता।

उन्होंने ख़ुद कहा था,

”शायद ALS की जिस क़िस्म से मैं पीड़ित हूं, उसकी वजह विटामिन का गलत अवशोषण है।”

इसके अलावा यहां हॉकिंग की ख़ास व्हीलचेयर और उनकी बोलने में मदद करने वाली मशीन का ज़िक भी करना ज़रूरी है। वो ऑटोमैटिक व्हीलचेयर का इस्तेमाल करते थे और वो बोल नहीं पाते थे इसलिए कंप्यूटराइज़्ड वॉइस सिंथेसाइज़र उनके दिमाग की बात सुनकर मशीन के ज़रिए आवाज़ देते थे।

 निधन

एक परिवार के प्रवक्ता के मुताबिक, 14 मार्च 2018 की सुबह सुबह अपने घर कैंब्रिज में ‘हॉकिंग की मृत्यु हो गई थी। उनके परिवार ने उनके दुःख व्यक्त करने वाले एक बयान जारी किया था।

स्रोत :

इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री(BBC, Wikipedia)

साक्षात्कार साभार : अशोक पांडे

 

ब्रह्माण्ड के शुरुआती सितारों के जन्म का रहस्य

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महा विस्फोट का सिद्धांत ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संदर्भ में सबसे ज्यादा मान्य है। यह सिद्धांत व्याख्या करता है कि कैसे आज से लगभग 13.8 अरब वर्ष पूर्व एक अत्यंत गर्म और घनी अवस्था से ब्रह्मांड का जन्म हुआ। इसके अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति एक बिन्दु से हुयी थी।

प्रस्तावित ब्रह्माण्ड का सबसे पहला निर्मित तारा, विशाल आकार के साथ नीले रंग में दिखाया गया है। यह तारा पूरी तरह से गैसीय तंतुओं से निर्मित हुआ है इसके पृष्टभूमि पर खगोलीय माइक्रोवेव(cosmic microwave background: CMB) को देखा जा सकता है। यह छवि रेडियो अवलोकनों पर आधारित है क्योंकि हम शुरुआती तारों को सीधे तौर पर नही देख सकते। शोधकर्ताओं के अनुसार खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि की मंदता से तारे की उपस्थिति का अनुमान लगाने में मदद मिलती है क्योंकि खगोलीय माइक्रोवेव सितारों से निकले परावैगनी प्रकाश को अवशोषित कर लेते है। छवि में जहां पर खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि कम है यह दर्शाता है वहां गैसीय तंतु अपेक्षा से कही अधिक ठंडे हो सकते है संभव है वे डार्क मैटर के साथ परस्पर प्रतिक्रिया कर रहे हो। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

प्रस्तावित ब्रह्माण्ड का सबसे पहला निर्मित तारा, विशाल आकार के साथ नीले रंग में दिखाया गया है। यह तारा पूरी तरह से गैसीय तंतुओं से निर्मित हुआ है इसके पृष्टभूमि पर खगोलीय माइक्रोवेव(cosmic microwave background: CMB) को देखा जा सकता है। यह छवि रेडियो अवलोकनों पर आधारित है क्योंकि हम शुरुआती तारों को सीधे तौर पर नही देख सकते। शोधकर्ताओं के अनुसार खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि की मंदता से तारे की उपस्थिति का अनुमान लगाने में मदद मिलती है क्योंकि खगोलीय माइक्रोवेव सितारों से निकले परावैगनी प्रकाश को अवशोषित कर लेते है। छवि में जहां पर खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि कम है यह दर्शाता है वहां गैसीय तंतु अपेक्षा से कही अधिक ठंडे हो सकते है संभव है वे डार्क मैटर के साथ परस्पर प्रतिक्रिया कर रहे हो। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

ब्रह्माण्ड का जन्म अर्थात बिग बैंग के लगभग 400000 साल बाद भी ब्रह्माण्ड पूरी तरह से स्याह काला था। कोई तारा या मंदाकिनी का जन्म भी उस समय तक नही हुआ था। उस समय ब्रह्माण्ड मुख्य रूप से उदासीन हाइड्रोजन गैस से भरा हुआ था फिर अगले, 50-100 मिलियन वर्षो तक गुरुत्वाकर्षण ने धीरे-धीरे अपना कार्य किया इन उदासीन गैसों को एक क्षेत्र में एकत्रित कर दिया जिससे वह क्षेत्र काफी घना होता चला गया। अंत मे इन घने गैसों ने तारों का रूप ले लिया इस प्रकार सबसे पहले तारे का जन्म हुआ। खगोलविज्ञानी लंबे समय से ब्रह्माण्ड के शुरुआती तारों के जन्म और इन तारों द्वारा ब्रह्माण्ड पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में लगे रहे है। लगभग 12 सालो के प्रयोगिक प्रयासों के बाद स्कूल ऑफ अर्थ( ASU School of Earth) और स्पेस एक्सप्लोरेशन(Space Exploration) के खगोलविदों ने ब्रह्माण्ड के शुरुआती सितारों के जन्म के रहस्य को बताया है जिसका उल्लेख ऊपर के पंक्तियों में किया गया है।

जुड बोमन(Judd Bowman) के नेतृत्व वाली खगोलविदों की टीम ने रेडियो संकेतों के उपयोग कर बताया है की ब्रह्माण्ड के जन्म के केवल 180 मिलियन वर्ष बाद ही प्रथम तारा का जन्म हो गया था। यह सुनने या लिखने में बड़ा सरल तथ्य लगता है लेकिन इन आंकड़ों को जुटाना वैज्ञानिकों के लिए भी बड़ी चुनौती होती है चाहे वे कितनी ही अत्याधुनिक तकनीक या रेडियो संकेतों का उपयोग क्यों न कर रहे हो। इसका कारण ब्रह्माण्डीय शोर है क्योंकि ब्रह्माण्ड का शोर रेडियो संकेतों के मुकाबले कई हजार गुना ज्यादा शक्तिशाली होते है। शुरुआती रेडियो संकेतों को खोजना उतना ही कठिन है जितना कठिन संपूर्ण पृथ्वी पर एक खास कण को खोजना है। नेशनल साइंस फाउंडेशन(National Science Foundation: NSF) समर्थित इस शोध में कई रेडियो एंटीना और अंतरिक्ष में मौजूद शक्तिशाली दूरबीनों का उपयोग किया गया है। रेडियो खगोलविज्ञान वेद्यशाला(Radio-astronomy Observatory) के साथ दक्षिणी गोलार्द्ध स्थित सभी वेधशालाओं से प्राप्त खगोलीय संकेतों और रेडियो स्पेक्ट्रम को मापा गया है। रेडियो स्पेक्ट्रोमीटर से प्राप्त आंकड़े संकेत देते है की उदासीन हाइड्रोजन गैस शुरुआती ब्रह्माण्ड में बड़े पैमाने पर उपस्थित थे और इन गैसों ने ही शुरुआती तारों बाद में, ब्लैकहोल और आकाशगंगाओं का गठन किया है साथ ही उन्हें विकसित भी करते रहे है।

खगोलविज्ञानी जुड बोमन कहते है

“हम किसी भी तरह प्रत्यक्ष तौर पर शुरुआती जन्मे तारों के इतिहास को नही देख सकते लेकिन जो संकेत मिले है वे हमें इन तारों के जन्म और विकास को दर्शाते हैं। यह प्रोजेक्ट हमें दिखाता है की नयी तकनीक एक बेहतरीन प्रदर्शन कर सकती है और नये खगोलीय खोजों में ऐसी तकनीक बेहतर विकल्प है। इस शोध के परिणाम शुरुआती सितारों के गठन और उसके बुनियादी गुणों के सामान्य सिद्धान्तों की पुष्टि भी कर रहे है।”

MIT के खगोलविज्ञानी एलन रोजर्स(Alan Rogers) का कहना है

“घनी हाइड्रोजन गैस ने विकरणों को अवशोषित कर लिया। वास्तव में हम उस समय के हाइड्रोजन गैस से उत्सर्जित विकरणों को देख पा रहे है। हम लगभग 78 मेगाहर्ट्ज पर रेडियो संकेतों को पकड़ते है यह आवृत्ति बिग बैंग के बाद करीब 180 मिलियन वर्ष के आसपास की है। यह पहला वास्तविक संकेत है जो बताता है बिग बैंग के 180 मिलियन साल बाद पहला तारा का जन्म हुआ।”

अध्ययन से पता चलता है की शुरुआती ब्रह्माण्ड में मौजूद गैस संभावित अपेक्षा से कही अधिक ठंडी रही होगी। ज्यादातर पिछले शोधों द्वारा प्रस्तावित तापमान, इस नई प्रस्तावित तापमान से आधे से भी कम है।

चित्र 2: ब्रह्माण्ड की समय रेखा जिसमे देखा जा सकता है की बिग बैंग के 180 मिलियन वर्षो के बाद संभावित प्रथम तारा का जन्म हुआ था। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

चित्र 2: ब्रह्माण्ड की समय रेखा जिसमे देखा जा सकता है की बिग बैंग के 180 मिलियन वर्षो के बाद संभावित प्रथम तारा का जन्म हुआ था। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

खगोलशास्त्री रेननं बरकाना(Rennan Barkana) ने एक अवधारणा प्रस्तावित किया था जिसके अनुसार बेरिऑन(baryons) ने डार्क मैटर के साथ परस्पर प्रतिक्रिया की होगी और इसके फलस्वरूप प्रारंभिक ब्रह्माण्ड में धीरे-धीरे डार्क मैटर ने अपनी ऊर्जा खो दिया होगा। जुड बोमन कहते है अगर हमारा शोध रेननं बरकाना के अवधारणाओं की पुष्टि करता है तो हमें डार्क मैटर के बारे में बहुत कुछ जानने को मिल सकता है।

चित्र 1: प्रस्तावित ब्रह्माण्ड का सबसे पहला निर्मित तारा, विशाल आकार के साथ नीले रंग में दिखाया गया है। यह तारा पूरी तरह से गैसीय तंतुओं से निर्मित हुआ है इसके पृष्टभूमि पर खगोलीय माइक्रोवेव(cosmic microwave background: CMB) को देखा जा सकता है। यह छवि रेडियो अवलोकनों पर आधारित है क्योंकि हम शुरुआती तारों को सीधे तौर पर नही देख सकते। शोधकर्ताओं के अनुसार खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि की मंदता से तारे की उपस्थिति का अनुमान लगाने में मदद मिलती है क्योंकि खगोलीय माइक्रोवेव सितारों से निकले परावैगनी प्रकाश को अवशोषित कर लेते है। छवि में जहां पर खगोलीय माइक्रोवेव पृष्टभूमि कम है यह दर्शाता है वहां गैसीय तंतु अपेक्षा से कही अधिक ठंडे हो सकते है संभव है वे डार्क मैटर के साथ परस्पर प्रतिक्रिया कर रहे हो। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

चित्र 2: ब्रह्माण्ड की समय रेखा जिसमे देखा जा सकता है की बिग बैंग के 180 मिलियन वर्षो के बाद संभावित प्रथम तारा का जन्म हुआ था। Credit: N.R.Fuller, National Science Foundation.

Journal reference: Nature(2018).
स्रोत: Arizona State University.

लेखिका परिचय

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

प्रस्तुति : पल्लवी कुमारी

पलल्वी  कुमारी, बी एस सी प्रथम वर्ष की छात्रा है। वर्तमान  मे राम रतन सिंह कालेज मोकामा पटना मे अध्यनरत है।

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